Posts

Showing posts from November, 2021

स्वार्थ सिद्धि और भक्ति , तृषित

स्वार्थ सिद्धि कुछ भी हो वह भक्ति नही होती । भले श्रीभगवन प्रकट हो जावें तप या किसी भी साधन से पर प्रकट सकामता हेतु किये गए तो भक्ति नही हुई ।  भक्ति में भगवान को प्रकट होने के लिये कहना भी नही होता वह स्वयं वहाँ प्रेमातुर रहते है । भक्त-प्रेमी को आंशिक स्व हित नही केवल अपनत्व से अर्थ होता है , वहाँ कुछ लेन देन नही होती , वहाँ तो "श्री हरि" मेरे है और मैं सदा से उनका , उन हेतु यह भावना नित्य वृद्धित होती जाती है । "तृषित" एक सेवक मानस भाव से श्री विग्रह दूर होने से मानस रूप ही हाथ श्री विग्रह के चरणों की और बढ़ा चरण स्पर्श कर मस्तक फिर हृदय फिर चरणों की और कई देर करते रहे ... कई मैया मानस या दूर से श्री ठाकुर की आरती भावना कर उसे वारती है । बहुत सा जगत भगवत् सुमिरन करता है , अनेक कारणों से जैसे शांति-आनन्द प्राप्ति , कष्ट शमन , पुण्यार्जन , या कोई भी मनोरथ हेतु । ... इन सब क्रियाओं में प्रीत नही । स्व हित और तुष्टि-पुष्टि आदि ही यहाँ । भगवत् चरण मानस भाव में भगवत्प्रेमी भी छुते , पर आशीर्वाद लेने तक की भावना से नही ... चरण सेवा भाव से । चरण दबाते । चरण का मानस स्पर्श...