आश्रय ... तृषित

आश्रय ... का महत्व समझने को यह मनुष्य तन हमने पाया था ।

मनुष्य एक छोटी सी चीज़ भूल गया आश्रय ... आश्रय क्यों ? हृदयार्पण हेतु । हृदय को भस्म कर भी बहुत से पथ ईश्वर तक पहुंचते है । तेज को प्रकाशित कर ब्रह्म विलीन भी होते है ।
उस तेज को शीतल कर काम की तिलिस्म वायु से जल भरे इस अप्राकृत वेदना की देह ममता अदि से प्राकृतात्मक कीचड़ को  मक्खन सा निर्मल कर उस पर पुष्प खिला कर भगवत अर्पण होना ।
हृदय अर्पण कठिन है ... दिल के लिये तो लोग मर जाते है ... दिल देकर जीवन जिसके पास । उसके प्रति हृदय में कोई जिज्ञासा ना हो ।

अतः हमने पूर्व में कहा आश्रय ...
आश्रय । में गुंजाइश नहीँ फिर । वहाँ सहज समर्पण है । पशु आश्रित हो सकते है ... उनमें इतना विनय कि स्वार्थ के लिये पाला जिसने उसके प्रति प्रेम वह कर पालतू शब्द को सिद्ध जीवन कर देता है । मनुष्य से अधिक कुत्ते की वफ़ादारी विश्वनीय हो , आज हमारे ही दिल में । मनुष्य रूपी चौकीदार से भय बना रहता है ... कि चोरी न कर लें । कुत्ता आपकी सम्पति नहीँ चुराएगा इसलिय एक तो यह विश्वास अधिक है । वरन चौकीदारी की चौकीदारी के लिये कैमरे क्यों होते ...
कैमरे का जगत कहता आप अभी अविश्वनीय हो ... हम सबमें आतंकवादी भावना घुल मिल गई ... तभी तो मंदिरों में चेकिंग होती हमारी ... और ऐसा नही हम आतंकवादी नहीँ ... हंमारे पास अवसर नहीँ ... लोग दस बीस रुपये के लालच में किसी को ठगना शुरू करता है ... दस को हज़ार बनाने के लिये हम कुछ भी कर सकते है तो स्वार्थी जीव को यह भी अपना दोष मानना चाहिये कि कही मैं अपराधशिरोमणी  तो नही हो रहा । ... स्वार्थ शुन्य जगत दुर्लभ है तो आतंक बंक ही रहना है ।
मनुष्य से परे ... वह जीव जगत जिसे मनुष्य भोजन बना लेता है ... वह जीव कभी आतंकवादी मुहिंम  नहीँ चलाता । यानी मानिये बकरे जो पैदा ही हत्या के लिये होते है ... । उनका भी स्वामी के प्रति आश्रय बना रहता है । वह भी अपने मालिक को ही ख़ुदा मानता होगा ।
आस्था के लिये आश्रय हो । आश्रय जो है वही जीवन का उदघाटन है । आश्रित ही नर की योनि है । मनुष्य का शिशु आश्रय अभाव में जीवन का उद्घाटन नहीँ कर सकता ।
आश्रय सभी योनियों को स्वीकार है ... पिछली योनियों का समर्पण हमें मनुष्यता पर लें आता है और मनुष्य हुए भी लाखों योनियाँ भी भुगतते तो कारण आश्रय नहीँ । आश्रित अवस्था प्रेम और विषय वहाँ प्रकट लीला विषय । आश्रय और विषय । विषय ही आश्रय भी प्रेम में तो मैं प्रेम का विषय हूँ यह भाव प्रेम में नही होता ... वहाँ आश्रय होता है ... विषय होकर भी । अर्थात ... राजमाता को महाराज पुत्र की सत्ता स्वीकार्य हो अथवा नन्दनन्दन को किशोरी जु की सत्ता स्वीकार्य हो तो भी स्वामिनी भाव वहाँ ह्र्दयस्थ नहीँ । स्वामिनी में अपार माधुर्य शीतलता अर्थात ... स्वामी स्वीकार्य में भी स्वामित्व को नही सख्यत्व को स्वीकार करना ... जैसे कृष्ण कभी किसी को नौकर नही मित्र ही मानते है । उनकी और से सखा भाव ही होता ।
तो आश्रय के विषय मे हमने जन्म लेने पर सवाल नहीँ किया अपितु रुदन को मातृ नेह स्पर्श से त्याग आश्रय को स्वीकार किया । तो मनुष्य आश्रित अवस्था को तब भी न समझ सकें तो जब भी समझेगा कल्याण होगा । जानकारी पराये के सम्बन्ध में होती है ... दादा जी की आत्मकथा सब लोग नहीँ पढ़ते ... बाहर बहुतो को पढ़ते जानते है ... ! सम्बन्ध वासना शुन्य है ... सम्बन्ध सहज स्वीकार्य है । वह ईश्वर के प्रति सवाल जवाव नहीँ होती ... ! जिज्ञासु को जितना ईश्वर के आश्रय आने में समय लगता है उतने में ईश्वर सारी सृष्टि को आश्रय बनाये रखते है । धरती बीज से जात पात नहीँ पूछती ... प्रकृति प्राकृतरसभुता है जीव तृषित । तृषित जीव अप्राकृत  रस से तृप्त हो सकता । क्योंकि जीव की तृषा प्राकृत नहीँ है ... .... ! अतः आश्रय का महत्व ईश्वर के विषय में बोध ज्ञान से पूर्व उनमें अपनत्व प्रकट हो वहीँ प्रेम निर्मल प्रेम ... ! ... जो उसे बिना जाने अपना मान लेते है ... उनके प्रति ईश्वर की ओर से प्रकट सम्बन्ध होता है । ... तृषित ।

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