पदपंकज मानस सेवा
वृषभानु-लली पदपंकज मानससेवा पाईं
करत हिय अतिसुरस सुखदाई ||
प्रथम रजत थाल लाई
जलज औ बहु कुमल-पुष्प सजाई
करवंदन मधुर-वाणिन पद छुवन अनुमति पाई |
पुष्पथाल पद-तल लगाई
शीष नवाईं , असुवन सेवा पाई |
सुरत्न सजित पात्र माई
सरितामृत पय बहु ईत्र मिलाई |
मधुर धारन पद सुकोमल ते धिरत-धराई
छुअत पदकमल पुनि-पुनि चरणामृत पाई |
सुरल वस्त्रन ते पद पोछत जाई ,
मुदित मन विपुल कृपासुख पाई
पलकन-चरणन ते पल-विपल ना हटाई |
केसर चंदन नखवन पर सजाई
किञ्चित् कुंकुम नख ते लगाई |
पदतल हरिद्रा पीत लगाई
किशोरी देखन पग हरषाई |
तद अष्टगंधन-सुगंधन-मेहंदी मिलाईं
धीरज-धरत बहु-नव मधुराकृति रचाईं ,
बहु रचना श्रीफल-फूल-पतियन-कुंभ बनाई |
नाना पुष्पन् दल पद पर सजाईं
ईत्र -धूप -दीप सेवानन्द पाईं |
मयुर पंखन श्रीपद पवन ढुलाईं
आरती करत मधुर पद गाईं ,
गावत-गावत नाचत जाईं |
करताल-मनवीणा हरषित बजाईं
अष्ट-शत तुलसी दल नाना-नामन
ते चरणन पधराईं |
वंदन-करत महति कृपा-दरसन सेवा ताईं
करुण स्वरनन ते कछु कहो नहीं जाई |
पुलक-पलक उठत मुख कमल दरसन पाईं
रोवत "तृषित" औ पदसेवा ते कछु ,सुख नाईं |
दण्डवत् गिरत-परत रुदत् शीष नवाईं
अकारण मलिन जीवन् पे अति करुणा बरसाईं |
किशोरी ताई कछु कहत-सुनत बनत नाईं
नाम सुमिरत नितछन , पदचरणन ध्यान लगाईं
अबोधी-पातकी कछु आवत नाहीं
मृत कीटन पर अमृत गिरो जाहीं
पुनि उठत-उडत छुअत गगन ताहीं
किरपा राखी ते अधमन पे , जे सेवा सुख पाहीं
वृषभानु-लली पदपंकज मानससेवा पाईं
करत हिय "तृषित" अतिसुरस सुखदाई ||
Comments
Post a Comment