वासन्ती सुहाग बिहाग । युगल तृषित ।

!! विपिन ममन्दम्  ... विपिन ममन्दम्  ... विपिन ममन्दम् !!

*वासन्ती सुहाग बिहाग*

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आज प्रथम प्रभात है । प्रथम अलसाईं वेला । आज प्रथम मिलन का उत्सव है और यह मिलन उत्सव झूमा है मिलन से । आज वह सुभग दुल्हिनी प्रथम पग धर रही ह ... नित ही केलि विलास के सघन शिशिरताओं में भीगती हुई भी ....आज प्रथम पग धर रही है , प्रियतम की ओर ... ... ... 
मिलकर भी आज ही हुई प्रथम सुहागिनी बिहाग की पुहुपावली लेकर चलती दुल्हन जू
वह अलियों की सघन भीर में होकर भी प्रियतम की मदन लालसा के परिणय कौतुकों सँग दुल्हिनी होती हुई और निजताओं में प्रवेश कर रही है । कुँज निकुँज के इस निभृत श्रृंगार से आई नवीन रँग रस की रसिली रूचियों के उत्सवों में प्रवेश कर रही है  और पग पग पर झूम रही है नवीन कुँजन कुँजन ।
शरद रस की शीतल निकुँज की मणि श्रृंगार - रत्नावलियाँ सहज फूलनियों के उत्सवों में भीग ऐसी रत्न - मणि होने को है कि जैसे बिहाग सँग पराग उड़ा रहे हो और यह कोमल पुहुप (पुष्प) रँगोत्सव की झूम हेतू गुलाल भर रहे हो निज रूप माधुरियों में ।
सरस पियनिधि की रसिकाई से झूमे अंगरागित सुहागित ललित श्रृंगार उत्सव का पट ज्यों ज्यों सरक रहा है , त्यों त्यों शीतलता से स्तम्भित खग सहज कलरवित हो रहे है । शीतल निभृत सुरभ सम्मिलन को हिंडोलित झूम देने हेतू लताओं ने नई फुलनियों की रस सरिताओं पर बाँध कसे थे और लताओं के वह बाँध अब छूट पड़े है , सघन वन की यह नव निकुँज में यह पुहुपावलियाँ यूँ बह रही जैसे नवीन मैन सरिता दौड़ रही हो । सरसता के रँगन की रसिकाई यूँ गूँज गई है कि फूल इतने खिलने को है कि रसिक भृमर अनन्त होकर भी श्रीविपिन के इस बसन्त को वसन में नहीं समेट पा रहे । और ...

विलसन से हुई हुलसन का रूप विलास भवन यूँ रस को चाँप रहा है इनके कि भीतर की शीतल मलय-कनकाई छा रही ज्यों । ज्यों पीताम्बर में ढके फूलों में फूलों से आश्चर्यमय खेलते प्राणभृमर निहार रहें हो ... भरित कुच के झरित पट से आती पीतिमा का सघन झँकन ।

आज मिलन से उत्सवित विपिन का सरस उत्सव है कि जुगल रसिले पग-पग पर नवीन श्रृंगार झँकन को भर भर रहें है । 
पिय में प्यारी की कनकाई सुरभाई से खिली यह मधु कलियाँ और प्यारी में पिय की ललिताई की कलियाँ सुभग कर सहज वसन की केलि सलवटें बता रही है ।

...सहज अति सहज अनन्त महाभाविनियाँ अपने अपने सुरभ अनुरागों का अभिसार कर रही है । और नव नवेळी प्रफुल्लनें कलियाँ उनके प्राण पुरस्कारों में अपना उत्सव भर भर इस वसन आभरण के विपिन महोत्सव को और मदिरता में रँग रही है । श्रीयुगल सहज तृषित सुकोमल जोर में परस्पर बसन्त जोरी होते । पिय की बसन्त प्यारी ही और प्यारी के बसन्त पिय ही और अलियों क बसन्त यह आलिंगित रसिक ललित बिहारिणी जोरी ही और ...श्रीश्यामाश्याम के ललित नयनों का बसन्त श्रीविपिन नित ही ... नित । 
फूलों की कोमल परिरम्भन (रगड़न) से उत्सवित यह अबीराई अपने हृदय कुँज कुँजोत्सव बना रही है । बहुत नवेली आभरिणी लताएं आ रही है री किन किन के नाम लूं हे फुल्लमल्लिके । 
हे भाग्यश्री निहार तो ... लवंगलता का मलय ब्यार (चन्दन) सँग , बकुल , तमाल , केशर , पाटल , केतकी , माधविका , मालती और भी बहुत सी रँगीली कभी धनाश्री तो कभी बिहाग में झूमती और नित रँगीला रस वर्षण होता यह विपिन पाटोत्सव ।  बसन्तोत्सव ।

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