श्री राधा परिचय
राधा में ‘रा’ धातु के बहुत से अर्थ होते हैं. देवी भागवत में इसके बारे में लिखा है कि जिससे समस्त कामनायें, कृष्ण को पाने की कामना तक भी, सिद्ध होती हैं. सामरस उपनिषद में वर्णन आया है कि राधा नाम क्यों पड़ा ?
राधा के एक मात्र शब्द से जाने कितने जन्मो के पाप नष्ट हो जाते है
र शब्द का अर्थ है = जन्म-जन्मान्तर के पापो का नाश
अ वर्ण का अर्थ है =मृत्यु, गर्भावास,आयु हानि से छुटकारा
ध वर्ण का अर्थ है =श्याम से मिलन
अ वर्ण का अर्थ है =सभी वन्धनो से छुटकारा
भगवान सत्य संकल्प हैं. उनको युद्ध की इच्छा हुई तो उन्होंने जय विजय को श्राप दिला दिया. तपस्या की इच्छा हुई तो नर-नारायण बन गये. उपदेश देने की इच्छा हुई तो भगवान कपिल बन गये. उस सत्य संकल्प के मन में अनेक इच्छाएं उत्पन्न होती रहती हैं. भगवान के मन में अब इच्छा हुई कि हम भी आराधना करें. हम भी भजन करें.
अब किसका भजन करें ? उनसे बड़ा कौन है ? तो श्रुतियाँ कहती हैं कि स्वयं ही उन्होंने अपनी आराधना की. ऐसा क्यों किया ? क्योंकि वो अकेले ही तो हैं, तो वो किसकी आराधना करेंगे. तो श्रुति कहती हैं कि कृष्ण के मन में आराधना की इच्छा प्रगट हुई तो श्री कृष्ण ही राधा रानी के रूप में आराधना से प्रगट हो गये.सत्यजीत "तृषित"
"जय जय श्री राधे "
जब नारद जी को राधा रानी ने दर्शन दियें ...
एक समय नारद जी यह जानकर की, भगवान् श्री कृष्ण ब्रज में प्रकट हुए हैं वीणा बजाते हुए गोकुल पहुँचे. वहाँ जाकर उन्होंने नंदजी के गृह में बालक का स्वांग बनाए हुए महा योगीश्वर दिव्य दर्शन भगवान् अच्युत के दर्शन किये. वे स्वर्ण के पलंग पर जिस पर कोमल श्वेत वस्त्र बिछे थे सो रहे थे और प्रसन्नता के साथ प्रेम विह्वल हुई गोप बालिकाएँ उन्हें निहार रही थीं . उनका शरीर सुकुमार था. जैसे वे स्वयं भोले थे वैसी ही उनकी चितवन भी बड़ी भोली -भाली थी . काली -काली घुँघराली अलकें भूमि को छू रही थीं . वे बीच -बीच में थोडा -सा हंस देते थे, जिससे दो एक दांत झलक पड़ते थे. उन्हें नग्न बालक रूप में देखकर नारद जी को बड़ा हर्ष हुआ.
इसके बाद महाभागवत नारद जी यह विचारने लगे - भगवान् की कान्ता लक्ष्मी देवी भी अपने पति नारायण के अवतीर्ण होने पर उनके विहारार्थ गोपी रूप धारण करके कहीं अवश्य ही अवतीर्ण हुई होंगी इसमें संदेह नहीं है . अतः ब्रज वासियों के घरोंमें उन्हें खोजना चाहिए.
ऐसा विचारकर मुनिवर ब्रज वासिओं के घरों पर अतिथि रूप में जा जाकर उनके द्वारा विष्णु बुद्धि से पूजित होने लगे . उन्होंने भी गोपों का नंदनंदन में उत्कृष्ट प्रेम देखकर मन ही मन सबको प्रणाम किया.
नारद जी का वृष भानू जी के घर जाना
तदन्तर वे नन्द के मित्र महात्मा भानु के घर पर गए. उन्होंने उनकी विधिवत पूजा की. तब महामना नारदजी ने उनसे पूछा - साधो तुम अपनी धार्मिकता के कारण विख्यात हो. क्या तुम्हे कोई सुयोग्य पुत्र अथवा सुलाक्ष्ना कन्या है जिससे तुम्हारी कीर्ति समस्त लोकों को व्याप्त कर सके .
मुनिवर के ऐसा कहने पर भानु ने पहले तो अपने महान तेजस्वी पुत्र को लाकर उससे नारदजी को प्रणाम कराया. तदन्तर अपनी कन्या को दिखाने के लिए नारदजी को घर के अन्दर ले गए. गृह में प्रवेश कर उन्होंने पृथ्वी पर लोटती हुई नन्हीं सी दिव्य बालिका को गोद में उठा लिया. उस समय उनका चित्त स्नेह से विह्वल हो रहा था.
कन्या के अदृष्ट तथा अश्रुतपूर्व अधभुत स्वरुप को देखकर नारदजी मुग्ध हो गए. और दो मुहूर्त तक एक टक निहारते रहे और महान आश्चर्य में पड गए. फिर मुनि ने मन में इस प्रकार विचारा - की मैंने स्वछंद्कारी होकर समस्त लोकों में भ्रमण किया पर ऐसी अलोकिक कन्या कहीं भी नहीं देखि. जिसके रूप से चराचर जगत मोहित हो जाता है उस महामाया भगवती गिरिराज कुमारी को भी मैंने देखा है. वह भी इसकी शोभा को नहीं पा सकती. लक्ष्मी सरस्वती कान्ति और विद्या आदि देवियाँ इसकी छाया को भी स्पर्श नहीं कर सकती . अतः इसके तत्व को जानने की शक्ति मुझमे किसी तरह नहीं है. अन्य जन भी प्रायः इस हरी वल्लभा को नहीं जानते. इसके दर्शन मात्र से गोविन्द के चरण कमलों में मेरे प्रेम की जैसी बुद्धि हुई है वैसी इसके पहले कभी नही हुई थी.
ऐसा विचार कर मुनि ने गोप प्रवर भानु को कहीं अन्यत्र भेज दिया, और एकांत स्थान में वे उस दिव्य रूपिणी कन्या की स्तुति करने लगे . स्तुति करने के बाद नेत्रों से अश्रु बहाते हुए बड़े ही विनय युक्त स्वर में,
बोले- हे हरिवल्लभे! तुम्हारे इस पूजनीय दिव्य स्वरुप को देखना चाहता हूँ जिससे नन्दनंदन श्रीकृष्ण मुग्ध हो जायेंगे. माहेश्वरी तुम शरणागत तथा प्रणत भक्त के लिए दया करके तुम अपना स्वरुप प्रकट कर दो.यों निवेदन करके नारदजी ने तदर्पित चित्त से उस महानन्दमई परमेश्वरी को नमस्कार किया और भगवान् गोविन्द की स्तुति करते हुए वे उस देवी की ओर ही देखते रहे.
नारद जी को राधारानी जी के दर्शन
जिस समय वे श्रीकृष्ण नाम कीर्तन कर रहे थे उसी समय भानु सुता ने चतुर्दश वर्षीय परम लावण्यमय अत्यंत मनोहार दिव्यरूप धारण कर लिया. तत्काल ही अन्य ब्रज बालाओं ने जो उसी के समान अवस्था की थीं तथा दिव्यभूषण एवं सुन्दर हार धारण किये हुए थी, बाला को चारों ओर से आवृत कर लिया. उस समय बालिका की सखियाँ उसके चरणोदक की बूंदों से मुनि को सींचकर,
कृपा पूर्वक बोलीं - महाभाग मुनिवर! वस्तुतः आपने ही भक्ति के साथ भगवान् की आराधना की है क्योकि इस रूप के दर्शन तो ब्रह्मा आदि देवताओं को भी दुर्लभ हैं उसी अद्भुत रूप के उन विश्वमोहिनी हरिप्रिया ने किसी पुण्य के फलस्वरूप आपको दर्शन मिले हैं. ब्रह्म ऋषि उठो! उठो! शीघ्र ही धैर्य धारण कर इसकी परकरमापरिक्रमा तथा बार बार इसे नमस्कार करो क्या तुम नहीं देखते की इसी क्षण ये अंतर्धान हो जायेंगी फिर इनके साथ किसी तरह तुम्हारा संभाषण नहीं हो सकेगा.
उन प्रेम विह्वल सखियों के वचन सुनकर नारदजी ने दो मुहूर्त तक उस सुंदरी बाला की परदक्षिणा करके साष्टांग प्रणाम किया. उसके बाद भानु को बुलाकर कहा - तुम्हारी पुत्री का प्रभाव बहुत बड़ा है. देवता भी इसका महत्त्व नहीं जान सकते. जिस घर में इनका चरण चिन्ह है वहाँ साक्षात् भगवान् नारायण निवास करते हैं और समस्त सिद्धियों सहित लक्ष्मी भी वहाँ रहती हैं. आज से सम्पूर्ण आभुषणों से भूषित इस सुन्दर कन्या की महादेवी के समान यतन पूर्वक घर में रक्षा करो. ऐसा कह कर नारदजी हरी गुण गाते हुए चले गए.
सत्यजीत "तृषित"
"जय जय श्री राधे "
राधारानी की तुलसी सेवा
एक बार राधा जी सखी से बोली - सखी ! तुम श्री कृष्ण की प्रसन्नता के लिए किसी देवता की ऐसी पूजा बताओ जो परम सौभाग्यवर्द्धक हो.
तब समस्त सखियों में श्रेष्ठ चन्द्रनना ने अपने हदय में एक क्षण तक कुछ विचार किया. फिर बोली चंद्रनना ने कहा- राधे ! परम सौभाग्यदायक और श्रीकृष्ण की भी प्राप्ति के लिए वरदायक व्रत है - "तुलसी की सेवा" तुम्हे तुलसी सेवन का ही नियम लेना चाहिये. क्योकि तुलसी का यदि स्पर्श अथवा ध्यान, नाम, संकीर्तन, आरोपण, सेचन, किया जाये. तो महान पुण्यप्रद होता है. हे राधे ! जो प्रतिदिन तुलसी की नौ प्रकार से भक्ति करते है.वे कोटि सहस्त्र युगों तक अपने उस सुकृत्य का उत्तम फल भोगते है.
मनुष्यों की लगायी हुई तुलसी जब तक शाखा, प्रशाखा, बीज, पुष्प, और सुन्दर दलों, के साथ पृथ्वी पर बढ़ती रहती है तब तक उनके वंश मै जो-जो जन्म लेता है, वे सभी हो हजार कल्पों तक श्रीहरि के धाम में निवास करते है. जो तुलसी मंजरी सिर पर रखकर प्राण त्याग करता है. वह सैकड़ो पापों से युक्त क्यों न हो यमराज उनकी ओर देख भी नहीं सकते. इस प्रकार चन्द्रनना की कही बात सुनकर रासेश्वरी श्री राधा ने साक्षात् श्री हरि को संतुष्ट करने वाले तुलसी सेवन का व्रत आरंभ किया.
श्री राधा रानी का तुलसी सेवा व्रत
केतकी वन में सौ हाथ गोलाकार भूमि पर बहुत ऊँचा और अत्यंत मनोहर श्री तुलसी का मंदिर बनवाया, जिसकी दीवार सोने से जड़ी थी. और किनारे-किनारे पद्मरागमणि लगी थी, वह सुन्दर-सुन्दर पन्ने हीरे और मोतियों के परकोटे से अत्यंत सुशोभित था, और उसके चारो ओर परिक्रमा के लिए गली बनायीं गई थी जिसकी भूमि चिंतामणि से मण्डित थी. ऐसे तुलसी मंदिर के मध्य भाग में हरे पल्लवो से सुशोभित तुलसी की स्थापना करके श्री राधा ने अभिजित मुहूर्त में उनकी सेवा प्रारम्भ की.
श्री राधा जी ने आश्र्विन शुक्ला पूर्णिमा से लेकर चैत्र पूर्णिमा तक तुलसी सेवन व्रत का अनुष्ठान किया. व्रत आरंभ करने उन्होंने प्रतिमास पृथक-पृथक रस से तुलसी को सींचा . "कार्तिक में दूध से", "मार्गशीर्ष में ईख के रस से", "पौष में द्राक्षा रस से", "माघ में बारहमासी आम के रस से", "फाल्गुन मास में अनेक वस्तुओ से मिश्रित मिश्री के रस से" और "चैत्र मास में पंचामृत से" उनका सेचन किया .और वैशाख कृष्ण प्रतिपदा के दिन उद्यापन का उत्सव किया.
उन्होंने दो लाख ब्राह्मणों को छप्पन भोगो से तृप्त करके वस्त्र और आभूषणों के साथ दक्षिणा दी. मोटे-मोटे दिव्य मोतियों का एक लाख भार और सुवर्ण का एक कोटि भार श्री गर्गाचार्य को दिया . उस समय आकाश से देवता तुलसी मंदिर पर फूलो की वर्षा करने लगे.
उसी समय सुवर्ण सिंहासन पर विराजमान हरिप्रिया तुलसी देवी प्रकट हुई . उनके चार भुजाएँ थी कमल दल के समान विशाल नेत्र थे सोलह वर्ष की सी अवस्था और श्याम कांति थी .मस्तक पर हेममय किरीट प्रकाशित था और कानो में कंचनमय कुंडल झलमला रहे थे गरुड़ से उतरकर तुलसी देवी ने रंग वल्ली जैसी श्री राधा जी को अपनी भुजाओ से अंक में भर लिया और उनके मुखचन्द्र का चुम्बन किया .
तुलसी बोली - कलावती राधे ! मै तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूँ, यहाँ इंद्रिय, मन, बुद्धि, और चित् द्वारा जो जो मनोरथ तुमने किया है वह सब तुम्हारे सम्मुख सफल हो.
इस प्रकार हरिप्रिया तुलसी को प्रणाम करके वृषभानु नंदिनी राधा ने उनसे कहा - देवी! गोविंद के युगल चरणों में मेरी अहैतु की भक्ति बनी रहे. तब तथास्तु कहकर हरिप्रिया अंतर्धान हो गई. इस प्रकार पृथ्वी पर जो मनुष्य श्री राधिका के इस विचित्र उपाख्यान को सुनता है वह भगवान को पाकर कृतकृत्य हो जाता है .
सत्यजीत "तृषित"
"जय जय श्री राधे "
राधा रानी जी - एक विलक्षण पहेली है ****
जगत जननी श्रीराधा बहुत से लोगो के लिए एक विलक्षण पहेली बनी हुई है.और श्री राधा जी के अनिर्वचनीय तत्व रहस्य को जब तक कोई जान नहीं लेगा तब तक उसके लिए वे एक पहेली ही बनी रहेगी.जब गोपी रहस्य ही परम गुह है फिर राधा जी की तो बात ही क्या है ?
लोगो की समझ में ही नहीं आ सकता कि मोक्ष तक की आकांक्षा न रखकर भगवान से अपने लिए कभी कुछ भी इच्छा न रखकर भगवान से प्रेम करने का क्या अभिप्राय हो सकता है जिस भगवान की भक्ति करे या जिससे प्रेम करे उससे अपने लिए कभी कुछ भी न चाहे ये कैसी भक्ति ?
सबसे आश्चर्य की बात है कि इस भक्ति या प्रेम में सर्वाधिक "श्रृंगार" और "भोग" प्रत्यक्ष देखने सुनने में आते है,यधपि उस श्रृंगार भोग से गोपियों का कुछ भी संपर्क नहीं है.केवल प्रियतम श्रीकृष्ण सुखेच्छा में ही उनके जीवन के प्रत्येक श्वास का, मन का, प्रत्येक सूक्ष्म से सूक्ष्म वृति का, और शरीर कि प्रत्येक क्रिया का, प्रयोग सहज ही होता है. फिर भी इस प्रकार त्याग और समस्त भोगो का एक साथ रहना, लोगो कि बुद्धि में भ्रम उत्पन्न करता है.
इसी से यह लीला सर्वश्रेष्ठ और परमोच्च सिद्धि के क्षेत्र की है.यह उनका अलग साम्राज्य है जहाँ केवल राधा कृष्ण है. वहाँ न साधना है, न साध्य है, और जब ये अलौकिक जगत की परम-गुह लीला है, फिर इसमें लौकिकता देखना अनुचित है.
अब यदि इस्की देखादेखी कोई दूसरा आदमी जिसके मन में काम और क्रोध का अभी त्याग नहीं है, जिसके मन में नाना प्रकार के विकारों का दोष भरा है, वह श्रीकृष्ण लीला का, राधा की लीला का, अनुकरण करने चले, तो वह तो स्वयं ही जहर पीने जैसा हुआ.
साहब यहाँ तो कवियों में भी बड़ा भारी अंतर है.सूरदास और नन्ददास भी कवि है.और दूसरे लोग भी कवि है.परन्तु श्री सूरदासजी और नन्ददास जी की आँख में, और दूसरे कवियों की आँख में बड़ा भारी अंतर है, जयदेव जी के गीत गोविंद में खुला श्रृंगार है,परन्तु वे महात्मा है, अधिकारी है. उनके जैसा अधिकारी कौन है भला ?परन्तु आँख आँख में फर्क है.
"तेरे खास बंदे खास जलवा देख लेते है, फ़रिश्ते देख नहीं पाते,वो वो भी देख लेते है,भीलनी बेचारी नैन मन में समाय के अपने मन मंदिर में राम देख लेती थी,मीरा की आँखों में कौन सा ममीरा था जो आँख मुद् कर भी घनश्याम देख लेती थी."
1.- श्रीशुकदेव जी को देखो ? वे कौन है ? -ब्रह्मानंद स्वरुप में परिनिष्ठित महान रस-रहस्य के मर्मज्ञ है. वे शुकदेव जी परीक्षित को, जो मरणासन्न है, उन्हें रासलीला सुनाते हुए हर्षोल्लास और मुग्ध पवित्रतम गुह रहस्य खोलने लगते है.यदि ये लौकिक जगत की क्रीडा होती तो क्यों एक मरते हुए इंसान को शुकदेव जी जैसे परमज्ञानी, रासलीला और श्रृंगार पक्ष का वर्णन करते ?
2. श्रीचैतन्य महाप्रभु - महाप्रभु स्त्री का नाम तक नही सुनते और न अपने मुख से लेते है.वे प्रभु श्री गोपीजन और श्रीराधा के भावो का स्मरण,श्रवण, और गान करके बाहज्ञान शून्य होंकर, आनंद-राज्य में पहुँच जाते है.गीत गोविंद के श्रृंगार रस के पद सुनते है.
श्री राधारानी का विवाह
श्री राधा रानी जी के सम्बन्ध में गर्ग संहिता में कथा आती है कि एक बार नंद बाबा बालक कृष्ण को लेकर अपने गोद में खिला रहे हैं. उस समय कृष्ण दो साल सात महीने के थे, उनके साथ दुलार करते हुए वो वृंदावन के इस भांडीर वन में आ जाते हैं. इस बीच एक बड़ी ही अनोखी घटना घटती है. अचानक तेज हवाएं चलने लगती हैं. बिजली कौंधने लगती है. देखते ही देखते चारों ओर अंधेरा छा जाता है. और इसी अंधेरे में एक बहुत ही दिव्य रौशनी आकाश मार्ग से नीचे आती है.जो नख शिख तक श्रृंगार धारण किये हुए थी.
नंद जी समझ जाते हैं कि ये कोई और नहीं खुद राधा देवी हैं जो कृष्ण के लिए इस वन में आई हैं. वो झुककर उन्हें प्रणाम करते हैं. और बालक कृष्ण को उनके गोद में देते हुए कहते हैं कि हे देवी मैं इतना भाग्यशाली हूं कि भगवान कृष्ण मेरी गोद में हैं और आपका मैं साक्षात दर्शन कर रहा हूं.
भगवान कृष्ण को राधा के हवाले करके नंद जी घर वापस आते हैं तबतक तूफान थम जाता है. अंधेरा दिव्य प्रकाश में बदल जाता है और इसके साथ ही भगवान भी अपने बालक रूप का त्याग कर के किशोर बन जाते हैं.इतने में ही ललिता विशाखा ब्रह्मा जी भी वहाँ पहुँच जाते है तब ब्रह्मा जी ने वेद मंत्रो के द्वारा किशोरी किशोर का गान्धर्व विवाह संपन्न कराया. सखियों ने प्रसन्नतापूर्वक विवाह कालीन गीत गए आकाश से फूलो की वर्षा होने लगी.
फिर देखते ही देखते ब्रह्मा जी सखिया चली गई और कृष्ण ने पुनः बालक का रूप धारण कर लिया और श्री राधिका ने कृष्ण को पूर्ववत उठाकर प्रतीक्षा में खड़े नन्द बाबा की गोदी में सौप दिया इतने में बादल छट गए और नन्द बाबा कृष्ण को लेकर अपने ब्रज में लौट आये.
जब कृष्ण जी मथुरा चले गए तो श्री राधा जी अपनी छाया को स्थापित करके स्वयं अंतर्धान हो गई कही कही ऐसा वर्णन आता है कि उनकी छाया जो शेष रह गई उसी का विवाह 'रायाण' नाम के गोप के साथ हुआ. रायाण श्रीकृष्ण की माता यशोदा जी के सहोदय भाई थे गोलोक में तो वह श्रीकृष्ण के ही अंश भूत गोप थे रायाण श्री कृष्ण के मामा लगते थे.
कही कही ऐसा भी आता है .'जावट गाँव' में 'जटिला' नाम की एक गोपी रहती थी जिसके पुत्र 'अभिमन्यु' के साथ श्री राधा जी का विवाह योगमाया के निर्देशनुसार वृषभानु जी ने करवा यद्यपि अभिमन्यु जी को श्री राधा जी का पति माना जाता है परतु भगवती योगमाया के प्रभाव से वो तो राधा रानी जी की परछाई का स्पर्श नहीं कर सकता था. अभिमन्यु अपने नित्य प्रतिदिन की दिनचर्या में व्यस्त रहते और शर्म के कारण श्री राधा जी से ज्यादा बात भी नहीं करते थ. श्री राधा रानी जी की सास 'जटिला' और ननद 'कुटिल' घर के कामो में व्यस्त रहा करती थी.
जावट गाँव में जटिला जी की हवेली आज भी है और जटिला कुटिला और अभिमन्यु का मंदिर भी है .
सत्यजीत "तृषित"
"जय जय श्री राधे"
[11:44am, 16/05/2015] Satyajeet Bhawan: श्री राधारानी का सखी प्रेम
निकुंज में एक बड़ी प्यारी लीला है “झूलन लीला” एक बार राधा जी भगवान के बाई तरफ बैठी झूला झूल रही थी और सारी सखियाँ राधा माधव को झूला रही है. इतने में राधा जी को लगता है कि ये सुख मेरी सखियों को भी मिले .उनका तो यहीं व्रत है जो सुख मुझे मिले वो सारी सखियों को मिले.
राधा रानी जी प्रेमकल्पलता है, राधा लता है और पुष्प गोपियों है. जैसे लता अपना रस पुष्प को देकर पुष्प को पुष्ट करती है उनको वो रस देती है. वैसे ही राधा जी कल्पलता है . गेापियों को रस देती हैं उन्हें प्रफुल्लित करती है . राधा जी के रोम से सखी प्रकट हुई है. तो झूलन लीला में राधा जी ने कृष्ण को बताया कि मेरी तरह सारी सखियों को झूले में बिठाओ राधा रानी जी के एक इशारे पर सुखदान की लीला श्यामसुदंर ने शुरू कर दी.
पहले तो ललिता जी को दूसरी तरफ भगवान ने बिठा लिया एक ओर राधा रानी जी है ओर दूसरी ओर ललिता जी भगवान बीच में है . इस लीला का चित्रण बड़ा प्यारा है.निकुंज में कदम के पेड में वो झूला है, झूले पर राधा माधव बैठे है तो ललिता जी को बाये बैठा लिया और उनके कंधे पर अपना हस्त कमल रख दिया और उन्हें राधा की ही भांति सुख देने लगे.
इतने में ही एक सखी कुंदलता जी कहने लगी - कि देखो ! ये कलंकहीन चंद्र आज अपने राधा और अनुराधा को वाम और दक्षिण में लिए हुए शोभा का विस्तार कर रहे है. भगवान तो पूर्ण चंद है. तो राधा जी का त्याग देखे वो कहती है कि अब दोनों ओर सखियों को बिठाओ जैसे सखिया हम राधा माधव को झुलाती है, और वे स्वयं झूला झुलाने लगी. तो ऐसे ही सारी सखियों को बारी-बारी बिठाकर सुख देने लगे,कितना त्याग है कितना बड़ा आदर्श राधा रानी जी का.
और सखियो का त्याग देखो निज सुख की कामना से हिडोंलें में आकर नहीं बेठी है . वो तो राधा जी के सुख के लिए झूले में बैठी है . उनको कोई निज स्वार्थ नहीं है. इस लीला केा भगवान चाहते थे राधा जी के सुख इच्छा को पूर्ण करने के लिए, राधा रानी जी ऐसा चाहती थी. इसलिए गेापियों ने लीला को स्वीकारा किया. ये गोपी प्रेम की पराकाष्ठा है, राधा का सुख कहा ? “कृष्ण में” और गोपियों का सुख “राधारानी” में जिससे राधा-कृष्ण सुखी हो, वो ही गोपियों के जीवन का उददेष्य है. और राधा जी का महान त्याग उनके प्रेमानुगमन करने वाली सखियों को राधा जी सुख देती है. कैसा अलौकिक और दिव्य सुख है .
गेापियों के प्रेम महत्व की विशेता क्या है? वह है “अभिमान शून्यता” उनमें कोई अहंकार नहीं है. कृष्ण मेरे अधीन है ये उनको अहंकार नहीं है राधा जी भगवान के पास बैठी है झूला झूल रही है .और गोपियों को भी नहीं है कि कृष्णा हमारे कंधे पर हाथ रखकर बैठे है. क्योकि साधना में कोई बाधक है. तो वो है "अंहकार" उनके त्याग, प्रेम में, सबसे बडी वस्तु “दैन्य” और “अंहकार” रहित सेवा कर रही है. भगवन की सब कुछ भगवान को अर्पण कर दिया है . सब कुछ निछावर कर चुकी है पर फिर भी मन में यहीं भाव है कि मै प्रियतम से लेती हूँ, देती कुछ नहीं, बल्कि वो तो सब कुछ तन,मन, धन, शरीर, घर, बार, परिवार, सबो का त्याग कर दिया है . कृष्ण के चरणों में सब अर्पण कर दिया. ये अभिमान नहीं है कि हम देते है. “अभिमान शून्यता” “दैन्य” और “त्याग” ये तीन ही ही गोपियों के जीवन को महान बनाती है.
ऐसा राधारानी जी का सखियों के प्रति और सखियों का राधारानी जी के प्रति प्रेम है.यही प्रेम उन्हें प्रेम का आदर्श बनाता है.सत्यजीत "तृषित"
जय जय श्री राधे
श्री राधा जी और श्री कृष्ण का प्रेम विलास विवर्त
प्रेम-विलास-विवर्त का देह-मन-प्राणादि का ऐक्य-मनन, या अभेद-ज्ञान, ज्ञान-मार्ग साधक के अभेद-ज्ञान जैसा नहीं है.ज्ञान-मार्ग की मूल भित्ति ही है जीव और ब्रह्म का अभेद ज्ञान.
ज्ञान-मार्ग का साधक यह मानकर चलता है कि जीव और ब्रह्म तत्वत: एक हैं, पर अज्ञान के कारण ब्रह्म से अपने पृथक् अस्तित्व की प्रतीत होती है.अज्ञान के दूर हो जाने पर उसका भेद-ज्ञान उसी प्रकार मिट जाता है, जिस प्रकार घट के टूट जाने पर घटाकाश और महाकाश का भेद मिट जाता है.राधा और कृष्ण दोनों में कोई भी अज्ञान वृत ब्रह्मरूप जीव के समान अनित्य नहीं है.दोनों नित्य हैं, दोनों की लीला भी नित्य है.लीला-रस आस्वादन करने के लिये ही दोनों स्वरूपत: एक होते हुए भी अनादिकाल से दो रूपों में विद्यमान हैं-
राधा-कृष्ण ऐछे सदा एकइ स्वरूप.लीलारस आस्वादिते धरे दुइ रूप॥*
प्रेम-विलास-विवर्त में जो प्राण-मन-देहादि का ऐक्य होता है, वह केवल भावगत है, वस्तुगत नहीं.देह, मन और प्राण का पृथक् अस्तित्व बना रहता है, पर विलास-सुखैक-तन्मयता के कारण उनके ऐक्य का मनन मात्र होता है.राधा-कृष्ण के इस देह-मनादि के ऐक्य के मनन को कवि कर्णपूर ने 'परैक्य' कहा है.'परैक्य' शब्द का अर्थ है राधा-कृष्ण के मन का प्रेम के प्रभाव से गलकर सर्वतो भाव से एक हो जाना, वैसे ही जैसे लाख के दो टुकड़े अग्नि के प्रभाव से गलकर एक हो जाते हैं.
इस प्रकार मन का भेद मिट जाने पर ज्ञान का भेद भी मिट जाता है.दोनों को अपने पृथक् अस्तित्व का ज्ञान नहीं रहता, यद्यपि पृथक् अस्तित्व बना रहता है.ज्ञान-मार्ग के साधक में सिद्धावस्था प्राप्त करने पर ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय तीनों का लोप हो जाने के कारण न तो ज्ञाता का पृथक् अस्तित्व रहता है, न किसी प्रकार का अनुभव होता है और न किसी प्रकार की चेष्टा पर प्रेम-विलास-विवर्त में राधा-कृष्ण का पृथक् अस्तित्व रहता है, विलास-सुखैक तात्पर्यमयी अनुभूति रहती है और विलास-सम्बन्धी चेष्टा रहती है.
प्रेम-विलास-विवर्त में राधा-कृष्ण की विलास-सुखैक-तन्मयता ही है, प्रेम-विलास की परिपक्वता या चरमोत्कर्षावस्था.पर इसके परिणामस्वरूप दोनों में उस अवस्था के दो बाह्य लक्षण भी प्रतिलक्षित होते हैं.वे हैं भ्रम और वैपरीत्य.तन्मयता के कारण भ्रम या आत्मविस्मृति घटती है और आत्मविस्मृति की अवस्था में परस्पर का सुख वधन करने की वर्धमान चरम उत्कण्ठा के कारण उनकी स्वाभाविक चेष्टाओं का अनजाने वैपरीत्य घटता है, अर्थात कान्ता का भाव और आचरण कान्त में, और कान्त का भाव और आचरण कान्ता में सञ्चारित होता है.
जैसे साधारण रूप से कृष्ण वंशी बजाते हैं और राधा नृत्य करती हैं, पर विहार-वैपरीत्य में राधा वंशी बजाती हैं, कृष्ण नृत्य करते हैं.नायक और नायिका में विहार-वैपरीत्य बुद्धिपूर्वक भी हो सकता है.पर प्रेम-विवर्त-विलास में यह अबुद्धिपूर्वक होता है, क्योंकि उसमें रमण का रमणत्व रमणी में और रमणी का रमणीत्व रमण में आत्मविस्मृति की अवस्था में अनजाने ही सञ्चारित होता है.चैतन्य-चरितामृत में राय रामानन्द ने महाप्रभु से अपने वार्तालाप में प्रेम-विवर्त-विलास का इंगित एक गीत द्वारा किया है, जिसकी प्रारंभिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
पहिलहि राग नयनभंग भेल.अनुदिन बाढ़ल अवधि न गेल॥
ना सो रमण ना हम रमणी.दुहुँ मन मनोभव पेषल जानि॥
राधा कहती हैं 'नयन-भंग' अर्थात पलक पड़ने में जितनी देर लगती है, उतनी देर में (श्रीकृष्ण से) मेरा प्रथम राग हो गया.राग दिन-प्रति-दिन निरवच्छिन्न भाव से बढ़ता गया.उसे कोई सीमा न मिली.राग के निरन्तर वर्धनशील प्रवाह ने, एक-दूसरे के विलास-सुख को वर्धन करने की वर्धनशील वासना ने मानो दोनों के मन को पीसकर एक कर दिया.
परिणामस्वरूप न रमण को अपने रमणत्व का ज्ञान रहा, न रमणी को अपने रमणीत्व का.दोनों विलास-सुख की अनुभूति में खो गये और वह अनुभूति अपना आस्वादन स्वयं करती रही.श्रीरूप गोस्वामी की मादनाख्य महाभाव और प्रेम-विलास-विवर्त की व्याख्या वैष्णव-समाज को उनकी महत्वपूर्ण देन है. सत्यजीत "तृषित"
जय जय श्री राधे
राधे राधे
ReplyDeleteएक सवाल था मन में राधा जी के लिए पर पूछने का साहस नहीं कर पा रहा हु।आप मेरे मेल ID या whats app में भेजेंगे क्या ? मेरा मेल ID rishishuklaji@yahoo.co.in
और whats app no 98274 02444 है।
राधे राधे
ReplyDeleteएक सवाल था मन में राधा जी के लिए पर पूछने का साहस नहीं कर पा रहा हु।आप मेरे मेल ID या whats app में भेजेंगे क्या ? मेरा मेल ID rishishuklaji@yahoo.co.in
और whats app no 98274 02444 है।
जय श्री राधे जय श्री कृष्ण!!!
ReplyDeleteAap apna prashn poochiye...
ReplyDeleteजय श्री राधे Jai Jai Shri Radhe
ReplyDeleteJay Shree Krishna
ReplyDeleteRadhe Radhe
Ati uttam, bahut hi sundar or satya.
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