भाव और रस
रस की उपलब्धि में भाव आवश्यकता
इस ‘रस’ की उपलब्धि ‘भाव’ के बिना नहीं होती। ‘भावुक’ हुए बिना ‘रसिक’ नहीं हुआ जाता। ‘भावग्राह्य’ या भावसाध्य रस का प्रकाशन - आस्वादन भाव के बिना सम्भव नहीं। अतएव जहाँ ‘रस’ का प्रकाश है, वहाँ भाव की विद्यमानता है ही। इसी से प्रेमरसास्वादनकारी ज्ञानी पुरुषों ने यह साक्षात्कार किया है कि सृष्टि के मूल में - प्रकाश और प्रलय सभी अवस्थाओं में - भावपरिरम्भित, भाव के द्वारा आलिंगित रस के उत्स - मूल स्रोत से ही रसानन्द की नित्य धारा प्रवाहित है।
इस प्रकार जिस रस और भाव की लीला से ही - उनकी नृत्युभंगिमा से ही समस्त विश्व का विविध विलासवैचित्र्य सतत विकसित, अनुप्राणित और आवर्तित है, सभी रसों और भावों का जो मूल आत्मा और प्राण है, वह एक महाभावपरिरम्भित रसराज या आनन्दरस-विलास-विलसित महाभावस्वरूपिणी श्रीराधा से समन्वित श्रीकृष्ण ही (दूसरे शब्दों में अभिन्नतत्त्व श्रीराधा-माधव ही) समस्त शास्त्रों के तथा महामनीषियों के द्वारा नित्य अन्वेषणीय परात्पर परिपूर्ण तत्व हैं।
जय जय श्यामाश्याम ।।।
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