गलित और सँग
*स्वभाव के पथिक को साधन - भजन नकल का नहीं , रसिक कृपा का पान करना है ।* स्वयं को मिली मणि और कृपा से सुलभ कंकर में भी कंकर की ही महिमा है समान भजन रस होने पर भी रस वैचित्री जो बनेगी वह ही निज सेवा है या स्वभाव है । सो नकल का अर्थ नहीं बनेगा । साधारण प्राकृत स्थिति में पथिक की अपनी मनोभिलाषित क्रिया वैसे ही अहंकार आदि दोष का सृजन कर सकती है जैसे धातु को जंग लगा हो । परन्तु रसिक सँग या प्रदत प्रसाद से वह रसार्थ गलित हो सकता है और स्व या लोक कल्पित आकृति के गलित होने पर ही नवीन पात्रता का सृजन सम्भव है । ज्यों एक ही अग्नि के सँग से स्वर्ण - रजत या लौह गलकर भिन्न-भिन्न ही स्वभाव ग्रहण करेंगे त्यों कृपा वर्षा से हुई गलित स्थिति से अपने अपने स्वभाव के पथ सहज खुल सकते है । स्वयं द्वारा कदापि स्वयं के गलन के साधन नहीं बन सकते जबकि सत्य का सँग (रसिक सँग) सहज ही रस संगम हेतु द्रवित स्थिति से भर देगा । चिंतन करिये कि कब कब हम हिम आकृति वत स्वयं को गलित - द्रवित पाने को आकुलित हुए है । तरल हुए बिना तरल (रस) से संगम कैसे होगा ? सहज रस का स्वरूप - स्वभाव पान होने पर सहज ही रसमयता तद...