अपेक्षा और सेवा , युगल तृषित
*अपेक्षा और सेवा* लोक में भी सहज सेवा बनें , बदले में कुछ चाहने की भावना ना हो तो दशा कोमल होती जाएगी । जबकि जगत में सब सँग रहकर पीड़ित रहते क्योंकि निष्काम सेवा बन नहीं पाती । सहज सेवक का परिवार बहुत बड़ा होता जाता है जैसे वसुंधैव कुटुम्बकम् । अथवा सहज सेवक को श्रीहरि प्रीति रूप सर्वस्व की सेवा प्राप्त हो जाती है और उनकी सेवा से उनके समस्त भुवनों की सहज सेवा बनी रहती है । श्रीवृन्दावन । प्रायः लोक में सब ही अपना सेवा रस देते देते स्थूल या पीड़ित होते जाते है क्योंकि बदले में कुछ कामना है , इच्छाएं है , लालसा है । जबकि सेवा होनी चाहिये यूँ जैसे किसी खग को दाना दिया और वह उड़ गया । फिर असहजता ना होती है और अगर वह पुनः लौटकर आया है तो और सेवा बनें क्योंकि उसे जब तक सम्पूर्ण तृप्ति ना होगी वह सहज उड़ेगा नहीं । ऐसे ही अपेक्षा शून्य प्राप्त परिमंडल की सेवा हो । प्रायः लोक में तन मन धन से दी सेवाओं के बदले कुछ मिलता भी नहीं है और यही सिद्धान्त है कि ना मिले बदलें में कुछ । जिसे बदले में कुछ भी मिल रहा हो वह बन्धन में है , और लोक में सेवा तत्व निवृति हेत ही है , वह बन्धन नहीं बनाती है अ...