प्रीति की नटता , तृषित

प्रीति की नटता

नटवर निहारती प्रीति नटराज हो जाती है । गौरांगी के गौरत्व स्मोज्जवल प्रेमाणुओं की सुगन्ध में डूबते मनहर गौरी हो जाते है । मात्र रूप का नही... भाव का ही नहीं... लीला का ही विवर्त हो जाता । समुची लीला के नायक श्रृंगार  कर  बाहर निकलते है तो नायिका के रँग श्रृंगार में भीगे हुए । परन्तु यह महानायिका परमोज्जवल और नितांत स्वयं ही स्वयं पूर्ण है । ऐसी द्वितीय कृति सम्भव ही नहीं । वह स्वयं का यह श्रृंगार जब प्रियतम को धारण कराती है तो लगता है श्रीप्रभुकृष्ण और श्रीदेवीके काली दो स्थितियाँ नहीं । बंगाल नाट्य कला का भरा पूरा क्षेत्र आज भी है और वह सजा लेता है कृष्ण प्रियतम को कालिके रूप में । आदि शंकराचार्य की दृष्टि गोविन्द को माँ पुकारती थी । यह पुकार श्रृंगार रँगों से उद्भूत स्वरूप को सत्य ही कहती है कि हाँ अब तुम तुम नहीं हो , पर गौरांगी भी नहीं । गौरता को कैसे धारण करोगें नितप्रेमोन्मद नवघन । दृष्टा जानते है शुक्लत्व की पुरुषाकृति कही सिद्ध है तो शिव स्वरूप में  ...चन्द्रार्कअग्नि विलोचनं । गौरांगी वल्लभीके को गौरकृष्ण स्वरूप में शिव भी आह्लादित हो उठते है क्योंकि उन्हें श्रीराधिका का यह कृष्णश्रृंगार ही दृश्य है । वेद - श्रुति यह गौर स्वरूप कह ना सकी क्योंकि इस स्वरूप के दर्शन भरे नयनों में इसी स्वरूप की रज रूपी काजल का श्रृंगार आवश्यक है । अतः श्रीप्रिया जू का यह अद्भुत श्रृंगार श्रीशिव की वह परमोच्च श्रृंगार झाँकी है जहाँ वह प्रीति को प्रियतम में सजा हृदय अनुभव कर सकते है । श्री गौरांगी का दर्शन आज तो रसिक कृपा से हम सब अनुभव कर सकते है परन्तु कोई चित्र न बनता उनका कोई दृश्य उन्हें कहने की चेष्टा ही न करता तब हम अनुभव करते मात्र श्यामसुन्दर में सजी उस सुन्दरी को तब श्रृंगार महिमा सिद्ध करती नटवर की नटराज हिय अनुभूति के मर्म को । अर्थात कहने का अभिप्राय वह दृष्टि चाहिये जो परस्पर दर्शन करें । परस्पर पुकारें , परस्पर अनुभव करें । यही श्रीयुगल का परस्पर रँग हुलास दर्शन सहचरी किंकरियों को दृश्य है और युगल का द्वेत दर्शन भी उन्हीं की सेवार्थ है । शेष कहीं श्रीराधिका दर्शनात्मक ही नहीं क्योंकि मात्र वह उज्जवले या तो परमपुरुष कृष्ण के दृष्टि गोचर कुछ ह्यो पाती अथवा उन्ही की सेवार्थ श्रृंगार सेवामयी सेविकाओं को कुछ दृष्टिगोचर हो पाती । अतः शताब्दियों से भीतर बाहर तर्क-शास्त्री स्वयं की राधारेणुका लालसा अभाव में अनुभव न कर पाने से कह देते है कि प्रेमियों का मानसिक श्रृंगार है राधिका और कोई कहते शिव ही राधा है । और शिव कहते मेरे भावराज्य का शिव रूप प्रवेश नहीं वह राधा है । त्रिपुरेश्वरी शिवसुहागिनी ललिताम्बा का भाव प्रवेश दर्शन सुनना ही हर की हरिदासता है । प्रीति का नाट्यशास्त्र अति घनिभूत नटता भरे रहस्यों का सिन्धु है । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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