मीरा चरित ५६ तक
[2:20pm, 09/07/2015] सत्यजीत तृषित: ॥जय गौर हरि ॥
मीरा चरित (47)
क्रमशः से आगे ...................
मीरा का अधिकांश समय भावावेश में ही बीतने लगा ।विरहावेश में उसे स्वयं का ज्ञान ही न रहता ।ग्रंथों के पृष्ठ -पृष्ठ -में वह अपने लिए ठाकुर का संकेत पाने का प्रयास करती ।कभी ऊँचे चढ़कर पुकारने लगती और कभी संकेत कर पास बुलाती ।कभी हर्ष के आवेश में वह इस प्रकार दौड़ती कि भूल ही जाती कि सम्मुख सीढ़ियाँ है ।कई बार टकराकर वह ज़ख्मी हो जाती ।दासियाँ साथ तो रहती पर कभीकभी मीरा की त्वरा का साथ देना उनके लिए असम्भव हो जाता ।
जो मीरा की मनोस्थिति समझते , वे उसकी सराहना करते , उसकी चरण -रज सिर पर चढ़ाते ।नासमझ लोग हँसते और व्यंग्य करते ।भोजराज देखते कि होली के उत्सव के दिनों में महल में बैठी हुई मीरा की साड़ी अचानक रंग से भीज गई है , और वह चौंककर ' अरे' कहती हुई भाग उठती किसी अनदेखे से उलझने के लिए ।कभी वे छत पर टहल रहे होते और अन्जाने में ही किसी और से बातें करने लग जाती ।कभी ऐसा भी लगता कि किसी ने मीरा की आँखें मूँद ली हो , और ऐसे किसी का हाथ थामकर वह चम्पा , पाटला ,विद्या ये अनसुने नाम लेकर थककर कहती "श्री किशोरीजू !" और पीछे घूम कर आनन्द विह्वल होकर कह उठती - "मेरे प्राणधन ! मेरे श्यामसुन्दर !"
भोजराज के आदेश से चम्पा उनके मुख से निर्झरित भजनों को एक पोथी में लिखती जाती । भोजराज को मीरा की अत्यधिक चिन्ता हो जाती ।जब भी वह कहीं बाहर जाते , वापिसी पर उनका अश्व तीव्र गति से भाग छूटता ।सौ सौ शंकाये सिर उठाकर उन्हें भयभीत कर देती - कहीं वह झरोखे से न गिर पड़ी हो ? कहीं कोई कुछ खिला पिला न दें ,वह सब पर सरलता से विश्वास कर लेती है ।उस दिन भीत से टकरा गई थी तो मस्तक से रक्त बहने लगा था ।अब जाकर न जाने किस अवस्था में पाऊँगा ? मीरा की सुरक्षा की चिन्ता में , भोजराज का उनमें मोह बढ़ने लगा ।
जिस दिन भोजराज विजय प्राप्त कर लौटते तो ठाकुर को कई मिष्ठान्न भोग लगते और दास दासियों को पुरस्कार मिल�ते ।
एक दिन भोजराज कहने लगे ," आपका पूजा -पाठ , सत्संग और भावावेश देखता हूँ , तो बुद्धि कहती है कि यह सब निरर्थक नहीं है ।किन्तु इतने पर भी ईश्वर पर विश्वास नहीं होता ।मैं विश्वास करना तो चाहता हूँ -पर अनुभव के बिना विश्वास के पैर नहीं जमते ।"
" कोई विशेष प्रश्न हो तो बतायें ?शायद मैं कुछ समाधान कर पाऊँ ?" मीरा ने कहा ।
" नहीं , बस यही कि कहाँ है ? किसने देखा है ?और है तो क्या प्रमाण है ?मैं कोशिश तो करता हूँ अपने को समझाने की पर देखिए बिना विश्वास के की गई साधना अपने को और अन्य को धोखा देना है ।"
" पहले आप मुझे बतलाईये कि आपको क्या कठिनाई होती है ?" मीरा ने पूछा ।
" आपको बुरा लगेगा ।" भोजराज ने संकोच से कहा-" बहुत प्रयत्न के पश्चात भी ध्यान में सम्मुख मूर्ति ही सिंहासन पर दिखाई देती है ।बस केवल एक बार दर्शन की लालसा..............।"
" पर क्या आप प्रभु का स्मरण करते है ?""मीरा ने पूछा ।
"सुना है , भगवान भक्तों की बात नहीं टालते ।तब तो आपकी कृपा ही कुछ कर दिखाये तो बात सफल हो , अन्यथा आप सत्य मानिये , मेरे नित्य नियम केवल नीरस होकर रह गये है । मैं जीवन से निराश सा होता जा रहा हूँ -"कहते कहते भोजराज की आँखें भर आई ।वे दूसरी ओर देख अपने आँसूओं को छिपाने का प्रयत्न करने लगे ।
क्रमशः ...................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
[2:20pm, 09/07/2015] सत्यजीत तृषित: ॥जय गौर हरि ॥
मीरा चरित (48)
क्रमशः से आगे ...................
भोजराज एकलिंगनाथ के उपासक थे ।मीरा की भक्ति के भाव में बहते बहते उनके अपने नियम तो यूँ के यूँ धरे रह गये थे।और मीरा को व्यावहारिक और पारिवारिक रूप से भोजराज के रूप में एक ऐसी ढाल मिल गई थी जो उसके और जगत के मध्य खड़ी थी , सो मीरा की भक्ति भाव का राज्य विकसित हो रहा था । मीरा तो गिरधर की प्रीति के साथ ही बड़ी हुईं थी - सो उसके लिये यह सब अनुभव स्वाभाविक भी थे और सहज भी ।पर भोजराज के लिए सब परिवेश नया था ।आँखें , जो देख रही थी - मन उस पर विश्वास करना तो चाहता पर स्वयं कुछ भी व्यक्तिगत अनुभव के आभाव से वह विश्वास कुछ देर के बाद डाँवाडोल हो जाता ।
सो भोजराज की भक्ति की स्थिति परिपक्व न होने के कारण उसे सही दिशा नहीं मिल रही थी ।और वह इसी कारण जीवन से निराश सा हो मीरा से कृपा की याचना कर रहे है ।
" क्या मेरी प्रसन्नता के लिए भी आप प्रभु का स्मरण नहीं कर सकते ।" मीरा ने पूछा ।
" वही तो करने का प्रयत्न कर रहा हूँ अब तक ।जैसे श्रीगीता जी में वर्णित है कि विराट पुरुष की देह में ही संसार है, वैसे ही आपकी पृष्ठभूमि में मुझे अपना कर्तव्य , राजकार्य दिखाई देते है, किन्तु कभी भगवान नहीं दिखाई देते ।"
" दृढ़ संकल्प हो तो मनुष्य के लिए दुर्लभ क्या है ? "मीरा ने गम्भीरता से कहा -" देखिये मेरे मन में आपका बहुत मान-सम्मान है ।पर मैं आपके सांसारिक विषयों के बीच ढाल की तरह आ गईं हूं ।अब वह सब आपको प्राप्त नहीं हो सकते ।दूसरा विवाह आपको स्वीकार नहीं है ।तो चलना तो अब भगवद अराधना के पथ पर ही होगा ।"
" मैं कब इस पथ पर चलने से इन्कार कर रहा हूँ ।किन्तु अँधेरे में पथ टटोलते- टटोलते थक गया हूँ अब तो ।आप कृपा करें याँ कोई सीधा सादा मार्ग बतलाईये" भोजराज ने हताश स्वर में कहा ।
" हमें कहीं जाना हो, पर हम पथ नहीं जानते ।किसी से पूछने पर जो पथ उसने बताया , तो उस पथ पर चलने के बदले हम पथ बताने वाले को ही पकड़ लें और समझ लें कि हमें तो गन्तव्य ( मंजिल ) मिल गया , क्या कहेंगे उसे आप , मूर्ख याँ बुद्धिमान ? मैं होऊँ याँ कोई और , आपको पथ ही सुझा सकते है ।चलना तो , करना तो आपको ही पड़ेगा ।गुरु बालक को अक्षर बता सकते है , उसको घोटकर तो नहीं पिला सकते ।अभ्यास तो बालक को स्वयं ही करना पड़ेगा ।" मीरा ने गम्भीर स्वर से कहा ।
मीरा ने समझाते हुये फिर कहा," देखिये , अगर संसार में याँ उसकी किसी भी वस्तु में महत्व बुद्धि है , तब तक ईश्वर का महत्व या उसका अभाव बुद्धि -मन में नहीं बैठेगा ।जब तक अभाव न जगे, प्राणप्रण से उसके लिए चेष्टा भी न होगी ।आसक्ति अथवा मोह ही समस्त बुराइयों की जड़ है ।"
" आसक्ति किसे कहते है ?" भोजराज ने पूछा ।
" हमें जिससे मोह हो जाता है, उसके दोष भी गुण दिखाई देते है ।उसे प्रसन्न करने के लिए कैसा भी अच्छा -बुरा काम करने को हम तैयार हो जाते है ।हमें सदा उसका ध्यान बना रहता है ।उसके समीप रहने की इच्छा होती है ।उसकी सेवा में ही सुख जान पड़ता है ।यदि यही मोह अथवा आसक्ति भगवान में हो तो कल्याण कारी हो जाती है क्योंकि हम जिसका चिन्तन करते है उसके गुण -दोष हममें अन्जाने में ही आ जाते है ।अतः जिसकी आसक्ति भक्त में होगी , वह भी भक्त हो जायेगा ।क्योंकि अगर उसकी आसक्ति का केन्द्र भक्त सचमुच भक्त है तो वह अपने अनुगत को सच्ची भक्ति प्रदान कर ही देगा ।गुरु - भक्ति का रहस्य भी यही है ।गुरु की देह भले पाञ्चभौतिक हो , उसमें जो गुरु तत्व है , वह शिव है ।गुरु के प्रति आसक्ति अथवा भक्ति उस शिव तत्व को जगा देती है, उसी से परम तत्त्व प्राप्त हो जाता है ।गुरु और शिष्य में से एक भी यदि सच्चा है तो दोनों का कल्याण निश्चित है ।"
" यदि भक्त में आसक्ति होने से कल्याण संभव है तो फिर मुझे चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं जान पड़ती ।आप परम भक्तिमती है और मुझमें आसक्त के सभी लक्षण जान पड़ते है" भोजराज ने संकोच से सिर झुकाते हुये कहा ।
क्रमशः .....................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
[9:58am, 10/07/2015] सत्यजीत तृषित: निकुंज~लीला
देखु सखि!सावन मास बहार।
अरी सखि! सावन के महीने की झूले की बहार देख।
नवल निकुंज-मंजु बिच झूलत, नवल युगल सरकार।
पकरे दोउ इक-इक कर डोरिन, इक-इक कर गर डार।
दोउ दें झाेंटे झूमि-झूमि झुकि, एकहिं एक निहार।
फहरत नील पीत पट अंचल, चंचल लट घुँघरार।
गावत राग मल्हार दुहुँन मिलि, अलि कर स्वर विस्तार
सखिन बजावति बीन वेनु कोउ, सब प्रवीन इक सार।
लखि 'कृपालु' कह दोउ मम ठाकुर, जय हो जय बलिहार।
भावार्थ -
युगल सरकार सुन्दर नवीन निकुंजों में झूला झूल रहे हैं।
-एक हाथ में दोनों झूले की रस्सी पकडे हुए हैं एवं एक-एक हाथ एक दूसरे के गले में डाले हुए हैं।
दोनो प्रेम विभोर होकर एक साथ एक दूसरे को देखते हुए झूम-झूम कर, झुक-झुक कर चरणों से झोंटे दे रहे हैं।
किशोरी जी का नीलाम्बर एवं श्यामसुन्दर का पीताम्बर फहरा रहा है एवं दोनों की चंचल घुँघरारी लटें लहरा रही हैं।
दोनो मिलकर राग मल्हार में झूला गीत गा रहे हैं, एवं सखियाँ तान अलाप ले रही हैं।
एक से एक श्रेष्ठ वाद्य में पारंगत गोपांगनायें, वीणा, वेणु आदि विविध वाद्य बजा रही हैं।
उपर्युक्त झाँकी देखकर 'श्री कृपालु जी' ने
कहा -
"हमारे दोनों सरकार की...
जय हो! जय हो! बलिहार! बलिहार!"
जय श्री कृपालु महाप्रभु की
[9:58am, 10/07/2015] सत्यजीत तृषित: !!!~~ नन्द-पूत ~~!!!
एक गोपी ब्याह कर बरसाने आयी। अपने घर-परिवार के संस्कार और परंपरा बताते हुए उसकी सास यह कहना न भूली कि वह अकेली कहीं न जाये क्योकि यहाँ नन्दगाँव के नन्दजी का बेटा घूमता रहता है और छोटी सी उम्र में ही उसे "इन्द्रजाल" का ऐसा ज्ञान है कि जो उसे देख ले, सुध-बुध खो बैठे सो तू विशेष सावधानी रखना।
गोपी बोली - " मैया ! मैं उसे पहिचानूंगी कैसे" ?
सास ने कहा कि सिर पर मोर मुकुट पहिनता है, घुंघराली अलकावलियाँ हैं, कानों में कुन्डल हैं, रक्त-चंदन का तिलक और मुख पर चंदन का ही श्रंगार उसकी मैया करती है।
बड़े-बड़े सम्मोहित करने वाले नेत्रों में काजल की अनुपम शोभा है, माथे के बायीं ओर बुरी नजर से बचने के लिये डिठौना लगा होता है, काँधे तक फ़ैली उसकी केशराशि पवन का साथ पाकर जब फ़हराती है तो वह अपने सुन्दर कोमल हाथों से उसे ठीक करते हैं।
गले में एक स्वर्ण-हार और एक मोतियों का हार है परन्तु उसे गहवर-वन के पुष्प सर्वाधिक प्रिय हैं सो उसके मित्रगण या यहाँ की गोपियाँ नित्य ही उसके लिये एक पुष्प-हार का सृजन करती है और वह उसे धारण कराती हैं; उस पुष्प-हार में बड़े ही सुगंधित दिव्य फ़ूलों का समावेश है जो उस छलिये के आने की पूर्व-सूचना देने में सक्षम है।
अनावृत वक्ष पर वह पटुका डाले रहता है। भुज-दंडों पर भी चंदन से बनी सुन्दर कलाकृतियाँ शोभायमान रहती हैं। हाथों में मोटे-मोटे चाँदी के कड़ूले और कमर पर पीतांबर के साथ स्वर्ण करधनी शोभा पाती है। हाथ में बंसी लिये बड़ी ही अलमस्त चाल से चलता है, कभी किसी गोपी को छेड़े तो कभी लता-पताओं से बातें भी करता है।
पक्षी भी उसे मुग्ध से देखते हैं और मोर तो टकटकी लगाकर इस अनुपम "सांवरे सौंन्दर्य" का रसपान करते हैं।
इससे अधिक मेरी भी स्मृति नहीं क्योकि जो उसे देख ले, उसे फ़िर उसकी वेश-भूषा की भी स्मृति रह पाये, यह संभव ही नहीं।
देखने वाले को तो केवल उसका मुख और उसके नेत्र ही स्मृति में रहते हैं और उन नेत्रों में ही मानो समस्त अस्तित्व डूबा जाता है।
तुझे स्वस्थ, सानन्द रहना है तो सावधान रहियो। तू सावधान रहेगी तब भी आशंका तो बनी ही रहेगी क्योंकि बरसाने में कुछ हो और वह न जाने, यह भी तो संभव नहीं। वह स्वयं कहाँ मानने वाला है; न जाने उसे "बरसाने" वालों से ऐसी छेड़-छाड़ में क्या आनन्द आता है।
सास न चेताती तो संभवत: नयी ब्याहता गोपी के मन में इतनी तीव्रता से उस "सांवरे" को देखने की इच्छा भी न जगती।
सास नहीं जानती कि उसने अपनी पुत्र-वधू को "सांवरे" से बचाने के स्थान पर "सांवरे" के साथ ही फ़ँसा दिया है।
अब तो एक ही उत्सुकता, लगन कि कब उसे देखूँ।
कोई भी पास-पड़ोस का कार्य हो तो वधू कहे कि आप बैठें, मैं करती हूँ। यही आशा कि कब "घर" से निकलूँ और कब "वह" मिलें। कब "साध" पूरी होवे।
लक्ष्य के अतिरिक्त जब अन्य कुछ भी स्मृति में न रह जाये तो दैव और प्रकृति सभी आपके साथ हो जाते हैं। सारी परिस्थितियाँ आपके अनुकूल होने लगतीं हैं; अनायास ही "अघटन" घटने लगता है। तो भला कैसे न घटता ?
एक दिन "सांकरी खोर" से गुजर रही थी गोपी । सांकरी खोर, पर्वत-श्रंखला के मध्य ऐसा स्थान है, जहाँ से एक ही व्यक्ति एक बार में गुजर सकता है। सर पर दही की मटकी, मुख पर घूँघट का आवरण और झीने आवरण के भीतर से चमकते दो चंचल नेत्र। चंचल नेत्र ? अतिशय सौंन्दर्य को देखने की अभिलाषा में नेत्र "चंचल" हो गये हैं, उन्हें तो अब वही देखना है जिसके बारे में सुना है कि उसे "नहीं" देखना। नेत्र अब सब समय उसी को खोज रहे हैं, कई बार तो इनकी चंचलता पर "लाज" आ जाती है।
गोपी सांकरी खोर के मध्य ही पहुँची थी कि सम्मोहित करने वाला वेणु-नाद उसके कानों में पड़ने लगा और कानों में ही नहीं वरन कर्ण-पूटों के माध्यम से ह्रदय में प्रवेश करने लगा। वह रुकी और चलायमान नेत्रों ने अपना कार्य आरंभ किया कि कहाँ खोजें और क्षणार्ध में ही "सांकरी खोर" के दूसरे छोर पर, जहाँ से गोपी को जाना था, उसकी छवि प्रकट होने लगी। सामने से पड़ते सूर्य के प्रकाश के कारण वह स्पष्ट तो नहीं देख पा रही परन्तु अपनी सास की चेतावनी मस्तिष्क में कौंध गयी।
ह्रदय में संग्राम छिड़ गया । आत्मा-ह्रदय-नेत्र कह रहे हैं कि देखना है और बुद्धि कह रही है कि नहीं, सास ने मना किया है। यहाँ तो संग्राम छिड़ा है, उधर वह "जादूगर" क्रमश: पास आता जा रहा है। हाय रे ! कहाँ भागूँ ? वहीं से जाना है और वहीं से "वह" आ रहा है। "वह" जब भी पकड़ता है तो "सांकरी खोर" में ही पकड़ता है, जब आप "अकेले" हों, उसे तब ही "पकड़ने" में आनन्द आता है। क्यों ? क्योंकि यह संबध स्थापित ही तब होगा जब "कोई दूसरा" न हो।
उस नादान को नहीं मालूम कि "जहाँ जाना" है, वह "वहीं" तो है; वही तो लक्ष्य है, तुम जानो या न जानो, मानो या न मानो। हाय ! कैसा सौंन्दर्य ! कैसे नेत्र ! कैसा दिव्य मुखमंडल ! वह "सांवरा" चुंबक की तरह अपनी ओर बलात ही खींच रहा है, चित्त अब वश में नहीं, सारी इन्द्रियों ने मानो विद्रोह कर दिया है। सब इस देह को छोड़कर उसमें समा जाना चाहती हैं। हे प्रभु ! सास उचित ही कहतीं थीं।
सत्य कहूँ तो कह ही न सकीं; इनके "आकर्षण" की क्षमता का वर्णन कहाँ संभव है।
हे जगदीश ! अब तुम ही मुझे बचाओ ! आज अच्छी फ़ँसी !
कन्हैया अब बहुत पास आ गये। जब कोई उपाय न रहा तो गोपी ने मुँह घुमाकर पर्वत-श्रंखला की ओर कर लिया। जब वह स्वयं ही सब कुछ देने को उतारु हों तो कोई बाधा भला रह सकती है। गोपी छुपने की, न देखने की, बचने की निरर्थक चेष्टा कर रही है और वह मुस्करा रहे हैं।
अब वे एकदम पास आकर खड़े हैं। गोपी घूँघट में से देख रही है कि वह इधर-उधर घूमकर उसका मुखड़ा देखना चाहते हैं और बात करना चाहते हैं। देह जड़ हो गयी है; सामने जो आवरण में से दिख रहा है, वह लौकिक नहीं है। ज्ञान स्वत: ही प्रकट हो रहा हैं प्रेम का स्त्रोत जो न जाने कहाँ दबा पड़ा था, आज फ़ूट पड़ा है। गोपी की आत्मा उस रस में स्नान कर रही है, पवित्र हो रही है, परम चेतन से जो मिलना है। सौन्दर्य दैहिक न होकर अलौकिक हो गया है। आत्मा में परमात्मा से मिलन की अभीप्सा जाग उठी है।
"चौं री सखी ! तू तो बरसाने में कछु नयी सी लग रही है। तोकूँ पहलै कबहुँ नाँय देखो !" यह कहते हुए नन्दनन्दन ने गोपी के कर का स्पर्श कर दिया। अचकचा गयी गोपी और उसने सिर पर रखी "मटकी" झट से हाथों से फ़ेंक दी , "मटकी" फ़ूट गयी ( देह संबध नष्ट हो गया), दही बिखर गया जिसे बड़े परिश्रम से "जमाया" था, अब वह किसी कार्य का नहीं रह गया था।
दोनों हाथों से उसने अपने मुख को ढक लिया। वह कनखियों से देख रही है कि नन्दनन्दन मुस्करा रहे हैं। इतनी क्षमता भी नहीं बची कि भाग पाये, उन्होंने रास्ता ही तो रोक लिया है, अब अन्य कोई मार्ग बचा ही नहीं है कि उनसे बिना मिले, बिना दृष्टि मिलाये, बिना अनुमति माँगे कहीं जाया जा सके।
देर हो रही है और यह मानते नहीं, कुछ देर मौन खड़ी रहती हूँ, जब न बोलूँगी तो अपने-आप चले जावेंगे।
कुछ देर मौन पसरा रहा। प्रतीत होता है कि वह किशोर जा चुका है, अच्छा, अब नेत्र खोलूँ। अचानक ही खिलखिलाकर हँसने का शब्द हुआ और गोपी ने चौंककर, मुड़कर, नेत्र खोल सामने देखा। अब जो देखा तो नेत्रों का होना सफ़ल हो गया ! नेत्र उस रस को पी रहे हैं और आत्मा तृप्त हो रही है ! देह तो जड़ हो ही चुकी है। बूँद, सागर को पीना चाहती है, सागर बूँद को अपना रहा है ! रास ! नृत्य ! गोपी बेसुध हो रही है; नहीं जानती, वह कहाँ है ? है भी कि नहीं ! है कौन ?
सुध आयी तो देखा कि घर में शय्या पर है और चारों ओर से उसके परिवारीजन और गोपियाँ घेरे हुए हैं। उसके सिर पर पानी के छींटे डाल रहे हैं। कोई बोली कि - " अम्मा ! तुमने नयी-नवेली बहू अकेली चौं भेजी, मोय तो लगे कि जाये भूत लग गयो है।"
इतने में ही उसने सुना कि सास कह रही है कि - " मोय पतो है, जाये भूत-वूत कछु नाँय लगे, जाकूँ तो नन्द कौ पूत लगौ है।" उसने फ़िर आँखें बंद कर ली जिसने उसे देख लिया, वह फ़िर अब क्या देखे और क्यों ?
(एक ब्रज रसिक द्वारा प्रेषित -उनका आभार)
***जय जय श्री राधे***
[10:00am, 10/07/2015] सत्यजीत तृषित: अति लौने सखि! लली-ललन री!
कहा कहौं तिन की सुघराई,
लखि लाजहिं रति-कोटि मदन री।
दोउकी रति दोउन अति अनुपम,
दोउ के मन दोउकी उरझन री।
दोउ पृथक हूँ नित अपृथक् सखि,
दोउ को दोउ की लगी लगन री॥1॥
दोउ चकोर दोउ चन्द्र परस्पर,
दोउ के दोउ में लगे नयन री।
दोउ सरोज दोउ सरवर नीके,
दोउ के तन में एकहि मन री॥2॥
प्रीति पगी अनुपम यह जोरी,
प्रीति स्वयं धारे द्वै तन री।
प्रीतिमयी कलकेलि दोउन की,
करहिं प्रीति हीको वितरन री॥3॥
कहा कहें सुहाग सखि अपनो,
जिन पाये ये प्रीति-रतन री।
हम हूँ रंगी प्रीति के रँग में,
भूलि गयी तन मन जन धन री॥4॥
सब कछु दै हम हूँ सब पायो,
रह्यौ कहा अब करन-धरन री।
सब के फल, सबके सरबसु हैं,
सखि ये स्यामा स्याम-बरन री॥5॥
।।जय जय श्री राधे।।
[12:15pm, 10/07/2015] सत्यजीत तृषित: ठुकरा दो या प्यार करो
देव तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से आते हैं।
सेवा में वहुमूल्य वस्तुएं लाकर तुम्हे चढाते हैं।
धूम-धाम से साजबाज से वे मन्दिर में आते हैं।
धूप दीप, नैवैद्य आरती लाकर तुम्हे चढाते हैं।
मैं हूँ एक गरीबनी ऐसी जो कुछ साथ नही लायी।
फिर भी साहस कर मन्दिर में पूजा करने को आयी।
पूजा की विधि नही जानती फिर भी नाथ चली आयी।
धूप-दीप,नैवैद्य-आरती,झाँकी का श्रृंगार नही।
हाय गले में पहनाने को फूलों का भी हार नही।
पूजा और पुजापा प्रभुवर इसी पुजारिन को समझो।
दान-दक्षिणा और निछावर इसी पुजारिन को समझो।
मैं उन्मत्त प्रेम की प्यासी हृदय दिखाने आई हूँ।
जो कुछ है वस यही पास है इसे चढाने आई हूँ।
चरणों पर अर्पित है तेरे चाहें तो स्वीकार करो।
ये तो वस्तु तुम्हारी ही है ठुकरा दो या प्यार करो।
हरि शरणम्
(बहुत पुराना बचपन का यह गीत अचानक याद आ गया।रहा नही गया। हम सब भाई-बहनों का पसंदीदा भजन था।)
[12:15pm, 10/07/2015] सत्यजीत तृषित: जय जगन्नाथ श्री जगन्नाथ मंदिर पुरी मेँ श्री जगन्नाथ जी की महत्वपूर्ण लीला नव कलेवर अनुष्ठान क्रिया होने जा रही हेै .... नवकलेवर यानी नया शरीर। इसमें विश्वविख्यात जगन्नाथ मंदिर में रखे भगवान जगन्नाथ, बालभद्र, सुभद्रा और सुदर्शन की पुरानी मूर्ति को नई मूर्ति से बदला जाता है। इसका आयोजन तब होता है, जब हिंदू कैलेंडर में आषाढ़ के दो महीने होते हैं, जैसा कि इस साल हो रहा है। ऐसा संयोग 12 या 19 वर्षों में एक बार होता है। आखिरी नवकलेवर वर्ष 1996 में मनाया गया था। भगवान की नई मूर्तियां नीम की विशेष किस्म की लकड़ी से बनाई जाती है, इसे स्थानीय भाषा में दारु ब्रह्मïा कहते हैं। इस समारोह में न सिर्फ मूर्तियां बदली जाती हैं बल्कि रहस्यमयी अनुष्ठान के जरिये ' ब्रहमा शक्ति' भी पुरानी मूर्ति से नई मूर्ति में स्थानांतरित की जाती है।
इस प्रक्रिया की शुरुआत जगन्नाथ को दोपहर का भोग लगाने के बाद होती है। भगवान व उनके भाई-बहनों के लिए विशेष तौर पर 12 फुट की माला, जिसे धन्व माला कहते हैं, तैयार की जाती है। पूजा के बाद यह माला 'पति महापात्र परिवार' को सौंप दी जाती है, जो पुरी से 50 किलोमीटर दूर स्थित काकतपुर तक मूर्तियों के लिए लकड़ी खोजने वाले दल की अगुआई करते हैं। काकतपुर में मां मंगला का मंदिर है। वृक्षों की खोज पर निकला दल यात्रा के दौरान पुरी के पूर्व राजा के महल में रुकता है। सबसे बड़ा दैतापति (सेवक) मंदिर में ही सोता है और माना जाता है कि देवी उसके सपने में आकर उन नीम के वृक्षों की सही जगह की जानकारी देती हैं, जिनसे तीनों मूर्तियां बननी हैं।
ये कोई साधारण नीम के वृक्ष नहीं होते। चूंकि भगवान जगन्नाथ का रंग सांवला है, इसलिए जिस वृक्ष से उनकी मूर्ति बनाई जाएगी वह भी उसी रंग का होना चाहिए। हालांकि भगवान जगन्नाथ के भाई-बहन का रंग गोरा है इसलिए उनकी मूर्तियों के लिए हल्के रंग का नीम वृक्ष ढूंढा जाता है। जिस वृक्ष से भगवान जगन्नाथ की मूर्ति बनाई जाएगी, उसकी कुछ खास पहचान होती है, जैसे उसमें चार प्रमुख शाखाएं होनी जरूरी हैं। ये शाखाएं नारायण की चार भुजाओं की प्रतीक होती हैं। वृक्ष के समीप ही जलाशय, श्मशान और चीटियों की बांबी हो यह बहुत जरूरी होता है। वृक्ष की जड़ में सांप का बिल होना चाहिए और वृक्ष की कोई भी शाखा टूटी या कटी हुई नहीं होनी चाहिए। वृक्ष चुनने की अनिवार्य शर्त होती है कि वह किसी तिराहे के पास हो या फिर तीन पहाड़ों से घिरा हुआ हो। उस वृक्ष पर कभी कोई लता नहीं उगी हो और उसके नजदीक ही वरुण, सहादा और बेल के वृक्ष हों (ये वृक्ष बहुत आम नहीं होते हैं)। और चिह्निïत नीम के वृक्ष के नजदीक शिव मंदिर होना भी जरूरी है।
मूर्तियों के लिए नीम के वृक्षों की पहचान करने के बाद एक शुभ मुहुर्त में मंत्रों के उच्चारण के बीच उन्हें काटा जाता है। इसके बाद इन वृक्षों की लकडिय़ों को रथों पर रखकर दैतापति जगन्नाथ मंदिर लाते हैं, जहां उन्हें तराशकर मूर्तियां बनाई जाती हैं। मूर्तियां बदलने का यह समारोह मशहूर रथ यात्रा से तीन दिन पहले होता है, जब 'ब्राह्मïण' या पिंड को पुरानी मूर्तियों से निकालकर नई मूर्तियों में लगाया जाता है। मूर्तियां बदलना इतना आसान नहीं है और इसके लिए कड़े नियम होते हैं, जिनका पालन करना अनिवार्य है। नियमानुसार मूर्तियां बदलने के लिए चुने गए दैतापतियों की आंखों पर पट्टïी बांध दी जाती है, पिंड बदलने से पहले उनके हाथ कपड़े से बांध दिए जाते हैं और लकड़ी की खोज शुरू होने के पहले ही दिन से उन्हें बाल कटवाने, दाढ़ी बनाने या मूंछ कटाने की अनुमति नहीं होती है। मध्यरात्रि में दैतापति अपने कंधों पर पुरानी मूर्तियां लेकर जाते हैं और भोर से पहले उन्हें समाधिस्त कर दिया जाता है। यह ऐसी रस्म है, जिसे कोई देख नहीं सकता और अगर कोई देख ले तो उसका मरना तय होता है। इसी वजह से राज्य सरकार के आदेशानुसार इस रस्म के दौरान पूरे शहर की बिजली बंद कर दी जाती है। अगले दिन नई मूर्तियों को 'रत्न सिंहासन' पर बैठाया जाता है.......
[12:15pm, 10/07/2015] सत्यजीत तृषित: ॥जय गौर हरि ॥
मीरा चरित (49)
क्रमशः से आगे...............
मीरा ने भोजराज को आसक्ति के बारे में बताया कि यों तो आसक्ति बुराइयों की जड़ है , पर अगर यही आसक्ति भक्ति याँ किसी सच्चे भक्त में हो जाये तो कल्याणकारी हो सकती है ।
" यदि भक्त में आसक्ति होने से कल्याण सम्भव है तो फिर मुझे चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं ।आप परम भक्तिमती है और मुझमें आसक्त के सारे लक्षण जान पड़ते है
" भोजराज ने संकोच से कहा ।
" मनुष्य का जीवन बाजी जीतने के लिए मिलता है ।कोई हारने की बात सोच ही ले तो फिर उपाय क्या है ?" मीरा ने कहा ।
" विश्वास की बात न फरमाइयेगा ।वह मुझमें नहीं है ।उसके लिए तो आपको ही मुझ पर दया करनी पड़ेगी । मेरे योग्य कोई सरल उपाय हो तो बताने की कृपा करें ।"
" भगवान का जो नाम मन को भाये, उठते -बैठते ,चलते-फिरते और काम करते लेते रहे ।मन में प्रभु का नाम लेना अधिक अच्छा है, किन्तु मन धोखा देने के अनेक उपाय जानता है ।बहुत बार साँस की गति ही ऐसी हो जाती है कि हमें जान पड़ता है कि मानों मन नाम ले रहा है ।अच्छा है ,आरम्भ मुख से ही किया जाये ।इसके साथ ही यदि सम्भव हो तो जिसका नाम लेते है, उसकी छवि का , रूप माधुरी का ध्यान किया जाये , उसकी लीला माधुरी के चिन्तन की चेष्टा की जाये ।एक तो इस प्रकार मन खाली नहीं रहेगा और दूसरे मन में उल्टे सीधे विचार नहीं आ पायेंगे ।"
" जी ! अब ऐसा ही प्रयत्न करूँगा ।"भोजराज ने समझते हुये कहा ।
भोजराज किसी राज्य के कार्य से उठकर गये तो देवर रत्नसिंह भाई को ढूढँते इधर आ निकले । उस दिन भाई से हुई वार्ता के पश्चात रत्नसिंह की दृष्टि में अपनी भाभीसा का स्वरूप पहले से कहीं अधिक सम्माननीय एवं पूजनीय हो गया था ।मीरा ने झटपट दासियों की सहायता से जलपान और दूसरे मिष्ठान्न स्नेह से दिए ।" अरोगो लालजीसा !इस राजपरिवार में अपनी भौजाई को 'औगणो' ही समझ लीजिए । गिरधरलाल की सेवा में रहने के कारण अधिक कहीं आ जा नहीं पाती ।भली-बुरी जैसी भी हूँ , आप सभी की दया है , निभा रहे हैं ।"
" ऐसा क्यों फरमाती हैं आप ? " रत्नसिंह ने प्रसाद लेते हुये कहा ।" हमारा तो सौभाग्य है कि हम आपके बालक है ।लोग तीर्थों और भक्तों के दर्शन के लिए दूर दूर तक भटकते फिरते है ।हमें तो विधाता ने घर बैठे ही आपके स्वरूप में तीर्थ सुलभ कराये है ।मेरा तो आपसे हाथ जोड़ कर यही निवेदन है कि जो आपको न समझ पाये और जो कोई कुछ कह भी दे, तो उन्हें नासमझ मानकर आप उनपर कृपा रखिये ।"
" यह क्या फरमाते है आप ? किसपर नाराज़ होऊँ लालजीसा ! अपने ही दाँतों से जीभ कट जाये तो क्या हम दाँतों को तोड़ देते है ? सृष्टि के सभी जन मेरे प्रभु के ही सिरजाये हुये ही तो है ।इनमें से किसको बुरा कहूँ ?"
रत्नसिंह ने स्नेह से अपनी अध्यात्मिक जिज्ञासा रखते हुये कहा ," एक बात पूँछू भाभीसा हुकम ? अगर समस्त जगत ईश्वर से ही बना है, तो आप गिरधर गोपाल की मूर्ति के प्रति ही इतनी समर्पित क्यूँ है ? हम सबमें भी उतना ही भगवान है जितना उस मूर्ति में, फिर उसका इतना आग्रह क्यों और दूसरों की इतनी उपेक्षा क्यों ?संतों के साथ का उत्साह क्यों , और दूसरों के साथ का अलगाव का भाव क्यों ?"
"आखिर मेवाड़ के राजकुवंर मतिहीन कैसे होंगे ?"मीरा हँस दी- " बहुत सुन्दर प्रश्न पूछा है आपने लालजीसा ।जैसे इस सम्पूर्ण देह की रग रग में आप है और इसका कोई भी अंग आपसे अछूता नहीं - इतने पर भी आप सभी अंगों और इन्द्रियों से एक सा व्यवहार नहीं करते ।ऐसा क्यों भला ? आपको कभी अनुभव हुआ कि पैरों से मुँह जैसा व्यवहार न करके उनकी उपेक्षा कर रहे है ? गीता में भी भगवान ने समदर्शन का उपदेश दिया है समवर्तन का नहीं ।चाहने पर भी हम वैसा नहीं कर सकेंगे ।वैसे भी यह जगत सत्व, रज और तम इन तीनों गुणों का विकार है ।इन तीनों के समन्वय से ही पूर्ण सृष्टि का सृजन हुआ है ।"
रत्नसिंह धैर्य से भाभीसा का कहा एक एक शब्द का भावार्थ ह्रदयंगम करते जा रहे थे ।
मीरा ने फिर सहजता से ही कहा ," अच्छा और बुरा क्या है? यह समझना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना यह कि आप उसको कहाँ और किससे जोड़ते है ।रावण और कंस आदि ने तो बुराई पर ही कमर बाँधी और मुक्ति ही नहीं , उसके स्वामी को भी पा लिया ।"
"पर अगर मैं अपनी समझ से कहूँ तो अपने सहज स्वभावानुसार चलना ही श्रेष्ठ है ।ज्ञान , भक्ति और कर्म सरल साधन है । इन्हें अपनाने वाला इस जन्म में नहीं तो अन्य किसी जन्म में अपना लक्ष्य पा ही लेगा ।जैसे छोटा बालक उठता -गिरता-पड़ता अंत में दौड़ना सीख ही लेता है , वैसे ही मनुष्य सत् के मार्ग पर चलकर प्रभु को पा ही लेता है ।"
रत्नसिंह मन्त्रमुग्ध सा मीरा के उच्चारित प्रत्येक शब्द का आनन्द ले रहा था और अन्जाने में ही मीरा की प्रेम भक्ति धारा में एक और सूत्र जुड़ता जा रहा था- और रत्नसिंह भी चाहे बेखबर ही , पर इस भक्ति पथ पर अग्रसर होने का शुभारम्भ कर चुका था ।
क्रमशः ...................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
[12:15pm, 10/07/2015] सत्यजीत तृषित: ॥जय गौर हरि ॥
मीरा चरित (50)
क्रमशः से आगे ............
मीरा अधिक समय अपने भावावेश में ही रहती । एक रात्रि अचानक मीरा के क्रन्दन से भोजराज की नींद उचट गई ।वे हड़बड़ाकर अपने पलंग से उठे और भीतरी कक्ष की और दौड़े जहाँ मीरा सोई थी ।
" क्या हुआ ? क्या हुआ ? कहते कहते वे भीतर गये । पलंग पर औंधी पड़ी मीरा पानी में से निकाली भाँति तड़फड़ा रही थी ।हिल्कियाँ ले लेकर वह रो रो रही थी ।बड़ी बड़ी आँखों से आँसुओं के मोती ढलक रहे थे ।
भोजराज मन में ही सोचने लगे -" आज इनकी वर्षगाँठ और शरद पूनम की महारास का दिन होने से दो- दो उत्सव थे ।मीरा का आज हर्ष उफना पड़ता था । आधी रात के बाद तो सब सोये ।अचानक क्या हो गया ?"
उन्होंने देखा कि मीरा की आकुल व्या�कुल दृष्टि किसी को ढूँढ रही है ।झरोखे से शरद पूर्णिमा का चन्द्रमा अपनी शीतल किरणें कक्ष में बिखेर रहा था ।
भोजराज अभी समझ नहीं पा रहे थे कि वह क्या करें , कैसे धीरज बँधाये , क्या कहे ? तभी मीरा उठकर बैठ गई और हाथ सामने फैला कर वह रोते हुए गाने लगी ..........
पिया कँहा गयो नेहड़ा लगाय ।
छाड़ि गयो अब कौन बिसासी,
प्रेम की बाती बलाय ।
बिरह समँद में छाँड़ि गयौ हो ,,
नेह की नाव चलाय ।
मीरा के प्रभु कबरे मिलोगे ,
तुम बिन रह्यो न जाय ।
क्रमशः ...................
॥ श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
[1:57pm, 10/07/2015] सत्यजीत तृषित: ॥जय गौर हरि ॥
मीरा चरित (49)
क्रमशः से आगे...............
मीरा ने भोजराज को आसक्ति के बारे में बताया कि यों तो आसक्ति बुराइयों की जड़ है , पर अगर यही आसक्ति भक्ति याँ किसी सच्चे भक्त में हो जाये तो कल्याणकारी हो सकती है ।
" यदि भक्त में आसक्ति होने से कल्याण सम्भव है तो फिर मुझे चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं ।आप परम भक्तिमती है और मुझमें आसक्त के सारे लक्षण जान पड़ते है
" भोजराज ने संकोच से कहा ।
" मनुष्य का जीवन बाजी जीतने के लिए मिलता है ।कोई हारने की बात सोच ही ले तो फिर उपाय क्या है ?" मीरा ने कहा ।
" विश्वास की बात न फरमाइयेगा ।वह मुझमें नहीं है ।उसके लिए तो आपको ही मुझ पर दया करनी पड़ेगी । मेरे योग्य कोई सरल उपाय हो तो बताने की कृपा करें ।"
" भगवान का जो नाम मन को भाये, उठते -बैठते ,चलते-फिरते और काम करते लेते रहे ।मन में प्रभु का नाम लेना अधिक अच्छा है, किन्तु मन धोखा देने के अनेक उपाय जानता है ।बहुत बार साँस की गति ही ऐसी हो जाती है कि हमें जान पड़ता है कि मानों मन नाम ले रहा है ।अच्छा है ,आरम्भ मुख से ही किया जाये ।इसके साथ ही यदि सम्भव हो तो जिसका नाम लेते है, उसकी छवि का , रूप माधुरी का ध्यान किया जाये , उसकी लीला माधुरी के चिन्तन की चेष्टा की जाये ।एक तो इस प्रकार मन खाली नहीं रहेगा और दूसरे मन में उल्टे सीधे विचार नहीं आ पायेंगे ।"
" जी ! अब ऐसा ही प्रयत्न करूँगा ।"भोजराज ने समझते हुये कहा ।
भोजराज किसी राज्य के कार्य से उठकर गये तो देवर रत्नसिंह भाई को ढूढँते इधर आ निकले । उस दिन भाई से हुई वार्ता के पश्चात रत्नसिंह की दृष्टि में अपनी भाभीसा का स्वरूप पहले से कहीं अधिक सम्माननीय एवं पूजनीय हो गया था ।मीरा ने झटपट दासियों की सहायता से जलपान और दूसरे मिष्ठान्न स्नेह से दिए ।" अरोगो लालजीसा !इस राजपरिवार में अपनी भौजाई को 'औगणो' ही समझ लीजिए । गिरधरलाल की सेवा में रहने के कारण अधिक कहीं आ जा नहीं पाती ।भली-बुरी जैसी भी हूँ , आप सभी की दया है , निभा रहे हैं ।"
" ऐसा क्यों फरमाती हैं आप ? " रत्नसिंह ने प्रसाद लेते हुये कहा ।" हमारा तो सौभाग्य है कि हम आपके बालक है ।लोग तीर्थों और भक्तों के दर्शन के लिए दूर दूर तक भटकते फिरते है ।हमें तो विधाता ने घर बैठे ही आपके स्वरूप में तीर्थ सुलभ कराये है ।मेरा तो आपसे हाथ जोड़ कर यही निवेदन है कि जो आपको न समझ पाये और जो कोई कुछ कह भी दे, तो उन्हें नासमझ मानकर आप उनपर कृपा रखिये ।"
" यह क्या फरमाते है आप ? किसपर नाराज़ होऊँ लालजीसा ! अपने ही दाँतों से जीभ कट जाये तो क्या हम दाँतों को तोड़ देते है ? सृष्टि के सभी जन मेरे प्रभु के ही सिरजाये हुये ही तो है ।इनमें से किसको बुरा कहूँ ?"
रत्नसिंह ने स्नेह से अपनी अध्यात्मिक जिज्ञासा रखते हुये कहा ," एक बात पूँछू भाभीसा हुकम ? अगर समस्त जगत ईश्वर से ही बना है, तो आप गिरधर गोपाल की मूर्ति के प्रति ही इतनी समर्पित क्यूँ है ? हम सबमें भी उतना ही भगवान है जितना उस मूर्ति में, फिर उसका इतना आग्रह क्यों और दूसरों की इतनी उपेक्षा क्यों ?संतों के साथ का उत्साह क्यों , और दूसरों के साथ का अलगाव का भाव क्यों ?"
"आखिर मेवाड़ के राजकुवंर मतिहीन कैसे होंगे ?"मीरा हँस दी- " बहुत सुन्दर प्रश्न पूछा है आपने लालजीसा ।जैसे इस सम्पूर्ण देह की रग रग में आप है और इसका कोई भी अंग आपसे अछूता नहीं - इतने पर भी आप सभी अंगों और इन्द्रियों से एक सा व्यवहार नहीं करते ।ऐसा क्यों भला ? आपको कभी अनुभव हुआ कि पैरों से मुँह जैसा व्यवहार न करके उनकी उपेक्षा कर रहे है ? गीता में भी भगवान ने समदर्शन का उपदेश दिया है समवर्तन का नहीं ।चाहने पर भी हम वैसा नहीं कर सकेंगे ।वैसे भी यह जगत सत्व, रज और तम इन तीनों गुणों का विकार है ।इन तीनों के समन्वय से ही पूर्ण सृष्टि का सृजन हुआ है ।"
रत्नसिंह धैर्य से भाभीसा का कहा एक एक शब्द का भावार्थ ह्रदयंगम करते जा रहे थे ।
मीरा ने फिर सहजता से ही कहा ," अच्छा और बुरा क्या है? यह समझना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना यह कि आप उसको कहाँ और किससे जोड़ते है ।रावण और कंस आदि ने तो बुराई पर ही कमर बाँधी और मुक्ति ही नहीं , उसके स्वामी को भी पा लिया ।"
"पर अगर मैं अपनी समझ से कहूँ तो अपने सहज स्वभावानुसार चलना ही श्रेष्ठ है ।ज्ञान , भक्ति और कर्म सरल साधन है । इन्हें अपनाने वाला इस जन्म में नहीं तो अन्य किसी जन्म में अपना लक्ष्य पा ही लेगा ।जैसे छोटा बालक उठता -गिरता-पड़ता अंत में दौड़ना सीख ही लेता है , वैसे ही मनुष्य सत् के मार्ग पर चलकर प्रभु को पा ही लेता है ।"
रत्नसिंह मन्त्रमुग्ध सा मीरा के उच्चारित प्रत्येक शब्द का आनन्द ले रहा था और अन्जाने में ही मीरा की प्रेम भक्ति धारा में एक और सूत्र जुड़ता जा रहा था- और रत्नसिंह भी चाहे बेखबर ही , पर इस भक्ति पथ पर अग्रसर होने का शुभारम्भ कर चुका था ।
क्रमशः ...................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
[1:57pm, 10/07/2015] सत्यजीत तृषित: ॥जय गौर हरि ॥
मीरा चरित (50)
क्रमशः से आगे ............
मीरा अधिक समय अपने भावावेश में ही रहती । एक रात्रि अचानक मीरा के क्रन्दन से भोजराज की नींद उचट गई ।वे हड़बड़ाकर अपने पलंग से उठे और भीतरी कक्ष की और दौड़े जहाँ मीरा सोई थी ।
" क्या हुआ ? क्या हुआ ? कहते कहते वे भीतर गये । पलंग पर औंधी पड़ी मीरा पानी में से निकाली भाँति तड़फड़ा रही थी ।हिल्कियाँ ले लेकर वह रो रो रही थी ।बड़ी बड़ी आँखों से आँसुओं के मोती ढलक रहे थे ।
भोजराज मन में ही सोचने लगे -" आज इनकी वर्षगाँठ और शरद पूनम की महारास का दिन होने से दो- दो उत्सव थे ।मीरा का आज हर्ष उफना पड़ता था । आधी रात के बाद तो सब सोये ।अचानक क्या हो गया ?"
उन्होंने देखा कि मीरा की आकुल व्या�कुल दृष्टि किसी को ढूँढ रही है ।झरोखे से शरद पूर्णिमा का चन्द्रमा अपनी शीतल किरणें कक्ष में बिखेर रहा था ।
भोजराज अभी समझ नहीं पा रहे थे कि वह क्या करें , कैसे धीरज बँधाये , क्या कहे ? तभी मीरा उठकर बैठ गई और हाथ सामने फैला कर वह रोते हुए गाने लगी ..........
पिया कँहा गयो नेहड़ा लगाय ।
छाड़ि गयो अब कौन बिसासी,
प्रेम की बाती बलाय ।
बिरह समँद में छाँड़ि गयौ हो ,,
नेह की नाव चलाय ।
मीरा के प्रभु कबरे मिलोगे ,
तुम बिन रह्यो न जाय ।
क्रमशः ...................
॥ श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
[2:45pm, 11/07/2015] सत्यजीत तृषित: ॥जय गौर हरि ॥
मीरा चरित (51)
क्रमशः से आगे ................
पद के गान का विश्राम हुआ तो मीरा दोनों हाथों से मुँह ढाँपकर फफक फफक कर रोने लगी ।भोजराज समझ नहीं पाये कि क्या करें , कैसे धीरज बँधाये , क्या कहें ?
इससे पहले वह कुछ सोच पाते , वह पछाड़ खाकर धरती पर गिर पड़ी ।भोजराज घबराकर उन्हें उठाने के लिए बढ़े , नीचे झुके परन्तु अपना वचन और मर्यादा का सोच ठिठक गये ।तुरन्त कक्ष से बाहर जाकर उन्होंने मिथुला को पुकारा ।उसने आकर अपनी स्वामिनी को संभाला ।
ऐसे ही मीरा पर कभी अनायास ही ठाकुर से विरह का भाव प्रबल हो उठता ।एक ग्रीष्म की रात्रि में, छत पर बैठे हुये भोजराज की अध्यात्मिक जिज्ञासा का समाधान मीरा कर रही थी ।कुछ ही देर में भोजराज का अनुभव हुआ कि उनकी बात का उत्तर देने के बदले मीरा दीर्घ श्वास ले रही है ।"क्या हुआ ? आप स्वस्थ तो है ?" भोजराज ने पूछा ।तभी कहीं से पपीहे की ध्वनि आई तो ऐसा लगा जैसे बारूद में चिन्गारी पड़ गई हो ।वह उठकर छत की ओट के पास चली गई ।रूँधे हुये गले से कहने लगी.............
पपइया रे ! कद को बैर चितार्यो ।
मैं सूती छी भवन आपने पिय पिय करत पुकार्यो॥
दाझया ऊपर लूण लगायो हिवड़े करवत सार्यो।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर हरि चरणा चित धार्यो॥
"म्हें थारो कई बिगाड़यो रे पंछीड़ा ! क्या तूने मेरे सिये घाव उधेड़े ? क्यों मेरी सोती पीर जगाई ? अरे हत्यारे ! अगर तुम विरहणी के समक्ष आकर "पिया पिया" बोलोगे तो वह तुम्हारी चौंच न तोड़ डालेगी क्या ?"
फिर अगले ही क्षण आशान्वित हो कहने लगी ," देख पपीहरे ! अगर तुम मेरे गिरधर के आगमन का सुहावना संदेश लेकर आये हो तो मैं तेरी चौंच को चाँदी से मढ़वा दूँगी ।" फिर निराशा और विरह का भाव प्रबल हो उठा -" पर तुम मुझ विरहणी का क्यूँ सोचोगे ? मेरे पिय दूर हैं ।वे द्वारिका पधार गये , इसी से तुझे ऐसा कठोर विनोद सूझा ? श्यामसुन्दर ! मेरे प्राण ! देखतें है न आप इस पंछी की हिम्मत ? आपसे रहित जानकर ये सभी जैसे मुझसे पूर्व जन्म का कोई बैर चुकाने को उतावले हो उठे है ।पधारो पधारो मेरे नाथ ! यह शीतल पवन मुझे सुखा देगा , यह चन्द्रमा मुझे जला देगा ।अब और......... नहीं .......सहा........ जाता .....नहीं.......स......हा.....जा.......ता ।"
भोजराज मीरा का प्रभु विरहभाव दर्शन कर अवाक हो गये ।तुरन्त चम्पा को बुला कर, मीरा को जल पिलाया ,उन्हे पंखा करने को कहा । भोजराज मन में सोचने लगे -" मुझ अधम पर कब कृपा होगी प्रभु ! कहते है भक्त के स्पर्श से ही भक्ति प्रकट हो जाती है , पर भाग्यहीन भोज इससे भी वंचित है ।"
भोजराज ने मंगला और चम्पा को आज्ञा दी कि अब से वे अपनी स्वामिनी के पास ही सोया करें ।और स्वयं वह दूसरी ओर चले गये । मीरा की दासियाँ उसका विरहावेश समझती थी...... और उसे स्थिति अनुसार संभालती भी थी ।पर मीरा के नेत्रों में नींद कहाँ थी...... वह फिर हाथ सामने बढ़ा गाने लगी........
हो रमैया बिन ,नींद न आवै ।
विरह सतावे................
क्रमशः ................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
[2:45pm, 11/07/2015] सत्यजीत तृषित: ॥जय गौर हरि ॥
मीरा चरित (52)
क्रमशः से आगे .................
मीरा की अवस्था कभी दो-दो दिन और कभी तीन -चार दिनों तक भी सामान्य नहीं रहती थी ।वे कभी तो भगवान से मिलने के हर्ष और कभी विरह के आवेश में जगत और देह की सुध को भूली रहती थी । कभी यूँ ही बैठे बैठे खिलखिला कर हँसती , कभी मान करके बैठी रहती और कभी रोते रोते आँखें सुजा लेती ।यदि ऐसे दिनों में भोजराज को चित्तौड़ से बाहर जाने का आदेश मिलता तो -यूँ तो वह रण में प्रसन्नता से जाते पर मीरा के आवेश की चिन्ता कर उनके प्राणों पर बन आती ।
आगरा के समीप सीमा पर भोजराज घायल हो गये ।सम्भवतः शत्रु ने विष बुझे शस्त्र का प्रहार किया था ।राजवैद्य ने दवा भरकर पट्टियाँ बाँधी ।औषधि पिलाई और लेप किये जाने से धीरेधीरे घाव भी भरने लगा ।
एक शीत की रात्रि ।कुवँर अपने कक्ष में और मीरा भीतर अपने कक्ष में थी ।रात्रि काफी बीत चुकी थी , पर घाव में चीस के कारण भोजराज की नींद रह- रह करके खुल जाती ।वे मन ही मन श्रीकृष्ण ,श्रीकृष्ण , श्रीकृष्ण नाम जप कर रहे थे ।
उन्हें मीरा के कक्ष से उसकी जैसे नींद में बड़बड़ाने की आवाज़ सुनाई दी । मीरा खिलखिला कर हँसती �हुई बोली ," चोरजारपतये नम: ,आप तो सब चोरों के शिरोमणि है । पर आपका यह न्यारा रस-रूप ही मुझे भाता है ।रसो वै स: ।आप तनिक भी मेरी आँखों से दूर हो -मुझसे सहा नहीं जाता ।"
भोजराज ने अपने पलंग से ही बैठे -बैठे देखा -मीरा भी बैठकर बातें कर रही थी , पर जाग्रत अवस्था में हो ऐसा नहीं प्रतीत हो रहा था।उन्हें लगा मीरा प्रभु से वार्तालाप कर रही है ।भोजराज को थोड़ी देर तक झपकी आ गई तो वह सो गये ।
" श्यामसुन्दर ! मेरे नाथ !! मेरे प्राण !!! आप कहाँ है ? इस दासी को छोड़ कर कहाँ चले गये ?"
भोजराज की नींद खुल गई ।उन्होंने देखा कि मीरा श्यामसुन्दर को पुकारती �हुई झरोखे की ओर दौड़ी ।भोजराज ने सोचा कि कहीं झरोखे से टकराकर ये गिर जायेंगी -- तो उन्होंने चोट की आशंका से चौकी पर पड़ी गद्दी उठाकर आड़ी कर दी ।पर मीरा तो अपनी भाव तरंग में उस झरोखे पर ही चढ़ गई । मीरा ने भावावेश में हाथ के एक ही झटके से झरोखे से पर्दा हटाया और बाँहें फैलाये हुये ' मेरे प्रभु ! मेरे सर्वस्व !! कहती हुई एक पाँव झरोखे के बाहर बढ़ा दिया ।सोचने का समय भी नहीं था , बस पलक झपकते ही उछलकर भोजराज झरोखे में चढ़े और शीघ्रता से मीरा को भीतर कक्ष में खींच लिया ।एक क्षण का भी विलम्ब हो जाता तो मीरा की देह नीचे चट्टानों पर गिरकर बिखर जाती ।
मीरा अचेतन हो गई थी ।उसकी देह को उठाये हुये वे नीचे उतरे ।भोजराज ने ममता भरे मन से उन्हें उनके पलंग पर रखा- मीरा के अश्रुसिक्त चन्द्रमुख पर आँसुओं की तो मानों रेखाएँ खिंच गई थी ।तभी " ओह म्हाँरा नाथ ! तुम्हारे बिना मैं कैसे जीवित रहूँ ?"
मीरा के मुख से ये अस्फुट शब्द सुनकर भोजराज मानों चौंक उठे , जैसे नींद से वे जागे हों ......".यह .........यह क्या किया मैंने ?" क्या किया ? मैं अपने वचन का निर्वाह नहीं कर पाया ।मेरा वचन टूट गया ।"
क्रमशः ...................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
[2:45pm, 11/07/2015] सत्यजीत तृषित: ॥जय गौर हरि ॥
मीरा चरित (53)
क्रमशः से आगे ..................
वचन टूटने के पछतावे से भोजराज का मन तड़प उठा ।प्रातःकाल सबने सुना कि महाराजकुमार को पुनः ज्वर चढ़ आया है ।बाँह का सिया हुआ घाव भी उधड़ गया ।फिर से दवा - लेप सब होने लगा , किन्तु रोग दिन-दिन बढ़ता ही गया ।यों तो सभी उनकी सेवा में एक पैर पर खड़े रहते थे , किन्तु मीरा ने रात -दिन एक कर दिया ।उनकी भक्ति ने मानों पंख समेट लिए हो ।पूजा सिमट गई और आवेश भी दब गया ।
भोजराज बार बार कहते ," आप आरोग लें ।अभी तक आप विश्राम करने नहीं गईं ? मैं अब ठीक हूँ- अब आप विश्राम कर लीजिए ।अभी पीड़ा नहीं है ।आप चिन्ता न करें ।"
मीरा को नींद आ जाती तो भोजराज दाँतों से होंठ दबाकर अपनी कराहों को भीतर ढकेल देते ।
ऐसे ही कितने दिन -मास निकलते गये ।पर भोजराज की स्थिति में बहुत सुधार नहीं हुआ ।फिर भी मुस्कुराते हुये एक दिन उत्सव का समय जान कहने लगे ," आज तो वसंत पंचमी है ।ठाकुर जी को फाग नहीं खेलायी ? क्यों भला ? आप पधारिये , उन्हें चढ़ाकर गुलाल का प्रसाद मुझे भी दीजिये ।"
एक दो दिनों के बाद उन्होंने मीरा से कहा - आज सत्संग क्यों रोक दिया ।? यह तो अच्छा नहीं हुआ । आप पधारिये , मैं तो अब ठीक हो गया हूँ ।" वे कहते ,मुस्कराते पर उनके घाव भर नहीं रहे थे ।
" आपसे कुछ अर्ज़ करना चाहता हूँ मैं " एक दिन एकान्त में भोजराज ने मीरा से कहा ।
" जी फरमाईये " समीप की चौंकी पर बैठते हुये मीरा ने कहा ।
" मैं आपका अपराधी हूँ ।मेरा आपको दिया वचन टूट गया " भोजराज ने अटकती वाणी में नेत्र नीचे किए हुये कहा - " आप जो भी दण्ड बख्शें , मैं झेलने को प्रस्तुत हूँ ।केवल इतना निवेदन है कि यह अपराधी अब परलोक - पथ का पथिक है ।अब समय नहीं रहा पास में ।दण्ड ऐसा हो कि यहाँ भुगता जा सके ।अगले जन्म तक ऋण बाक़ी न रहे ।" उन्होंने हाथ जोड़कर सजल नेत्रों से मीरा की ओर देखा ।
" अरे, यह क्या ? आप यूँ हाथ न जोड़िये ।" फिर गम्भीर स्वर में बोली -" मैं जानती हूँ ।उस समय तो मैं अचेत थी, किन्तु प्रातः साड़ी रक्त से भरी देखी तो समझ गई कि अवश्य ही कोई अटक आ पड़ी होगी ।इसमें अपराध जैसा क्या हुआ भला ?"
" अटक ही आ पड़ी थी " भोजराज बोले - याँ तो आपको झरोखे से गिरते देखता याँ वचन तोड़ता ।इतना समय नहीं था कि दासियों को पुकारकर उठाता ।क्यों वचन तोड़ा , इसका तनिक भी पश्चाताप नहीं है, किन्तु भोज अंत में झूठा ही रहा........ ।" भोजराज का कण्ठ भर आया ।तनिक रूक कर वे बोले ," दण्ड भुगते बिना यह बोझ मेरे ह्रदय पर रहेगा ।"
" देखिये , मेरे मन में तनिक भी रोष नहीं है ।मैं तो अपने
ही भाव में बह गिर रही थी - तो मरते हुये को बचाना पुण्य है कि पाप ? मेरी असावधानी से ही तो यह हुआ ।यदि दण्ड मिलना ही है तो मुझे मिलना चाहिए , आपको क्यों ?"
" नहीं ,नहीं ।आपका क्या अपराध है इसमें ?"भोजराज व्याकुल स्वर में बोले -" हे द्वारिकाधीश ! ये निर्दोष है ।खोटाई करनहार तो मैं हूँ ।तेरे दरबार में जो भी दण्ड तय हुआ हो ,वह मुझे दे दो ।इस निर्मल आत्मा को कभी मत दुख देना प्रभु !" भोजराज की आँखों से आँसू बह चले ।
" अब आप यूँ गुज़री बातों पर आँसू बहाते रहेंगे तो कैसे स्वस्थता लाभ करेगें ? आप सत्य मानिये , मुझे तो इस बात में अपराध जैसा कुछ लगा ही नहीं " मीरा ने स्नेह से कहा ।
" आपने मुझे क्षमा कर दिया ,मेरे मन से बोझ उतर गया "भोजराज थोड़ा रूक कर फिर अतिशय दैन्यता से बोले ," मैं योग्य तो नहीं, किन्तु एक निवेदन और करना चाहता था ।"
" आप ऐसा न कहे, आदेश दीजिए , मुझे पालन कर प्रसन्नता होगी ।"
" अब अन्त समय निकट है ।एक बार प्रभु का दर्शन पा लेता........... ।"
मीरा की बड़ी बड़ी पलकें मुँद गई ।भोजराज को लगा कि उनकी आँखों के सामने सैकड़ों चन्द्रमा का प्रकाश फैला है ।उसके बीच में खड़ी वह साँवरी मूरत , मानों रूप का समुद्र हो, वह सलोनी छवि नेत्रों में अथाह स्नेह भरकर बोली -" भोज ! तुमने मीरा की नहीं , मेरी सेवा की है ।मैं तुमसे प्रसन्न हूँ ।"
" मेरा अपराध प्रभु !" भोजराज अटकती वाणी में बोले ।
वह मूरत हँसी , जैसे रूप के समुद्र में लहरें उठी हों ।" स्वार्थ से किए गये कार्य अपराध बनते है भोज ! निस्वार्थ से किए गये कार्यों का कर्मफल तो मुझे ही अर्पित होता है ।तुम मेरे हो भोज ! अब कहो, क्या चाहिए तुम्हें ?" उस मोहिनी मूर्ति ने दोनों हाथ फैला कर भोजराज को अपने ह्रदय से लगा लिया ।
आनन्द के आवेग से भोजराज अचेत हो गये ।जब चेत आया तो उन्होंने हाथ बढ़ा कर मीरा की चरण रज माथे चढ़ायी ।पारस तो लोहे को सोना ही बना पाता है, पर यह पारस लोहे को भी पारस बना देता है ।दोनों ही भक्त आलौकिक आनन्द में मग्न थे ।
क्रमशः ...................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
[9:15pm, 12/07/2015] सत्यजीत तृषित: ॥जय गौर हरि ॥
मीरा चरित (54)
क्रमशः से आगे..............
" रत्नसिंह ! तुम्हारी भाभी का भार मैं तुम्हें सौंप रहा हूँ ।मुझे वचन दो कि उन्हें कभी कोई कोई कष्ट नहीं होने दोगे ।" एकान्त में भोजराज ने रत्नसिंह से कहा ।
" यह क्या फरमा रहे है आप बावजी हुकम ! " वह भाई के गले लग रो पड़े ।
" वचन दो भाई ! अन्यथा मेरे प्राण सहज नहीं निकल पायेंगे ।अब अधिक समय नहीं रहा ।"
रत्नसिंह ने भाई के पाँवो को छूकर रूँधे हुये कण्ठ से बोले -" भाभीसा मेरे लिए कुलदेवी बाणमाता से भी अधिक पूज्य है ।इनका हर आदेश श्री जी (पिता -महाराणा सांघा) के आदेश से भी बढ़कर होगा ।इनके ऊपर आनेवाली प्रत्येक विपत्ति को रत्नसिंह की छाती झेल लेगी ।"
भोजराज ने हाथ बढ़ा कर भाई को छाती से लगा लिया ।दूसरे ही दिन भोजराज ने शरीर छोड़ दिया ।
राजमहल और नगर में उदासी छा गई ।मीरा के नेत्रों में एकबार आँसू की झड़ी लगी और दूसरे दिन ही वह उठकर अपने सदैव के नित्यकर्मों में, ठाकुर जी की सेवा में लग गई ।
कुछ बूढ़ी औरतें कुछ रस्में करने आई तो मीरा ने किसी भी श्रंगार उतारने से मना कर दिया कि मेरे पति गिरधर तो अविनाशी है ।
और जब उन्होंने पूछा ," तो महाराजकुमार भोजराज ?"
मीरा ने कहा," महाराजकुमार तो मेरे सखा थे ।वे मुझे यहाँ ले आये तो मैं आ गई ।अगर आप मुझे वापिस भेजना चाहें तो चली जाऊँगी ।पर मैं अपने पति के रहते चूड़ियाँ क्यूँ उतारूँ?"
बात सबके कान में पहुँची तो एकबार तो सब भन्ना गये ।किन्तु रत्नसिंह ने आकर निवेदन किया -" भाभीसा तो आरम्भ से ही यह फरमाती रही है कि मेरे पति ठाकुर जी है ।अब उन्होंने ऐसा नया क्या कह दिया कि सब बौखलाये-से फिर रहे है ? अगर उन्हें यह सब उचित नहीं लग रहा तो किसी को भी उनसे ज़ोर ज़बरदस्ती करने की कोई आवश्यकता नहीं ।" ऐसा कहकर रत्नसिंह ने रनिवास की स्त्रियों को डाँट कर शांत कर दिया ।
जिसने भी सुना ,वह आश्चर्य में डूब गया ।स्त्रियों के समाज में थू थू होने लगी ।उसी दिन से मेड़तणी मीरा परिवार में उपेक्षिता ही नहीं घृणिता भी हो गई ।दूसरी ओर संत समाज में उनका मान सम्मान बढ़ता जा रहा था ।पुष्कर आने वाले संत मीरा के दर्शन -सत्संग के बिना अपनी यात्रा अधूरी मानते थे ।उनके सरल सीधे - सादे किन्तु मार्मिक भजन जनसाधारण के ह्रदय में स्थान बनाते जा रहे थे ।
क्रमशः ...............
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
[9:15pm, 12/07/2015] सत्यजीत तृषित: ॥जय गौर हरि॥
मीरा चरित (55)
क्रमशः से आगे............
बाबर ने राजपूतों पर हमला बोल दिया ।यही निश्चय हुआ कि मेवाड़ के महाराणा साँगा की अध्यक्षता में सभी छोटे मोटे शासक बाबर से युद्ध करें ।शस्त्रों की झंकार से राजपूती उत्साह उफन पड़ा । सबके दिल में वीर भोजराज का अभाव कसक रहा था ।रत्नसिंह वीर हैं , किन्तु उनकी रूचि कला की ओर अधिक झुकी है ।महाराणा सांगा युद्ध के लिए गये और रत्नसिंह को राज्य प्रबन्ध के लिए चित्तौड़ ही रह जाना पड़ा ।
एक दिन रत्नसिंह ने भाभी से पूछा ," जब संसार में सब मनुष्य भगवान ने बनाए हैं-उनके स्वभाव और रूप गुण कला भी भगवान का ही दिया है तो मनुष्य क्यों मेरा मेरा कर दूसरे को मारता और मरता है ? मनुष्य को मारना कहाँ का धर्म है भाभीसा ?"
लालजीसा ! जिसने मनुष्य और उनके गुण स्वभाव बनाये है उसीने कर्तव्य , धर्म और न्याय भी बनाये है इनका सामना करने के लिए उसी ने पाप अधर्म और अन्याय की भी रचना की है ।धर्म की गति बहुत सूक्ष्म है लालजीसा ! बड़े बड़े मनीषी भी संशय में पड़ जाते है क्योंकि जो कर्म एक के लिए धर्म की परिधि में आता है , वही कर्म दूसरे के लिए अधर्म के घर जा बैठता है ।जैसे सन्यासी के लिए भिक्षाटन धर्म है, किन्तु गृहस्थ के लिए अधर्म ।ब्राह्मण के लिए याचना धर्म हो सकता है, किन्तु क्षत्रिय के लिए अधर्म ।ऐसे ही अपने स्वार्थवश किसी को मारना हत्या है और युद्ध में मारना धर्म सम्मत वीरता है ।समय के साथ नीति -धर्म बदलते रहते है ।"
आगरा के पास हो रहे युद्ध से आये समाचार से पता लगा कि महाराणा सांगा एक विषबुझे बाण से मूर्छित हो गये है ।उन्हें जयपुर के पास किसी गाँव में चिकित्सा दी जाने लगी । उन्हें हठ था कि बाबर को जीते बिना मैं चित्तौड़ वापिस नहीं जाऊँगा और वह स्वस्थ होने लगे ।राजपूतों की वीरता देखकर बाबर भी एकबारगी सोच में पड़ गया ।पर किसी विश्वासघाती ने महाराणा को विष दे दिया । महाराणा के निधन से हिन्दुआ सूर्य अस्त हो गया । मेवाड़ की राजगद्दी पर कुँवर रत्नसिंह आसीन हुये ।
महाराणा सांगा की धर्मपत्नी धनाबाई के पुत्र थे रत्नसिंह और उनकी दूसरी पत्नी कर्मावती बाई के पुत्र थे- विक्रमादित्य और कुंवर उदयसिंह ।रानी कर्मावती की तरफ महाराणा का विशेष झुकाव था और उसने कुछ जागीरें अपने पुत्रों के नाम पहले से ही लिखवा ली थी और अब उसकी दृष्टि मेवाड़ की राजगद्धी पर थी ।
यह परिवारिक वैमनस्य रत्नसिंह के कोमल ह्रदय के लिए प्राणघातक सिद्ध हुआ ।और रत्नसिंह के साथ ही उनकी पत्नी पँवार जी सती हो गई ।इनके एक पुत्री थी श्याम कुँवर बाईसा जिसे अपनी बड़ी माँ मीरा से खूब स्नेह मिला ।
चित्तौड़ की गद्दी पर बैठे कलियुग के अवतार राणा विक्रमादित्य । वह अविश्वासी और ओछे स्वभाव के थे जो सदा खिदमतगारों, कुटिल और मूर्ख लोगों से घिरे रहते । जिन विश्ववसनीय सामन्तों पर पूर्ण राज्य टिका था , उन्हें दूध की मक्खी की तरह बाहर निकाल दिया गया ।
राणा विक्रमादित्य ने एक दिन बड़ी बहन उदयकुँवर को बुला कहा," जीजा ! भाभी म्हाँरा को अर्ज़ कर दें कि नाचना-गाना हो तो महलों में ही करने की कृपा करें ।वहाँ मन्दिर में चौड़े चौगान , बाबाओं की भीड़ में अपने घाघरा फहराती हुई अपनी कला न दिखायें ।यह रीत इनके पीहर में होगी , हम सिसौदियों के यहाँ नहीं है ।"
उदयकुँवर बाईसा ने मीरा के पास आकर अपनी ओर से नमक मिर्च मिला कर सब बात कह दी- "पहले तो अन्नदाता और भाईसा आपको कुछ नहीं कहते थे पर भाभी म्हाँरा ! राणा जी यह सब न सहेगें ,वह तो आज बहुत क्रोध में थे ।सो देखिए आपका फर्ज़ है कि इन्हें प्रसन्न रखें ।और अबसे आप मन्दिर न पधारा करें ।"
इसका उत्तर मीरा ने तानपुरा उठाकर गाकर दिया ..........
राणाजी मैं तो गोविंद के गुण गासूँ ।
राजा रूठै, नगरी राखै।
हरि रूठयो कहाँ जासूँ ?
हरि मन्दिर में नृत्य करासूँ,
घुँघरिया धमकासूँ ॥
यह संसार बाढ़ का काँटा ,
जीया संगत नहीं जासूँ ।
मीरा कहे प्रभु गिरधर नागर,
नित उठ दरसन पासूँ॥
राणाजी मैं तो गोविंद के गुण गासूँ ।
क्रमशः ....................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
[9:15pm, 12/07/2015] सत्यजीत तृषित:
प्रवचन...।
हरी गुरु केवल कृपा ही करते हे। कृपा के सिवा कुछ नही करते। कर्म नही करते, क्यों नही करते इसलिए नही करते क्यों की कर्म करते हुए। अकर्ता रहते हे। नही समझे, अरे भाई उन्हें कुछ चाहिए क्या संसार से नही ना कुछ पाना हे क्या संसार से नही ना इसलिए कर्म करते हुए अकर्ता रहते। महापुरुस को जो पाना था। उन्हीने पा लिया किसको,, अरे भगवान को पा लिया आनंद मिल गया । अब कुछ भला क्यों करे। अब कुछ करते भी हे। तो ज़ीव कल्याण के लिए। क्यों की उनसे रहा नही जाता देखते हे की मनुष्य कितना दुख भोगता हे। करुणा मयी हे। इसलिए हमारे लिए कर्म करते हे। और कर्म का फल नही मिलता मायाधिन हो गए। हम लोग तो मायातित हे। हमे कर्म भोगना पड़ेगा। चाहे अच्छा कर्म करे या बुरा, और माया भी कृपा करती हे। कैसे अजी हम लोग अच्छा कर्म जेसे दान पूण्य करते हे। स्वर्ग में जाते हे। जो अच्छा बुरा दोनों करता हे। वो मृत्यु लोक में आते हे। और जो बुरा ही कर्म केवल करते हे। वो नर्क में जाते हे। तो तीनो लोक माया के अंडर में और 84 लाख में घूमती हे। अजी ये केसी कृपा करती हे। हा करती हे। हमारा गला पकड़ लेती हे। जो भगवान् से विमुख हे। इसलिए हमारे हाथ में हे। हम केसा कर्म करते हे माया के अंडर में करे या इन तीनो लोको से उठकर भगवत कर्म करे जो मायाधिस हरी का भजन करे। तो हम लक्ष्य की प्राप्ति कर सके चाहे एक जन्म लगे या दस जन्म लगे।
थेंक्यु।
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज....।
[1:05pm, 14/07/2015] सत्यजीत तृषित: ॥जय गौर हरि ॥
मीरा चरित (58)
क्रमशः से आगे ................
मिथुला, चम्पा और दूसरी दासियाँ धैर्य से अपनी बाईसा से ज्ञान की बातें सुन रही थी ।
मीरा ने फिर कहा," इस संसार में कहीं भी सुख नहीं है ।सुख और आनन्द जुड़वा भाई है - इनके मुख की आकृति भी एक सी है - पर स्वभाव एक दूसरे से विपरीत है ।मानव ढूँढता तो है आनन्द को, किन्तु मुख -साम्य के कारण सुख को ही आनन्द जानकर अपना लेता है ।और इस प्रकार ।आनन्द की खोज में वह जन्म जन्मान्तर तक भटकता रहता है ।"
" इनके स्वभाव में क्या विपरीतता है ?" मिथुला ने जिज्ञासा की ।
" आनन्द सदा एक सा रहता है ।इसमें घटना बढ़ना नहीं है ।पर सुख मिलने के साथ ही घटना आरम्भ हो जाता है ।इस प्रकार मनुष्य की खोज पूरी नहीं होती और जीवन के प्रत्येक पड़ाव पर वह सुखी होने का स्वप्न देखता रहता है ।" एक बात और सुन मिथुला , इस सुख का एक मित्र भी है और यह दोनों मित्र एक ही स्वभाव के है ।उसका नाम है दुख ।दुख भी सुख के समान ही मिलते ही घटने लग जाता है अतः यदि सुख आयेगा तो उसका हाथ थामें दुख भी चला आयेगा ।"
" आनन्द की कोई पहचान बाईसा ? ।उसका ठौर ठिकाना कैसे ज्ञात हो कि पाने का प्रयत्न किया जाये ।"
" पहचान तो यही है कि वह इकसार है , वह ईश्वर का रूप है ।ईश्वर स्वयं आनन्द स्वरूप है ।जैसे सुख के साथ दुख आता है , उसी प्रकार आनन्द से ईश्वर की प्रतीति होती है ।इसे पाने के बाद यह खोज समाप्त हो जाती है ।अब रही ठौर ठिकाने की बात , तो वह गुरु और संतो की कृपा से प्राप्त होता है ।उसके लिए सत्संग आवश्यक है ।संत जो कहे, उसे सुनना और मनन- चिन्तन करना और भी आवश्यक है ।"
मीरा धैर्य से मिथुला की जिज्ञासा के उत्तर में कितने ही भक्तों के प्रश्नों का समाधान करती जा रही हैं ।फिर मीरा ने आगे कहा," दुख और सुख दोनों का मूल इच्छा है और इच्छा का मूल मोह है ।एक इच्छा की पूर्ति होते ही उसी की कोख से कई और इच्छायें जन्म ले लेती है ।यही तृष्णा है और इसका कहीं भी अन्त नहीं ।"
मीरा ने थोड़ा रूककर फिर कहा," अब हम आनन्द का भी स्वरूप समझें ।जैसे हमें दूसरे सुखी दिखाई देते है , पर वे सुखी है नहीं ।उसी प्रकार जिनको आनन्द मिलता है ,वे बाहर से दुखी दिखाई देने पर भी दुखी नहीं होते ।"
क्रमशः ..............
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
[1:05pm, 14/07/2015] सत्यजीत तृषित: ॥जय गौर हरि॥
मीरा चरित (59)
क्रमशः से आगे...............
"बाईसा हुकम ! एक बात बतलाइये, क्या भक्त और अच्छे लोग पिछले जन्म में दुष्कर्म ही करके आये है कि वर्तमान में दुख पाना उनका भाग्य बन गया , और सभी खोटे लोग पिछले जन्म में धर्मवान थे कि इस जन्म में मनमानी करते हुये पिछले कर्मों के बल पर मौज मना रहे है ?"
" अरे नहीं , ऐसा नहीं होता ।शुभ ,अशुभ और मिश्रित तीन प्रकार के कर्म होते है ।जैसे पापी केवल पाप ही नहीं, कभी जाने -अन्जाने में पुण्य भी करते है ,उसी तरह पुण्यात्मा के द्वारा भी कोई न कोई अन्जाने में अपराध हो जाता है ।तुमने देखा होगा मिथुला ! मातापिता अपनी संतान में तनिक सी भी खोट सह नहीं पाते है ।यदि दो बालक खेलते हुये लड़ पड़े तो माता -बाप अपने ही बच्चे को डाँटते है कि तू उसके साथ खेलने क्यों गया ? ठीक वैसे ही प्रभु अपने भक्त में तनिक सी कालिख भी नहीं देख- सह पाते ।" मीरा ने समझाते हुये कहा ।
फिर मीरा ने आगे कहा ," जब प्रारब्ध बनने का समय आता है तो भक्त के संचित कर्मों से ढूँढ ढूँढ करके बुरे कर्मफलों का समावेश किया जाता है कि शीघ्र से शीघ्र यह सब समाप्त हो जायें और वह प्रभु के आनन्द को प्राप्त कर सके ।दूसरी तरफ़ , पापियों पर दया करके शुभ कर्मो का फल प्रारब्ध -भोग में समावेशित किया जाता है कि किसी भी प्रकार यह सत्संग पाकर सुधर जाये ।क्योंकि भक्त के पास तो भगवान के नाम रूपी चिन्तामणि है जिसके बल से वह कठिन दुख और विपत्तियों को सह जाता है ।फिर प्रभु की दृष्टि उसपर से ज़रा भी नहीं हटती ।यही कारण है कि भक्त सज्जन दुखी और दुर्जन सुखी दिखाई देते है ।"
" जगत में इतने लालच है बाईसा हुकम ! यदि भक्त नामक जीव अशेष दुख उठाकर परिस्थितियों की शिला से फिसल गया ,तो वह बेचारा तो दोनों ओर से गया ।" मिथुला के ऐसा कहने पर दूसरी दासियों ने मुस्कराते हुये हाँ में हाँ मिलाई ।
मीरा ने इस संशय का समाधान करते हुये कहा," यदि इस पथ का पथिक विचलित होकर संसार के विषयों के प्रलोभन से अथवा परिस्थितियों की शिला से फिसल भी जाये तब भी भगवान उसके जीवन में कई ऐसे प्रसंग उपस्थित करते है , जिससे वह संभल जाये ।यदि वह नहीं संभल पाये तो अगला जन्म लेने पर जहाँ से उसने साधना छोड़ी थी , वहीं से वह आगे चल पड़ेगा ।"
" मिथुला ! कहाँ तक करूणासागर भगवान की करूणा का बखान करूँ - उसके अराध्य बार -बार फिसलने का खतरा उपस्थित ही नहीं होने देते ।अपने भक्त की संभाल प्रभु स्वयं करते है ।" मीरा ने कहा ।
क्रमशः ..................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
[1:05pm, 14/07/2015] सत्यजीत तृषित: ॥जय गौर हरि ॥
मीरा चरित (60)
क्रमशः से आगे .................
मीरा ज्ञान ,वैराग्य और भक्ति के कठिन विषयों को सरल शब्दों में अति स्नेह से समझाती हुई बोली ," मिथुला ! अगर भगवान परिस्थितियों में निज जन को डालते हैं तो क्षण क्षण उसकी संभाल का दायित्व भी स्वयं लेते है ।देखो, दुखों की सृष्टि मनुष्य को उजला करने के लिए हुई है ।क्योंकि दुख से ही वैराग्य का जन्म होता है और प्रभु सुख प्राप्ति के लिए किए गये प्रत्येक प्रयत्न को निरस्त कर देते है ।हार थककर वह संसार की ओर पीठ देकर चलने लगता है ।फिर तो क्या कहें ? संत, शास्त्र और वे सभी उपकरण , जो उसकी उन्नति में आवश्यक है , एक एक करके प्रभु जुटा देते है ।इस प्रकार एक बार इस भक्ति के पथ पर पाँव धरने के पश्चात लक्ष्य के शिखर तक पहुँचना आवश्यक हो जाता है , भले दौड़कर पहुँचे याँ पंगु की भांति सरकते-खिसकते पहुँचे ।"
" जिसने एक बार भी सच्चे मन से चाहा कि ईश्वर कौन है ? अथवा मैं कौन हूँ , उसका नाम भक्त की सूची में लिखा गया ।उसके लिए संसार के द्वार बन्द हो गये ।अब वह दूसरी ओर जाने के लिए चाहे जितना प्रयत्न करे कभी सफल नहीं हो पायेगा ।गिर -गिर कर उठना होगा ।भूल -भूल कर पुनः भक्ति का पथ पकड़ना होगा ।पहले और पिछले कर्मों में से छाँट-छूँट करके वे कर्मफल प्रारब्ध बनेंगे जो उसे लक्ष्य की ओर ठेल दें ।"
" जैसे स्वर्णकार स्वर्ण को ,जब तक खोट न निकल जाये, तबतक बार -बार भठ्ठी में पिघला कर ठंडा करता है और फिर कूट-पीट कर, छीलकर और नाना रत्नों से सजाकर सुन्दर आभूषण तैयार कर देता है , वैसे ही प्रभु भी जीव को तपा तपा कर महादेव बना देते है ।एक बार चल पड़ा फिर तो आनन्द ही आनन्द है ।"
" परसों एक महात्माजी फरमा रहे थे कि कर्मफल याँ तो ज्ञान की अग्नि में भस्म होते है अथवा भोग कर ही समाप्त किया जा सकता है , तीसरा कोई उपाय नहीं है ।" चम्पा ने पूछा ," बाईसा हुकम ! भक्त यदि मुक्ति पा ले तो उसके संचित कर्मों का क्या होगा ?"
" ये कर्म भक्त का भला बुरा करने वालों में और कहने वालों में बँट जायेंगे ।समझी ?"
मीरा अपनी दासियों की जिज्ञासा से प्रसन्न हो मुस्कुरा कर बोली," आजकल चम्पा बहुत गुनने लगी है ।"
चम्पा सिर झुका कर बोली ," सरकार की चरण -रज का का प्रताप है ।लगता है , मैंने भी किसी जन्म में," ईश्वर कौन है ," यह सत्य जानने की इच्छा की होगी जो प्रभु ने कृपा करके आप जैसी स्वामिनी के चरणों का आश्रय प्रदान किया है ।"
क्रमशः ..................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
Comments
Post a Comment