तृषा बिन्दु , तृषित
[10/2, 12:00] सत्यजीत तृषित: तृप्ति छीन लीजिये कुछ छीनना हो तो ।
किसी की प्यास कभी ना छिनिये -- तृषित
[10/2, 12:53] सत्यजीत तृषित: भक्त एक ही बात समझता है ... भक्ति ! अभिनय बहुत है साकार कितनी निर्मलता यह होती , अहा । भावात्मकता की लहरें ।
भक्त होना आसान नहीं , दास्यता की सहजता ही दूभर हो गई है । महाराज होना हमें फिर दास्यता मात्र अभिनय भर । बड़े बड़े महाराज अभिनय दास्यता करते है तो सिद्ध होता है , कितनी दुर्लभ है दास्यता , सत्ताधीश केवल सत्ताधीश नहीं होता हृदय में अनुभूत ना हो पर कहता स्वयं को सेवक है । जो केवल दास है , वह सत्य सत्ता का अधिकार नहीं ... प्रियतम रूप उन श्रीचरणों में सेवातुर है । पर भोगासक्त तृषित जीव तेरे हृदयगत दासीप्रथा को कौन निकाल सकता है । जीव , तू माने या ना माने , तेरी पिपासित आत्मा नित श्रीहरि दासी है । श्रीहरिदासी चरणन में नित कोटि नमन । तृषित
[10/2, 12:53] सत्यजीत तृषित: प्रियाप्रियतम निज हृदय सुख की ही व्याकुलता हो । ना कि व्याकुलता-निज सुख पृथक और भगवत्सुख पृथक ।
--- तृषित ।
निज सुख की सिद्धि भगवत हृदयस्थ सुख से भिन्न होना ही भक्तिहीनता है । तृषा अनिवार्य है परन्तु उसमें सुख दिव्य रसभाव(प्रियालाल) का पुष्ट होता हो । - तृषित ।
[10/2, 13:01] सत्यजीत तृषित: हममें रावण से कम से कम यह एक बुराई अधिक है ... दीनता का अभिनय ।
सब कुछ भी चाहिये और अभिनय भी नहीं छोड़ते ...
तृषित ।
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