मंजु दीदी

Maryada Purushottam Shree Ram
हनुमान के स्वामी राम,
दीनन के दुःख हारी राम,

आदि राम अनंत है राम,
सत चित और अनंत है राम,

जय रघुनन्दन जय सिया राम,
भज मन प्यारे जय सिया राम,

सत्ये सनातन मंगल कारन,
सगुण निरंजन सीता राम,

दशरत नंदन सुर मुनि वंदन,
परेय्पप वंदन सीता राम,

मर्यादा पुर्शोतम राम,
पुरान ब्रम्ह सनातन राम,

राम ही पावन अति मन भावन,
नर नारायण सीता राम,

बोलो राम जय जय राम,
मुनिमन रंजन भव भये भंजन,
असुर निकंदन सीता राम,
पतित उद्धारण जग जन तारण,
नित्ये निरंजन सीता राम,

पुरान ब्रम्ह सनातन राम,
तुलसी सुत तुलसी के राम,
[6:40pm, 15/05/2015] Satyajeet Bhawan: जय राधा-कृष्ण

राधा रानी दे दो अपनी तनिक सी चरण-रज

घोर निराश जीवन में सम्बल बन
मृत्युतुल्य प्राणों में संजीवन बन
नव- जीवन संचार करेगी
तुम्हारी ये क्षीण-सी चरण-रज
राधा रानी दे दो अपनी तनिक सी चरण-रज।

झंझावातों से जब हो रहा जीवन अशांत
अंधकार में बुझता आस-दीप,मन क्लांत
घनघोर घटा में दामिनी सी चमकार करेगी
तुम्हारी ये क्षीण-सी चरण-रज
राधा रानी दे दो अपनी तनिक सी चरण- रज।

सुर,मुनि,नर सबकी उर-अभिलाष
धारें चरण-रज मस्तक पर,पुलकित गात
भाव-विभोर,दृग-अश्रु-बिंदु,अलौकिक प्रकाश
महिमा अपार निहित तुम्हारी चरण-रज
राधा रानी दे दो अपनी तनिक सी चरण-रज।
( डाॅ० मँजु गुप्ता)
[6:40pm, 15/05/2015] Satyajeet Bhawan: जय श्री राधे

श्री राधा जी को माता की सीख

श्री बृषभानु दुलारी और माता कीर्ती जी  की लाडिली श्री राधा यद्यपि अभी बालिका ही है,किंतु माता कीर्ती जी के दृष्टिकोण से उनकी वय-संधि अवस्था आ गई है। बिटिया के लिये एक माँ के हृदय के डूबते-उतरते, सूक्ष्म से सूक्ष्म भावों का अद्भुत व मर्मस्पर्शी चित्रण किया है कवि ने इस प्रसँग में।

बालिका श्री राधा नित्यप्रति श्री कृष्ण के साथ खेलि-क्रीड़ा के लिये अपनी सखियों के साथ नंदगाँव की ओर जातीं है। माता कीर्ती जी को अब यह तनिक भी नहीं सुहाता। अत: वह बिटिया को रोकने का प्रयास करतीं हैं- "काहै कौ पर-घर छिनु-छिनु जावति"

कितना स्वाभाविक चित्रण है जैसे कि एक साधारण माँ अपनी बेटी से कहती है-"क्यों दूसरों के यहाँ बार-बार खेलने चली जाती है।"

माता कीर्ती जी अपनी बेटी को समाज की ऊँच-नीच से अवगत कराना चाहती है-
"राधा-कान्ह,कान्ह-राधा है
ह्वै रहो अतहिं लजाति
अब गोकुल को जैबौ छाँडौ
अपजस हूँ न अघाति"
इतनी बात फैल रही और तू तब भी जाना बंद नहीं करती?

किंतु श्री राधा जी को माता कीर्ती की सीख तनिक भी नहीं सुहाई- "खेलन को मैं जाऊँ नहीं?"    क्यों नहीं जाँऊ मैं खेलने?
और आगे अपनी माँ से पूछतीं हैं-
"और लरिकिनी घर-घर खेलति
मोहि को कहत तुहि
उनके मात-पिता नहीं कोई?
खेलति डोलति जहीं-तहीं"
मेरी सारी सहेलियाँ इधर-उधर खेलती फिरतीं हैं, क्या उनके माता-पिता नहीं हैं?  उन्हें तो कोई कुछ नहीं कहता, तो फिर मुझे ही क्यों?

खीझी हुई बेटी को माता कीर्ती पुनः प्यार  से समझातीं हैं- "जातै निंदा होय आपनी,जातै कुल को गारौ आवति"    जिस कार्य से निंदा हो,कुल को कलंक लगे उसे छोड़ देना ही उचित है
और साथ-साथ बिटिया को सुझाव भी देतीं हैं- "बिटनिअनि के संग खेलौ"-  बस अपनी सखियों के साथ ही खेलों श्याम के साथ नहीं।

श्री राधा जी श्याम की निंदा नहीं सुन पाती, चाहे वह उनकी माँ द्वारा ही क्यों न की गई हो- "कबहुँ मौकौ कछु लगावति,कबहुँ कहति जनि जाई कहि"
कभी मुझसे कुछ कहती हो, कभी कहती हो उसने 'ये' कहा, उसने 'वो'कहा

और राधा जी श्री कृष्ण का पक्ष रखती हुई बृज में फैली हुई बातों को "बातें अनखौहीं" व्यर्थ की बातें कह कर उन्हें टालने का प्रयास करतीं हैं, इसके साथ-साथ माँ को तनिक सा रोष भी दिखातीं हैं- "नाहिं न मेरे जाति सही"- ये व्यर्थ की बातें अब मुझसे नहीं सही जातीं।

माता कीर्ती खीझ के साथ-साथ रीझ भी जाती है अपनी बिटिया की बातों पर- " मनहिं मन रीझति महतारी"   वह समझ रहीं हैं श्यामसुन्दर के प्रति अपनी पुत्री का अनुराग-भाव।

इसके उपरांत भी पूर्ण ममत्व और वात्सल्य को साथ रोकने की चेष्टा में है माता अपनी पुत्री को, उनके विराट जगजननी, अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड के स्वामी श्री कृष्ण की प्राणवल्लभा स्वरूप से अनभिज्ञ। इस समय तो वह केवल उनकी अत्यधिक लाडिली पुत्री हैं और वह हैं उनका सर्वाधिक हित चाहने वाली माँ। उनकी पुत्री का तनिक सा भी अपयश फैले,यह उन्हें स्वीकार नहीं। जिनके क्षण मात्र के स्मरण से ही कोटि-कोटि पातकों का अपयश मिट जाता है, उन्हीं को अपयश से बचाने के लिये प्रयत्नशील है माँ।

श्री राधा जी में इससे अधिक साहस नहीं है अपनी माता का प्रतिवाद करने का। इस समय वह अपनी माता की एक विनम्र आज्ञाकारी पुत्री हैं- अपने भगवतस्वरूप से सर्वथा भिन्न।

लाडिली बिटिया के हृदय को कष्ट न पहुँचे, अत: माता कीर्ती जी भी फैली हुई बातों को व्यर्थ की- "झुठै यह बात उड़ावति"   कह कर बिटिया के अशांत मन को ढाढ़स बधांती है, किन्तु राधा जी को कौन श्री कृष्ण से विमुख कर सकता है?

श्री राधा जी माता कीर्ती की बात शिरोधार्य कर उदास मन से अपने कक्ष में आ जातीं हैं और मन ही मन हृदय से विनती कर श्री कृष्ण से यही मनाती हैं कि वही कोई राह निकालें-
"राधा विनय करहिं मनहिं मन
सुनहुँ स्याम अंतर के जामी
माता-पिता कुल-कनिहि मानत
तुमहिं न जानत है जग-स्वामी"
वह जानतीं हैं कि श्री कृष्ण के हाथों डोर सौंप देने से ऐसा कौन सा काम है जो न सधेगा?
( डाॅ० मँजु गुप्ता )
[6:40pm, 15/05/2015] Satyajeet Bhawan: जय श्री राधा-कृष्ण

नंद जू के बारे कान्ह
छाँड दै मथनिया

मैया मथानी मथ रही है, कान्हा ने आकर कस कर पकड़ ली। एक हाथ दही के मटके पर और दूसरा मथानी की नेती ( रस्सी) पर।

"जब मोहन कर गहि मथानी"
      सहम उठे क्षीर-सागर, मन्दाचल और वासुकीनाग। ऐसी बाल लीला कि भ्रमित हो गये तीनों कि- यह क्या?   क्या एक और समुद्र-मंथन?

और मैया, मैया लग गई मथानी छुड़ाने में-"छोड़ दे!  छोड़ दे लला!  मथानी, देख माखन ऊपर आने ही वाला है। तनिक रुक देती हूँ।"

कैसी अद्भुत अप्रतिम सौंदर्यमयी बाल लीला है। एक ओर प्रभु का यह रूप मुनि,नर,सुर सभी को भ्रमित कर देने वाला है तो दूसरी मैया को असीम आन्नद देने वाला।

सुर,मुनिगण उनका यह रूप देख कर मन में निश्चय ही नहीं कर पाते कि कौन सा रूप यथार्थ है और कौन सा रूप लीला- "कबहुँ तीन पैर भुव नापत, कबहुँ देहरी उलाँघी न जानी"   कभी तो यह विराट रूप धर तीन पग में पूरी पृथ्वी नाप लेते हैं और कभी शिशु रूप में इनसे अपने कक्ष की देहरी भी नहीं उलाँघी जाती।

"कबहुँ सुर-मुनि ध्यान न पावत, कबहुँ खिलावति नंदरानी"   देवता मुनिगण इन्हें ध्यान में भी प्राप्त नहीं कर पाते और यह नंदरानी की गोद में बैठे रहते है।

"अमर खीर नहीं भावत"   देवताओं द्वारा अर्पित यज्ञीय खीर भी इन्हें रुचि कर नहीं और इस समय छँटाक भर माखन के लिये मैया को मथानी भी नहीं मथने दे रहे हैं।

मैया मनुहार कर रही है- "नैकु रहो माखन देऊ मेरे प्राण-धनिया" 
        बस तनिक रुक जा अभी माखन देती हूँ। जब भी नहीं छोड़ते मथानी, तो मैया कृतिम रोष भी दिखाती है- "आरि जनि करो"  हठ मत कर
  और तुरन्त बलिहारी भी जाती है- "बलि-बलि जाँऊ हौं निधनिया"

प्रभु की यह लीला- "परति न महिमा शेष बखानी"
        इस महिमा का वर्णन तो शेष जी भी नहीं कर सकते। प्रभु के इस दुर्लभ रूप को निरख-निरख "सवै भूलि गोप धनिया"
             बृज की गोप नारियाँ अपने आपको भी भूल गई हैं और चित्र-चित्रित सी एकटक श्यामसुन्दर के इस रूप का रसपान अपने नेत्रों द्वारा किये जा रहीं हैं।
( डाॅ०मँजु गुप्ता)
[6:40pm, 15/05/2015] Satyajeet Bhawan: जय श्री कृष्ण

एक बार राधा ने अत्यधिक स्नेह से श्री कृष्ण से कहा- "प्रभु मै आपसे कितना प्रेम करती हूँ इससे तो आप भलीभाँति परिचित हैं, किंतु आप मुझे कितना प्रेम करते हैं आज मैं यह जानना चाहती हूँ"

श्री राधा जी की बात सुन कर प्रभु मुस्कराये और बड़े प्यार से बोले-" प्रिये मैं तुमसे नमक जितना प्रेम करता हूँ।"

यह सुन कर श्री राधा जी को बहुत आश्चर्य हुआ। वह मन ही मन सोचने लगी कि यह कैसा प्रेम है प्रभु का?  मेरा प्रेम इतना कि मैंने अपना समस्त जीवन प्रभु को अर्पित कर दिया, मैं स्वयं प्रति क्षण प्रभु पर न्यौछावर रहती हूँ और प्रभु का मेरे लिये प्रेम केवल नमक जितना।

श्री राधा जी मन में कुछ आहत सी हो गई और उनके नेत्रों में अश्रु-बिंदु छलक आये। श्री कृष्ण ने कनखियों से देखा। श्री राधा रानी के मन में चल रहे अन्तर्द्वन्द को समझ कर उन्होंने उसका निराकरण करने का निर्णय लिया।

उन्होंने श्री राधा दी से कहा-" राधे! आज सभी को भोज पर आमंत्रित करो और भाँति-भाँति के विभिन्न स्वादिष्ट व्यंजन बनाओ, किंतु ध्यान रहे किसी भी व्यंजन में नमक का प्रयोग न हो"

श्री राधा जी ने ऐसा ही किया। भाँति -भाँति के अति स्वादिष्ट पकवान बनवाये गये और निर्धारित समय पर सबको एकत्रित कर, अत्यधिक मान-सम्मान, आदर-सत्कार के साथ भोज का प्रारम्भ हुआ। सबने बड़े उत्साह के साथ भोजन करना प्रारम्भ किया ,किंतु किसी ने एक निवाला खाया, किसी ने बड़ी कठिनाई से दो निवाले खाये, तत्पश्चात एक दूसरे को निहारने लगे। भोजन से अरूचि होने लगी।

प्रभु बार बार बड़े विनम्र भाव से सबको भोजर कर लेने का आग्रह कर रहे थे, लज्जावश कोई कुछ कह नहीं पा रहा था।

अंत में विवश होकर एक बुज़ुर्ग ने सकुचाते हुये अति विनीत भाव से श्री कृष्ण से कहा- "प्रभु आपने 56 प्रकार अत्यधिक स्वादिष्ट व्यँजन बनवाये हैं,ऐसे कि जिन्हें देखने मात्र से ही मुँह में पानी आ जाता है, परन्तु इनमें ले किसी में भी नमक नहीं है। नमक के बिना इतने स्वादिष्ट व्यँजन भी स्वादहीन व अर्थहीन हो गये हैं।अत: इनमें से कोई भी व्यंजन खाने योग्य नहीं है।"

उस बुज़ुर्ग ने सकुचाते हुये आगे कहा-"प्रभु! कृपया श्री राधा रानी से कह कर सभी पकवानों में नमक डलवायें जिससे यह खाने योग्य हों जाये।"
श्री कृष्ण जी ने राधा जी से सभी व्यँजनों में यथानुसार नमक डालने के लिये कह दिया।

श्री राधा जी ने तुरन्त सभी व्यँजनों में नमक मिला दिया। सारी प्रजा ने स्वादिष्ट भोज का भरपूर आन्नद लिया। भोजन में नमक मिल जाने के पश्चात सभी बहुत संतुष्ट व तृप्त हुये।

श्रीकृष्ण जी ने मंद-मंद मुस्काते हुये श्री राधा जी की ओर देखा। श्री राधा जी को अपने मन मे उठके प्रशन का उत्तर मिल चुका था। वह प्रभु-प्रेम की गहराई को समझ चुकीं थी।(मँजु गुप्ता)
[6:40pm, 15/05/2015] Satyajeet Bhawan: जय श्री राधा

निकुँजेश्वरी श्री राधा की अतिशय सुकुमारिता के कारण रसिक शिरोमणि श्री श्यामसुन्दर अंगों का स्पर्श मन के हाथों से भी करने से सकुचाते हैं-
 
"छुअत न रसिक रंगीलौ लाल प्यारी जू को मन हूँ के करनि सौ छूवत डरत है"

और सुकुमारी श्री राधा जी पर सदैव स्नेहवश अपने प्राणों की छाया किये रहते हैं।

राधा जी अपने श्रृंगार में विविध आभूषणों एवं सौंदर्य प्रसाधनों का उपयोग करती हैं।  श्री श्यामसुन्दर को उन वस्तुओं से भी श्री राधा के अंगों को  कहीं आघात न लग जाये, यह भ्रम होता है। निकुँज लीला में उन आभूषणों एवं सौंदर्य-प्रसाधनों को देख कर और दूसरी ओर श्री राधा जी के अंगों की सुकोमलता को देख कर श्री श्यामसुन्दर अपने हृदय में विचार करते हैं कि श्रृंगार में प्रयुक्त "पुष्पमाल" उनके वृक्षस्थल को बींधता होगा, "अंजन" उनकी आँखों में खटकता होगा और "कठोर आभूषण" उनके अंगों में गढ़ते होगें।

वह मन ही मन विचार करते हैं कि सम्भवत: हृदयेश्वरी श्री राधा उनके प्रेम में बाबली होकर अपना विवेक खो बैठी हैं, तभी तो उन्होंने स्वयं को कष्ट पहुँचाने वाली ये वस्तुयें अपने प्रिय श्यामसुन्दर के लिये धारण कीं हैं।

यद्यपि ये आभूषण स्वयं सुन्दर न होकर मात्र प्रिया जी के सानिध्य से ही सुन्दरता पाते हैं। श्री श्यामसुन्दर इस तथ्य से भलीभाँति अवगत हैं कि यह साज-श्रृंगार, यह आभूषण तो प्राणेश्वरी श्री राधा मेरे एक संकेत मात्र पर त्याग सकती हैं, किंतु वस्त्रों से होने  वाली चुभन से कैसे रक्षा हो?

व्यथित हो श्री श्यामसुन्दर ने देवी भगवती से प्रार्थना-स्वर में पूछा- "देवी! विश्व में सबसे अधिक कोमल क्या है?"

देवी भगवती ने कहा-"विश्व में सर्वाधिक कोमल तुम्हारी प्रिया और तुम हो।"
तब श्री श्यामसुन्दर ने उनसे भिक्षा रूप में कहीं भी समा जाने की सामर्थ्य माँगी।
देवी भगवती ने कहा-"एवमस्तु"

और तत्काल उसी क्षण श्री श्यामसुन्दर श्री राधा जी की श्रृंगार वस्तुओं (आभूषण, पुष्पमाल,अंजन आदि)  में प्रविष्ठ हो गये और स्वयं कष्ट सहते हुये अपनी प्रिया जू को कष्टों से मुक्ति दिलाई।

अपनी प्रिया जू को नहीं मेरे श्यामसुन्दर तो सदैव प्रत्येक भक्त को हर समय कष्टों से मुक्ति दिलाने को तत्पर रहते हैं।
( डा० मँजु गुप्ता)
[6:40pm, 15/05/2015] Satyajeet Bhawan: जय श्री राधा-कृष्ण

दिव्य-अद्भुत-रहस्य

दिव्य-अद्भुत रहस्य रस निहित है श्री राधा-कृष्ण की लीलाओं में। वह लीला बाल्यावस्था की चक भौरा डोरी खेल खेलने की हो, किशोरावस्था की माखन चोरी की हो या मिलन और विरह की हो।

इस युगल जोड़ी की पूर्णत निराली एवं रहस्यमयी अद्भुत लीलाओं में आकंठ डूब कर इनके सौंदर्य का गहन रसास्वादन तो किया जा सकता है,किंतु इन्हें समझ पाना एवं लिपिबद्ध करना अति दुष्कर है।

"मिट गई अंतरबाधा"
          श्री राधा जी के हृदय का अंतर्द्वंद  समाप्त हो गया। उनकी माता ने उन्हें श्री कृष्ण के साथ खेलने की अनुमति दे दी- "खेलौ जाई श्याम संग राधा"

         और प्रसन्नचित्त श्री राधा जी अपनी सखियों के साथ खेलने के लिये नंदगाँव की ओर बढ़ गयीं। अब उनकी राह में न तो कोई बाधा थी और न हृदय में कोई अंतरद्वंद।

    "बूझत श्याम कौन तू गोरी"  श्री कृष्ण ने उन्हें देखा और परिचय पूछा। परिचय प्राप्त कर लेने पर नटखट कान्हा-
   "काहे कौ हम बृज-तन आवति
       खेलति रहतीं आपनी पौरी"   कहने से वहीं चूकते।
क्या अपने घर के आसपास नहीं खेल सकती,इतनी दूर हमारे गाँव आई है।

प्रत्यक्ष रूप से कुछ रोष है, किंतु मन हीं मन बहुत प्रसन्न हैं श्याम - "सूर श्याम देखत ही रीझे"

दोनों ने एक दूसरे को अपने अपने खेलों में सम्मिलित कर लिया।सब एक साथ खेलने लगे, कान्हा और उनकी सखा मंडली, राधा जी और उनकी सखी मंडली।

श्री राधा कृष्ण खेल रहे हैं। खेल में मग्न उनकी सुंदर जोड़ी को देव लोक से देवता भी निरख-निरख कर असीम आन्नद का सुख अनुभव कर रहे हैं

और तभी-
    "संग खेलत दोऊ झगरन लागे"
       खेलते खेलते दोनों में झगड़ा हो गया, किंतु उनके झगड़े में भी सौंदर्य की पराकाष्ठा है- "सोभा बढ़ी अगाद्या"

उनका झगड़ना चारों ओर इस प्रकार सौंदर्य की छटा बिखेर रहा था मानों दामिनी - मेघ और सूर्य- चन्द्र बालरूप में आकर आनन्द रस की अभिव्यक्ति कर रहे हों

"निरखति विधि भ्रमि भूल परयौ
तब मन-मन करत समाधा"

श्री राधा-कृष्ण के बालरूप झगड़े के अप्रतिम सौंदर्य का मुग्ध-पान करके करते ब्रह्मा जी भी भ्रमित हो जाते हैं कि कहीं जगत्पति ने एक और सृष्टि की रचना तो नहीं कर डाली।

रास-रासेश्वरी श्री राधा और रसिक शिरोमणि श्री कृष्ण एक ही अंश से अवतरित हुये और अपनी दिव्य रहस्यमयी लीलाओं उन्होनें बृज-भूमि को गौरवान्वित किया।
( डाॅ० मँजु गुप्ता)
[6:40pm, 15/05/2015] Satyajeet Bhawan: जय श्री कृष्ण

दै दै री माई तनक माखन

प्रात:काल की स्वर्णिम बेला में एक सुमधुर मृदुल कंठ-ध्वनि,गीतों के मोतियों में गुँथीं हुई नंदबाबा के राज-प्रसाद में गुँजित हो रही है। दधि मथते समय आन्नदमग्न यशोदा जी के हृदय-निहित-गहन-वात्सल्य-उद्गार गीत-लहरी में फूट रहे हैं। अति सुमधुर लय में एकाग्रचित्त हो वह अपने लला का गुणगान कर रहीं हैं।

मेघ सम नील-वसन, चंद्र मुख पर अलकावली और चंचल हँसते दँतुलिया दिखाते कन्हैया का उनका आँचल पकड़ कर खड़े होना कोटि-कोटि कामदेवो को भी लज्ज्ति कर रहा है।

मैया कान्हा को दुलराते हुये कहती है-" कन्हैया नाच दिखाओ, मक्खन दूँगी"
     और त्रिलोकी के स्वामी भक्तवत्सलतावश नृत्य करने लगे, तुतलाते हुये गाने भी लगे-" तनक दै दै री माई माखन, तनक दै दै री माई माखन"
              क्या अद्भुत छटा है?  छोटे- छोटे लाल चरण, चरणों में पायल, पायल में नुपुर  और नुपुर की रूनझुन- धीमी किन्तु  देवलोक तक को गुँजा देने वाली अति कर्णप्रिय ध्वनि।

जैसे जैसे मथानी की घरघराहट होती है, वैसे वैसे कन्हैया घूम-घूम कर वृत्ताकार लय में नृत्य कर रहे हैं। घुघँराली लटें,माथे पर डिठौना, पीला-सुनहरा झगुँला,गले में सोने का कठुला व मणि-मोतियों की माला,दोनों कलाईयों में मणि-मण्डित कंगन, बाजूबंद, कमर  में खनकती स्वर्ण मोतियों की करधनी और पैरों में रत्न-जड़ित पायल, जिनके नुपुर कन्हैया के नृत्य के साथ साथ, अपने सौभाग्य पर अधिक झंकृत हो रहे है।

कन्हैया के दमकके मुख-मण्डल का तेज़ रत्नाभूषणों से प्रतिबिम्बित होकर चहँु ओर प्रस्फुटित होता हुआ इस आलौकिक सौंदर्य को द्विगुणित तिगुणित कर   रहा है।

एक हाथ में कन्हैया ने छोटी सी रोटी ले रखी है और दूसरे हाथ की उँगली से रोटी की ओर इंगित करते हुये, दो आगे की दँतुलिया दिखाते हुये तोतली वाणी में वृत्ताकार घूमते हुये गा रहे हैं-
      "दै दै री माई तनक माखन, दै दै की माई तनक माखन"

        मैया मंत्रमुग्ध!मथानी मथना ही भूल गई!
सुर, मुनिगण सब मंत्रमुग्ध!
एकटक निमिमेष निहारें जा रहें हैं नृत्य करते प्रभु को- "अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड के स्वामी नंदरानी के समक्ष माखन के लिये नाच रहे हैं, प्रभु आपका यह भक्तवत्सलत रूप तीनों लोकों में सुविख्यात हो गया है।"

सहसा चेत आया मैया को, बलि-बलि जाने लगी अपने लला पर। माता यशोदा के तो प्राण हैं यह, बदहवास सी मैया ने दौड़ कर, नृत्य करवाना रोक अपने हृदय से चिपका लिया अपने निधनी के धन को और बलैयाँ लेती हुई बोली- "नज़र लग जायेगी मेरे लला को। मेरे चित्त को मोहित करने वाले मेरे लाल!
तुम्हारी सारी आपत्ति विपत्ति मुझ पर आ जाये।"

      भोली मैया क्या जाने कि केवल मैया का ही चित्त नहीं, उसके नटखट लाल ने तो सारी सृष्टि का चित्त मोह रखा है।
( डा० मँजु गुप्ता )
[6:40pm, 15/05/2015] Satyajeet Bhawan: 
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राजा बहुलाश्च ने नारद जी से अति सुंदर प्रश्न किया कि भगवान श्री कृष्ण की वंशावली की गणना करने में कोई समर्थ नहीं, किंतु उन्हीं के ज्येष्ठ भ्राता बलराम जी की पत्नी रेवती जी के एक भी पुत्र नहीं था। ऐसा क्यों वह पुत्रहीन क्यों थी?

नारद जी ने उस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि जब द्वापर के अंत में पृथ्वी का भार उतारने के लिये भगवान श्री कृष्ण ने यदुकुल में अवतार लिया, तब सहस्त्र मुख वाले भगवान शेष अनन्त ( संकर्षण ) भी उनके साथ उनके ज्येष्ठ भ्राता बनकर भू लोक में आये।

जब शेषनाग भगवान अनन्त ( संकर्षण) की पत्नी नागलक्ष्मी को यह पता चला कि मेरे स्वामी भू लोक पर जाने वाले हैं, तो उन्होंने अपने पति से विनती की कि मैं भी आपके साथ भू मण्डल पर चलूँगी। विरह-व्यथा की आशंका से शोकाकुल प्रिया की हालत देखकर शेषनाग जी ने अपनी पत्नी से कहा कि तुम भू लोक में जाकर रेवती की देह में समा जाओ। वहाँ रेवती के रूप में मेरी पत्नी बन कर रहना।

नागलक्ष्मी के यह पूछने पर कि यह रेवती कहाँ है और कौन है ? भगवान शेषनाग अनन्त ने कहा,' आदि सृष्टि से मैं कद्रू और कश्यप ऋषि का पुत्र, हज़ार मुख वाला सर्पराज संकर्षण था और रेवती मनु-यज्ञ से उत्पन्न मनु-कन्या ज्योतिषमती थी। उसने मुझे पति रूप में पाने के लिये घोर तपस्या की। उसकी तपस्या को भंग करने के लिये यमराज, कुबेर, अग्नि देव, वरुण, सूर्य देव, चंद्र, मंगल, बुध, वृह्स्पति, शुक्र, शनि और इन्द्र देव आये। सभी उससे शापग्रस्त होकर वापस लौट गये।

और सब तो मौन वापस चले गये , किन्तु इन्द्र कुपित हो गये और उन्होनें ज्योतिषमती को पलट कर शाप दे दिया,' ओ, मुझे शाप देने वाली,क्रोधकारिणी, तू भगवान संकर्षण को पति रूप में प्राप्त कर लेने के बाद कभी, किसी भी जन्म में पुत्रवती नहीं बन पायेगी। तेरे घर में कभी पुत्रोत्सव नहीं होगा।

वही ज्योतिषमती राजा रेवत के घर उनकी पुत्री रेवती बन कर जन्मी है। रूप गुण उदारता से सुशोभित रेवती अब विवाह योग्य हो गई है। नाग लक्ष्मी तुम जाकर उसकी देह में समा जाओ और रेवती के रूप में मेरी पत्नी बन कर रहो, किंतु तुम्हें पुत्रहीन ही रहना होगा।
( श्री गर्ग-संहिता के सौजन्य से)
मँजु गुप्ता
[6:40pm, 15/05/2015] Satyajeet Bhawan: जय श्री राधा कृष्ण

नैकुँ गोपालहिं मोकौ दै री !

जब से कन्हैया जसुमति माँ की गोद में आये हैं बृज की ग्वालिनें बावरी सी हों गई हैं। प्रति पल, क्षण-क्षण कन्हैया को ही मुग्ध हो हो कर निहारतीं रहती हैं। भावातिरेक की पराकाष्ठा यह है कि इतने पर भी संतुष्टि नहीं-
     "ललना लै लै उछंग,अधिक लोभ लागै"

बार-बार गोद में लेने पर,प्रति पल कन्हैया का मुख-कमल-दरस करने के उपरांत भी अतृप्ति-सी ही रहती है उनके मन में,अपितु उनकी दरस-लालसा और अधिक बढ़ जाती है।

कन्हैया के चरण कमल के समान हैं,अधर,दँतुलिया, नासिका मनमोहिनी है। केशों में गुँथें मोती तथा गले की कौस्तुभमणि पर करोड़ों कामदेव न्यौछावर हो रहे हैं। यह सुख तो वेदों की सम्पत्ति और सनकादिक ऋषियों का सर्वस्व है,जिसे यशोदा माँ और बृज की ग्वालिनों ने न जाने कौन से भाग्य ले पा लिया है?

दरस-लालसा पूर्ति में बाधक हैं उनकी अपनी नयन-पलकें-
    "निरखति निंदति निमेष करत ओट आगे"
   पलकें बार-बार नयनों पर आकर गिर जातीं हैं, जिससे उनकी दरस-लालसा पूर्ति में बाधा आती है,अत: ग्वालिनों को अब दरस-परस समय अपने ही नयनों की पलकें तनिक भी नहीं सुहाती।

बार-बार जसुमति माँ की मनुहार करके उनकी गोद से कन्हैया को अपनी गोद में ले लेतीं हैं-
     "नैंकु गोपाल मौकौ दै दै री"

माता यशोदा तो अपने लला का मुख देख कर ही जी रही है-
   "प्रेम मगन तन की सुधि भूली"

वात्सल्यातिरेक में शिशु के मुख से मुख लगा कर बातें करती रहती है। नटखट कन्हैया यहाँ भी मन में ठिठोली ठाने बैठें हैं, उनकी दृष्टि माता की दमकती हुई नकबेसर पर एकटक लगी रहती है-
    "लटकती बेसरि जननी की,इकटक चख लखै"

माता की नकबेसर का झिलमिलाता प्रतिबिम्ब छिटक-छिटक कर दूर-दूर तक चमक फैलाता है- उसे देख देख कर कन्हैया माता की गोद में उतने ही चिहुँक-चिहुँक कर माता का मन मोहते हैं। मुदित,हर्षित मन माता लला को किलकता देख बलि-बलि जाती है।

किन्तु अगले ही क्षण लला के अनिष्ट की आशंका उसे व्यथित कर देती है-
    "कैसे बच्यौ,जाँऊ बलि तेरी तृर्नावर्त के घात
    वैसी काम पूतना कान्हीं,एहिं ऐसौ कियौ आई"

            मेरे लाल इतना कोमल सुकोमल शरीर, कौन से कर्म,कौन से देवता से तृर्नावर्त और पूतना से बच गया?

'माता दुखी हो गई'- ऐसा मन में विचार कर तुरन्त प्रभु ने अपनी "नन्हीं दँतुलिया दिखाई"
         अपनी नन्हीं नन्हीं दँतुलिया दिखा कर,बार बार किलक कर,अपनी मृदुल कोमल जिह्वा से कुछ अस्फुट शब्द बोलने का प्रयास करके, प्रभु ने माता का चित्त अपनी ओर लगा कर माता का दुख विस्मृत कर दिया।

केवल माता का ही क्या?  प्रभु को सबका दुख विस्मृत करा दें। उन्हें एक बार कातर आर्त स्वर में पुकारें तो सही हम।
( डाॅ० मँजु गुप्ता)
[6:40pm, 15/05/2015] Satyajeet Bhawan: जय श्री राधा-कृष्ण

जब द्रवित हो जल रूप में परिवर्तित हो गये श्री राधा कृष्ण

गोलोक धाम में कार्तिक पूर्णिमा महोत्सव अत्यधिक धूमधाम से मनाया जा रहा था। चारों ओर पारलौकिक सौंदर्य की छटा फैली हुई थी। सर्वप्रथम भगवान श्री कृष्ण ने श्री राधा जी का विधि-विधान से सम्यक पूजन किया, तत्पश्चात ब्रह्नााजी आदि सभी देवताओं ने श्री राधा जी का उसी प्रकार पूजन किया।

देवी सरस्वती ने कर-वीणा-गह्य अति मधुर मीठा संगीत-वादन किया एवं सभी देवताओं से सम्माननीय पुरूस्कार प्राप्त किया।

इस महोत्सव में भगवान शिव भी विराजमान थे। ब्रह्मा जी की अन्त:प्रेरणा से भगवान शिव ने श्री कृष्ण सम्बंधी एक अति मधुर पद्य का गायन किया। ऐसा अद्भुत गायन जिसके प्रत्येक शब्द में, प्रत्येक ताल में, रस आल्हादित करने की द्विगुणित,तिगुणित क्षमता निहित थी। भगवान शिव मग्न होकर इस पद्य का बार-बार गायन करने लगे।

ऐसा मनमोहक, हृदयस्पर्शी, उल्लास और हर्ष को बढ़ाने वाला संगीत सुन कर सभी देवता भाव विभोर हो गये और रसातिरेक के आधिक्य से जड़ व चित्र-चित्रित पुतलों की भाँति स्थिर व अर्धमूर्छित से होने लगे। कुछ तो अचेत ही हो गये। कुछ समय पश्चात् सभी को चेतनता का आभास हुआ।

चेतना लौटने पर सबने देखा कि सम्पूर्ण स्थल जल से आप्लावित है और श्री राधा कृष्ण का कहीं पता नहीं है। सभी विह्वल होकर श्री राधा कृष्ण को प्रत्येक स्थान पर ढँढने लगे, कोना-कोना छान लिया उत्सव स्थल का, किन्तु श्री राधा कृष्ण का कहीं पता न चला। वेदना ग्रस्त होकर सभी करूण स्वर में रूदन एवं क्रंदन करने लगे। तब ब्रह्मा जी ने ध्यानस्थ होकर देखा कि भगवान कृष्ण श्री राधा जी के साथ जलमय हो गये हैं। सभी देवता ब्रह्मा जी के साथ श्री राधा कृष्ण की स्तुति करने लगे।

उसी समय श्री कृष्ण जी की अति सुमधुर वाणी गूँजी- "मैंने और मेरी स्वरूपाशक्ति राधा ने अपने भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये जलमय विग्रह धारण कर लिया है- गोलोकधाम की गंगा"

तत्पश्चात् श्री कृष्ण की सुमधुर वाणी ने भगवान शंकर से स्त्रोत,ध्यान,पूजा विधि,मंत्र कवच- सभी विद्याओं सहित "तन्त्र शास्त्र" का निर्माण करने का आग्रह किया।

भगवान शंकर ने उसी क्षण गंगा जल कर हस्त कर "वेदों के सारभूत महान तन्त्रशास्त्र" का निर्माण करने का संकल्प ले लिया। जब भगवान शंकर अपना संकल्प पूर्ण कर चुके़, उसी क्षण उस सभा में अक्समात परमब्रह्म परिपूर्णतम भगवान श्री कृष्ण भगवती श्री राधा जी के साथ प्रकट हो गये। देवताओं की प्रसन्नता की सीमा न रही, सभी देवता उनकी स्तुति करने लगे।
( ब्र वै पु)
(डाॅ० मँजु गुप्ता)
[6:40pm, 15/05/2015] Satyajeet Bhawan: जय श्री राधा कृष्ण

हरि हो गये आज साढ़े तीन मास के

वात्सल्य भाव के भावातिरेक के आनन्द में डूबी जसुमति माँ अपने लला पर मुग्ध पर मुग्ध हुई जा रही है। साढ़े तीन मास का हो गया है लला और आज स्वयं पलट कर उलटा हो गया है-
       "पटकि रान उलट परयौ,मैं करौ बधाई"
       माँ रीझ-रीझ निहाल हो रही है,आज मैं मंगल बधाई बटवाऊँगीं।

आन्नदातिरेक में भरी ममतामयी माँ की आँखों में अपने लाल को लेकर अनगिनत स्वर्णिम स्वप्न तैर रहे हैं। वह अपने नन्हें से लला को तुरन्त बड़ा देखने की आतुर अभिलाषिणी है-
       "नन्हरिया गोपाल लाल,बेगि बड़ौ किन होहिं"

वह इसी कल्पना में खोई हुई है कि कब मेरा लाल घुटुरूनु सरकेगा, कब धरती पर दो एक पग धरेगा, कब दो दँतुलिया दूध की दिखायेगा?

"कब तोतरे मुख वचन झरै"  लला के मुख से मैया और बाबा सुनने की ललायित माँ लला की अटपटी माँगो, उन्हें पूर्ण न करने पर लला के रूठने और झगड़ने तक की कल्पना कर लेती है।

जसुमति माँ के इसी अवर्णनीय सुख को अनुभव कर कवियों ने कहा है-
      "जो सुख बृज में एक घड़ी
       सो सुख तीन लोक में नाहिं
       धनु यह घोष पुरी"

धन्य है यह गोप नगरी, ऐसा सुख संसार में और कहाँ?
  "अष्टसिद्धि नवनिद्धि कर जोड़े,द्वारे रहति खरी"

क्योंकि शिव,सनकादिक ऋषि तथा शुकदेव आदि परम हंसों के लिये भी जिनके दर्शन दुर्लभ हैं, उन्हीं श्री हरि ने इस नगरी में अवतार लिया है।

ऐसी बाल-सुलभ सौंदर्यमयी क्रीड़ा- उल्टे पड़े प्रभु सीधे होने के लिये हाथ पैर मार रहे हैं " कर सेज टेकत"
       कभी पलँग को पकड़ने का प्रयास, "कबहँु टेकति ढहरि"  को कभी पलँग की पाये को पकड़ने का भरपूर प्रयास कर रहें हैं।

नंदबाबा के भी हर्ष का पारावार नहीं, स्वयं तो इस नैसर्गिक दुर्लभ सुख में डूबे हुये हैं हीं, तनिक सी देर के लिये बाहर गयी नंदरानी को भी तुरन्त पुकार कर- प्रभु के बार बार उल्टे हो जाने और सीधे होने का जी तोड़ प्रयास करने का अप्रतिम सौंदर्ययुक्त दुर्लभ दृश्य दिखाते हैं। दोनों एक अद्भुत आन्नद लहर में बह जाते हैं- "श्याम उलटै परै देखि,बाढि सोभा लहरी"

इस कल्पनातीत नैसर्गिक सौंदर्य और आनन्द का वर्णन कर सके, किसी के पास न तो इतनी बुद्धि व कौशल और न ही किसी की लेखनी में इतनी सामर्थ्य।
कहाँ से आये इतने अनुपम सौंदर्य वर्णन की क्षमता?
( डाॅ० मँजु गुप्ता)
[6:40pm, 15/05/2015] Satyajeet Bhawan: जय श्री राधा कृष्ण

ऐसे रंग बनावत

कन्हाई नित्य नई लीला कर रहें हैं।सबका मन मोह लिया है,बृज के प्राण हैं। बृजवासियों की भोर, दोपहर,संध्या एवं सारी दिनचर्या कन्हाई के ही चारों ओर घूमती है। बृज का छोटे से छोटा बालक तक कन्हाई को क्षण मात्र के लिये भी अपने नेत्रों से ओझल नहीं करना चाहता।

कन्हाई अब घर के भीतर सारे में घूमते हैं,किंतु अभी घुटनों ही चलते हैं। एक कक्ष से दूसरे कक्ष में जाने के लिये अति प्रयत्नशील रहते हैं-
       "घर आँगन अति चलत सुगम भये,देहरी अँटकावत"

       घर-आँगन में चलना तो सुगम है,कक्ष की देहरी नहीं लाँघी जाती,उसे पार करने में बहुत परिश्रम करना पड़ता है- "अति श्रम होय लघावत"

    बलराम जी प्रभु की यह लीला देख रहें हैं-
   "मन ही मन बलवीर कहत,ऐसे रंग बनावत"

"अपने वामनावतार में तो इन्होंने साढ़े तीन पग में पूरी पृथ्वी नाप ली थी और अब ज़रा इनके रंग-ढंग देखो, कक्ष की देहरी पर ही अटके बैठे हैं पार नहीं की जा रही-मन ही मन हँस रहे हैं बलदाऊ भैया-

" कहाँ गया इनका वह बल सारा" अविज्ञात गति प्रभु की लीला तो देखो- "देखो अद्भुत अविगत की गति कैसौ रूप धरयौ है"

    तीनों लोक जिनके उदर रूपी भवन में रहते हैं वही- "सो सूप के कोन परयो है"-  अवतार लेकर यशोदा  मैया के प्रसूति-गृह में  सूप के एक कोने में पड़ा है।

    जिसकी नाभि, कमलनाल से ब्रह्मा जी तथा ब्राह्मा जी से सभी देवता उत्पन्न हुये हैं, उन्हीं परम पुरूष की नाल काट कर बृज नारियाँ बँटे हुये धागे से बाँध रही हैं- "ताकौ नाल छीनी बृज-जुवती बाँटि लगा सौ बाँधयौ"

   जिस श्री मुख का दर्शन करने के लिये अराधना में एकाग्र होकर शंकर जी समाधि लगाके हैं- "सो मुख चूमति महरि जसोदा,दूध-लार टपकाने"  दूध से सने लावण्यमय मुख को जसुमति मैया प्यार करती है।

    जिन कानों से भक्तों की विपत्ति सुन कर गरूड़ को भी छोड़ कर प्रभु दौड़ पड़ते हैं- "तिन स्त्रवनि ह्वै निकट जसोदा,हलुरावै अरू गावै"- उन्हीं कानों के निकट मुँह लाकर जसुमति मैया लला को लोरी गा गा कर सुनाती है।

    जो पूरे विश्व का भरण पोषण करते हैं, समर्थों के भी सर्व समर्थ हैं- "माखन काज अरै हैं"- तनिक से माखन के लिये हठ पकड़े बैठे हैं।

    जिनके विराट रूप के एक-एक रोम में कोटि- कोटि ब्रह्माण्ड हैं- "पलना माँझ परे हैं"- एक ज़रा से पलने में पड़े हैं।

   जिस भुजा के बल से हिरण्यकशिपु का हृदय फाड़ कर प्रह्लाद की रक्षा की- "सो भुजि पकरि कहति बृज नारि,ठाढे होऊ लला रे"- उसी भुजा को पकड़ खींच कर बृजनारि उन्हें खड़ा कर देतीं हैं।

    जिन्हें देवता और ऋषि-मुनि भी सहज ही ध्यान में नहीं ला पाते- "सोई जा बृज में गोकुल-गोप-बिहारी हो"-  वही प्रभु बृज में गोपों के साथ क्रीड़ा करने के लिये इस बृजभूमि में शिशु बन कर आये हैं।

प्रभु की कौतुक भरी शिशु-क्रीड़ा लीला पर बलराम जी मन ही मन मुग्ध हो रहे हैं-
        "अब धाम देहरी न चढ़ि सकत,प्रभु खरे अजान"

और तभी तो उनके मुँह से अनायास ही निकल पडा- "ऐसे रंग बनावत"

वाह प्रभु की शिशु-लीला ! कैसी चकित कर देने वाली है,अद्भत कौतुहल से भरी हुई !!
( डाॅ० मँजु गुप्ता)
[6:40pm, 15/05/2015] Satyajeet Bhawan: जय श्री राधा कृष्ण

आज हरि की प्रथम वर्षगाँठ है

आज नंद जी के राजप्रसाद में,ब्रह्म महुर्त से ही अत्यधिक चहल-पहल हो रही है। प्रत्येक जन के मुख पर अगाद्य प्रसन्नता है,हृदय में आन्नद और उत्साह का सागर हिलोंरे ले रहा है।नंदबाबा और यशोदा जी दोनों फूलें नहीं समा रहे हैं-
   "फूले फिरत नंद अति सुख भयौ"
    "फूलि फिरति जसोदा तन-मन"

   नंदबाबा उत्सव का  प्रबंध करने में अति व्यस्त हैं- "हरषि मगाँवत फूल-तमोल"
     और यशोदा माँ के केन्द्रबिन्दु तो केवल उनके लला ही हैं। उनकी गहन हृदय अभिलाष है कि आज अपने लला का अभूतपूर्व श्रृंगार करें।

     सर्वप्रथम वह अपने लला को स्नान कराना चाहतीं हैं- "आई तुम्हें अन्हवाँऊ"
         अपने लला के लिये स्वयं पानी गर्म करती है "केसर उबटन, तेल आदि स्नान सामग्री"  यथास्थान रख लला को पकड़ कर लाती है, किंतु नटखट कन्हैया इतनी सरलता से उनके हाथ  कैसे आ जाये?  स्नान के नाम पर रोने लगतें हैं- "लालहिं चोटत पोटत री"

कैसी मनोरम,हृदयग्राही लीला है- माता मनुहार कर रही है और लला झगड़ा- "स्याम करत माता सौं झगरो"  
        स्नान का विरोध करते हैं- "अटपटात कलबल करि बोल"    माता के हाथों से छूटने का असफल प्रयास करके हैं और फिर धरती पर लोट जाते हैं- "रोई गये हरि लोटत री"

     अब माता का पूरा ध्यान लला को दुलारने,पुचकारते,मनाने में लग जाता है- मेरे लाल रो मत,अच्छा मत करना स्नान   "मैं बलि-बलि जाँऊ न्याऊ जनि मोहन,कत रोवत बिनु काजै री"   मैया ने बहुत विनती की, किंतु  लला स्नान के लिये मानता ही नहीं-
     "महरि बहुत विनती करि राखति,मानत नहीं कन्हैया"   और उठ कर अपने नन्हे-नन्हें पैरों से भागने लगते हैं,माँ खीज उठती है कि कैसे पकड़ूँ इस चंचल को- "कैसे पकरि न पाऊँ री"

जगत-धारण कर्ता प्रभु और माता की यह विनोद लीला नंदबाबा और बलराम जी देख-देख कर हर्षित हो रहे हैं। देवता,गंधर्व,मुनिगण सभी प्रभु की इस लीला को देख देख कर भ्रमित और आन्नदित हो रहें हैं।

भाव के भूखे भगवान को अंत में यशोदा जी जैसी भक्त ने पकड़ ही लिया और अपने अमूल्य-धन कन्हैया को दूध,केसर,उबटन लगा कर मृदुल-स्नान कराया- "उबटि कान्ह अन्हवाई अमोल"

मैया प्रफुल्लित तन-मन अपने लला का श्रृंगार करने में व्यस्त है। स्नान के बाद कमल-वस्त्र मैया ने अपने लला के छोटे से शरीर,छोटे-छोटे हाथ एवं छोटे-छोटे चरणों को पोछा, पीला सुनहरी झंगुलिया पहनाई,गले में मणियों की माला और अंग-अंग में आभूषण धारण कराये।

आज मैया ने अपने लला को चौकोर टोपी पहनाई-"सित चौतनी, डिठौना दीन्हों"   लला को नजर न लगे माथे पर डिठौना भी लगाया। लला अभी भी मैया से छूटने के प्रयत्न में है, अस्फुट स्वर में वह मैया ले कुछ कह भी रहा है।

भावविभोर वात्सल्य में डूबी मैया अपने दोनों हाथों में लला के मुख को ले,अत्यधिक  प्रसन्नता और लाड़ से उसे बताती है- आज तेरी वर्षगाँठ है "बरस-दिवस कहि करत किलोल"
   आज लला की वर्षगाँठ के सूत्र की ग्रन्थि खोली जा रही है।
( डाॅ० मँजु गुप्ता)
[6:40pm, 15/05/2015] Satyajeet Bhawan: जय श्री राधा कृष्ण

"वत्स ! जल कहाँ हैं ?"

एक दिन नारद जी ने श्री कृष्ण से कहा-"प्रभु मैं आपकी माया देखना चाहता हूँ"

कुछ दिनों के बाद श्री कृष्ण नारद जी के साथ मरुभूमि की यात्रा पर गये। बहुत दूर चलने के बाद श्री कृष्ण बोले-" नारद, मुझे बडी तीव्र प्यास लगी है, क्या तुम मेरे लिये कहीं से थोड़ा सा जल ला सकते हो?" नारद बोले-" प्रभु मैं अभी जाकर आपके लिये कहीं न कहीं से जल लेकर आता हूँ।"

पास में ही एक गाँव था। जल की खोज में नारद उसी गाँव में प्रविष्ठ हो गये और एक घर के द्वार पर दस्तक दी। द्वार एक अनिग्द्य रूपवती कन्या ने खोला। नारद प्रथम दृष्टि में ही मुग्ध हो गये और जल लाना भूल उस कन्या के साथ वार्तालाप में मग्न हो गये। वार्तालाप प्रेम में परिवर्तित होने लगा।एक दिन बीता,दो दिन बीते, वहीं रहे और उस कन्या के पिता से विवाह की अनुमति माँग कर विवाह भी सम्पन्न कर लिया। आगे चल कर संतानें भी हुई एवं सुखी जीवन व्यतीत होने लगा।

इसी प्राकार बारह साल गुज़र गये। ससुर की मृत्यु के पश्चात उसकी सम्पत्ति के उत्तराधिकारी भी बन गये। सुख-समृद्धि और अपनी परिकल्पना के अनुसार वह अपने पत्नी,बच्चों,खेती बाड़ी,पशुधन आदि के साथ बहुत सुख-चैन का जीवन व्यतीत कर रहे थे।

तभी उस इलाक़े में बाढ़ आई।पानी इतना अधिक बढ गया कि पूरा गाँव, इन्सान, मकान, पशुधन सब कुछ जल-प्लावन में डूबने-उतरने लगा। औरों की भाँति नारद भी जीवन बचाने के जहाँ स्थान मिला वहाँ भागे। उन्होंने एक हाथ से पत्नी का,दूसरे हाथ से दोनों बच्चों का हाथ  कस कर पकड़ा और एक बच्चे को कंधे पर बैठाया और उस भंयकर बाढ़ से बच निकलने का भरपूर प्रयास करने लगे।

कुछ क़दम आगे बढ़ने पर ही एक तेज़ लहर आई और कंधे पर बैठा शिशु पानी में गिर कर बह गया। नारद करूण स्वर में आर्तनाद कर उठे, उस शिशु को बचाने के प्रयास में दूसरा बालक भी हाथ से छूट गया। दूसरे को बचाने के प्रयास में तीसरा भी बह गया। जिस पत्नी का हाथ अब तक उन्होंने कस कर पकड़ा हुआ था, बदहवासी में उसे भी तरंगों के वेग  में उनसे छीन लिया।

घर-बार, सुख-समृद्धि, पत्नी-बच्चे सब छिन गये। वह स्वयं दूर तट पर जा गिरे और बडे शोकाकुल कातर स्वर में विलाप करने लगे।

उसी क्षण पीछे से एक अति मृदुल कोमल स्वर गूँजा-"वत्स,जल कहाँ है?  तुम तो मेरे लिये जल लेने गये थे न, मैं खड़ा-खड़ा तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। तुम्हें गये आधा घंटे का समय व्यतीत हो चुका है।"

"क्या आधा घंटा ?"- नारद विस्मयमिश्रित चीत्कार कर उठे।
उनके मन के भीतर तो बारह वर्ष व्यतीत हो हो चुके थे और बारह
वर्ष की सारी घटनाये उनके  मानस-पटल में आधा घंटे में ही घट गयी थी। दिखा चुके थे श्री कृष्ण उन्हें अपनी माया। ( मँजु गुप्ता)
[6:40pm, 15/05/2015] Satyajeet Bhawan: जय श्री राधा कृष्ण

देखौ धौं का रस चरननि में

नन्हें से कान्हा पालने में लेटे हैं,जसुमति मैया मधुर स्वर में गाती हुई हौले-हौले पालना झुला रहीं हैं। नटखट कान्हा मौन,चुपचाप न तो सो सकतें हैं और न ही अधिक देर कह सकते हैं। कोई न कोई लीला को उन्हें करनी ही है।

    "जे चरनारविंद श्री भूषण,उर कें न टारति"
      मेरे इन चरण-कमलों को लक्ष्मी जी अपने हृदय का आभूषण बना कर रखतीं हैं,एक क्षण के लिये भी इन्हें अपने उर से विलग नहीं करतीं- ऐसा क्या है मेरे इन चरणों में?"

     यही विचार कर अति उत्सुकता से हरि ने अपने पैर का अँगूठा मुख में रख लिया-
      "देखौ धौं का रस इन चरननि में,मुख मेलति करि आरति"

     मेरे जिन चरण-कमल का रस पाने के  लिये देवता व मुनिगण तप रत रहतें हैं- "सो रस है मौकँू कौ दुरलभ"
     अपने इन चरणों का रसास्वादन तो मेरे लिये भी दुर्लभ है, मानों इसीलिये प्रभु अपने चरणारविंदों का स्वयं ही स्वाद ले रहे हैं। उनके लिये अब ये ही खेल हो गया है- "हरषि-हरषि अपने रंग खेलत"

    इधर प्रभु ने अपनी नई लीला प्रारम्भ की, उधर सारे देवता भ्रम में पड़ गये-
     "शिव सोचत,विधि बुद्धि विचारत,बट बाढयो सागर-जल झेलत"
     
     ऐसा तो प्रलय-काल में होता है, यह कौन सी नई लीला है प्रभु की?  ब्रह्मा और शिव चिन्तित हो गये।
    "उछरत सिंधु,धराधर काँपत,कमठ पीठ अकुलाई"
    समुद्र उछलने लगा, पर्वत काँपने लगे, कच्छप की पीठ व्याकुल हो गई, अक्षय वट बढने लगा और देवता अत्यधिक शंकित-मन हो उठे।

   जब प्रभु ने देखा सभी भयभीत हैं- "करूणा करी, छाँडि पग दीन्हौं,जानि सुरनि मन-संस़य"
   देवताओं पर, सृष्टि पर कृपालु हो गये प्रभु और तुरन्त ही पग-अंगुष्ठ मुख से बाहर निकाल दिया।

   किंतु हमारे बृज वासियों के लिये यह कोई नई बात नहीं थी,उनके लिये तो यह नित्य प्रति होने वाली नटखट-से उनके लाल की एक मात्र एक खेलि-क्रीड़ा थी।

   "बृज-वासिनि यह बात न जानि"
    उन्होंने को केवल यही विचारा कि हमारा नटखट बालक खेल-खेल में पालने में पैर पटक-पटक कर अँगूठा मुख में डाल-डाल कर हर्षित हो रहा है-

    "प्रभु अंबुज लोचन, फिरि फिरि चितवत बृज-जन कोद"
   कमल-लोचन नटखट प्रभु बार-बार मुड़ मुड़ कर बृज जनों की ओर देख देख कर उन्हें अपनी क्रीड़ाओं से मुग्ध कर रहे थे।
धन्य है प्रभु की नित्य नई लीला!!
( डाॅ० मँजु गुप्ता)
[6:40pm, 15/05/2015] Satyajeet Bhawan:

जय श्री राधा कृष्ण

अति कोमल हरि सात दिवस के

कोमल सुकोमलता की प्रतिमूर्ति हरि अभी केवल सात दिन के हैं, अधर, चरण, हाथ अभी सब लाल लाल हैं। मैया अति सावधानी से लला को उठाती है, नर्म नर्म उबटन, हल्का गर्म स्नान, दुग्धपान कराके अति सुकोमलता से उन्हें उठा कर अति नर्म वस्त्र उन्हें उढा कर पालने में लिटा देती है एवं स्वयं लेटी-लेटी हल्की हल्की पालने की डोरी खींच कर अपने लला को मृदुल भाव से झुलाने लगती है।

श्यामसुन्दर की अरूणिम छटा से मैया मुग्ध व निहाल हो रही है। मंत्रमुग्ध सी मैया हलके हलके पालना झुलाने के साथ साथ अति मधुर स्वर में कुछ गा भी रही है-
   "मेरे लाल! पालना झूलो! अपने अप्रतिम सौंदर्य से पालने की शोभा बढ़ाओ।"
    "बृजराज ने इस पालने का निर्माण विशेष विधि से केवल तुम्हारे लिये ही करवाया है- "गढि गुढि ल्याऔ बढ़ई "

अनोखी सजावट करवाई है बृजराज जी ने इस पालने में, सोने के स्तम्भ,सोने की धरन और मरूणांडडे लगवा कर उनमें हीरे,मोती,माणिक्य जड़वाये हैं। पालना नवरत्नों से सुसज्जित है फिरोजा और मोतियों की झालरे एवं भिन्न भिन्न प्रकार के खिलौने भी पालने में लटक रहे हैं।

    "रत्नजडित वर पालनौ रेशम लागी डोर"

स्वयं विश्वकर्मा ने बढ़ई रूप धारण करके इस पालने का निर्माण मेरे लाल के लिये किया है।

"इक लाख माँगे बढई"   बढ़ई ने पालना गढ़ने के एक लाख माँगे।
"दुई लाख नंद ज़ू देहि"  बृजराज जी ने दो लाख स्वर्ण मुद्रायें दी उपहारस्वरूप हर्षित होकर।

"है वारि तव इंदु-वदन पर"  मैया  अपने लला के चंद्र मुख पर बलि बलि जाता रही है, आनन्दातिरेक से सरोबोर है। माता को भावातिरेक में मग्न देख कर सात दिन के नन्हें प्रभु भी बार बार उत्साहित होकर अपनी भुजायें माता की ओर फैलाते हैं-
  "उमंगि उमंगि प्रभु भुजा पसारत"

मैया के दृष्टिकोण से उनके पूर्वजनित पुण्य कर्म फलीभूत हो गये हैं- " पूरन भई पुरातन करनी"
साक्षात परमब्रह्म पालने में लेटे हैं और मैया बार बार विधिना को मना रही है- "पालागौ विधि ताहि बकी ज्यौं,तू तिहि तुरत बिगोई"

"मेरे लाल की रक्षा करना हे देव!
मेरा लाल द्वितीया के चंद्रमा की शीघ्र से शीघ्र बड़ा हो और लला को प्रतिदिन निरख निरख कर मेरे नेत्रों का सुख द्विगुणित हो।

मेरा लला कभी पालने में झुले,कभी बृजराज जी का गोद में। मैया बार बार बलिदारी जा रही है और तुरंत निकला अलौना माखन तनिक सा मीठा मिला कर  अपने लला को चटा रही है।

बृज के नर-नारी मुग्ध हो होकर लला को आशीर्वाद दे रहे हैं।
श्री नंदनंदन को पालने में झूलता देख देवता,मुनिगण आनन्द से प्रफुल्लित हो रहे हैं, आकाश से हर्षित होकर पुष्प वर्षा कर रहे हैं। पूरा आकाश गुंजायमान हो रहा है-
  "देखत देत मुनि कौतुक फूले,झूलत देखि नंद कुमार"
  हरषत सूर सुमन बरसत नभ, धुनि छाई जय जय कार"

अद्भुत चित्रांकन है महाकवि सूर दास जी की  लेखनी द्वारा।
( डॉ० मँजु गुप्ता )
[6:40pm, 15/05/2015] Satyajeet Bhawan:

जय श्री राधा कृष्ण

किलकत कान्ह घुटुरूवनि आवत

यशोदा मैया के मणिमय आँगन में कान्हा किलकारियाँ मारते हुये घुटनों चल रहे हैं।

"कनक-भूमि पद कर-पग-छाया, यह उपमा इक राजति"
                घुटुरूवनि चलते समय स्वर्णभूमि पर हाथों और चरणों का प्रतिबिम्ब ऐसा प्रतीत हो रहा है मानों पृथ्वी कान्हा के लिये प्रत्येक पदचाप पर, प्रत्येक मणि मे से एक एक कमल प्रकट
करके प्रभु के बैठने का आसन सजा रही है।
           इस अनुपम छटा के सौंदर्य से किंकर्त्वयविमूढ सी खड़ी मैया, सहसा चेत में आकर नंदबाबा को बुला कर उन्हें भी इस अतुलनीय छवि के दर्शन कराती है।

   "धूसरि घूरि दुँहु तन मंडित"
                  तनिक सी देर के लिये धूल वाले स्थान पर भी सरक गये,अत: रज-मंडित हो गये हैं। कभी धीरे धीरे सरकते हैं तो कभी -" हुलसि घुटुरूवनि धावत"   उल्लसित होकर अति तीव्रता से घुटनों से आगे का ओर भागने से लगते हैं।

" अखिल ब्रह्माण्ड -खंड की महिमा,सिसुता माहि दुरावत"
            प्रभु ने अपने अखिल ब्रह्मांड नायक होने महात्म्य को अपनी शिशुता में छुपा दिया है और यशोदा माता व बृजराज जी के लिये सुख का समद्र बन गये हैं।

    मणिमय आँगन में उनके मुख का प्रतिबिम्ब इस प्रकार प्रतीत हो रहा मानों मँडराते भौंरों के साथ निर्मल कमल जल में बहता जा रहा हो। घुँघराली अलकें से घिरी उनकी चंचल मुखाकृति को निरख निरख बृज-वनिता अपना तन-मन न्योछावर कर रहीं हैं।

       प्रेम और वात्सल्य की पराकाष्ठा यह है कि उन्हें देखने के लिये बार बार जा जाकर लौट आतीं हैं। तन-मन से पूरी भीग चुकीं हैं उनके प्रति वात्सल्य प्रेम में। अनजाने में ही उन्होंने अपने लिये मोक्ष का मार्ग प्रशस्त कर लिया है अपने प्रभु के प्रति गहन अनुरक्त भाव में डूब कर।

"धनि जसुमति बडभागिनी,लिये कान्ह खिलावत"
            प्रतिक्षण प्रभु उनकी गोद में रहते हैं- "अद्भुत शिशु क्रीड़ाओं" का अभूतपूर्व सुख दे रहे है  " लरखरात गिरि परत, चलि घुटुरूवनि आवत"

     तनिक सी देर के लिये जसुमति मैया लला को आँगन में खेलता छोड़ कर रसोईघर में गई है। लला को माँ से एक पल का भी वियोग असह्य है, संकेतों में,किलकारियों से, अस्फुट
स्वर से वह मैया को बार बार बुलाने लगे- "आपुन किलकत बोलत"
  
      मैया समझ गई और वहीं रसोईघर से बोली- "लला तू ही यहीं आजा न"
          मैया के मन में एक छुपी हुई अभिलाषा है कि इस बहाने मेरा लला मेरे पास दौड़ कर आने, जल्दी जल्दी चलने का प्रयास तो करेगा। लला शीघ्रतम चलना सीख जायेगा।

" बैन सुनत माता पहुचानी, चले घुटुरूवनि पाई"
          लला ने स्वर सुन कर ही अपनी मैया को पहचान लिया और तुरन्त मैया की आवाज़ की दिशा में तीव्र गति से घुटनों के बल घिसटते हुये दौड़ पड़े। निहाल हो गई मैया और तुरन्त दौड़ कर गोद में उठा कर आँचल से "धूलि-धूसरित" पूरा शरीर पोंछने लगी।

    मन के तारों को झंकृत कर देने वाली कैसी हृदयग्राही मनोरम अद्भुत शिशु लीला है, हरि-शिशु के तन की जो रज युगों युगों तक तप में रत तपस्वियों को उपलब्ध नहीं, उसे माता जसुमति अपने आँचल से पोंछ रही है। धन्य धन्य माता जसुमति !! धन्य धन्य कवि की लेखनी !!
( डॉ० मँजु गुप्ता )

जय श्री राधा कृष्ण

यमलार्जुन-उद्धार

नटखट कान्हा आँगन में ठुमक ठुमक चलते हुये मन-मंथन कर रहे हैं कि आज मैया को अत्यधिक रोष में कैसे लाया जाये और रोष भी क्रोध का रूप, जिससे मैया अपनी सहनशीलता त्याग दे। गोपियाँ कितने भी उलाहने दे जाये, मैया को कभी उनकी बातों का विश्वास कर मुझे दोषी मानती ही नही है। आज कुछ ऐसा करूँ कि मैया मुझे दोषी मान कर मुझेसजा दे। आज कान्हा को एक नवीन लीला जो करनी है। आज तो मैया को तनिक समय के लिये क्रोध दिलाना ही होगा ।

भोर होते ही एक गोपी उलाहना लेकर आ गई। उलाहना भी ऐसा कि मैया हतप्रभ और चकित रह गई। इधर नटखट कान्हा की करतूत से मैया रोष में है और गोपी के अनोखे उलाहने ने मैया के रोष में उद्दीपन का कार्य किया। आज मैया यशोदा ने अपने लाडले एक क्षण भी प्यार से नहीं समझाया, अपितु क्रोध में बोली-
            "गोपियाँ सत्य कहती है तू बहुत ऊधमी हो गया है। गोपी के वस्त्र फाड़ दिये, हार तोड़ दिया। कैसी दिखा दिखा कर मुझे उलाहने देकर गई है-कहती है बड़ों सूधौ पूत है मेरा, अब देख लो अपने सूधे पूत के लक्षण-"
                "-और मैंने क्या किया था तनिक सा तुझे गोद से उतार कर दूध देखने ही तो गई थी, इतने में ही सारी मटकियाँ फोड़ कर, सारे में माखन की कीच फैला दी।आज तुझे नहीं छोड़ूगी.....आज तो तुझे रस्सियों से बाँध कर ही रहूंगी"

यही तो चाहते हैं कान्हा, किन्तु प्रत्यक्ष में डर कर थर थर कापँने लगे और जोर जोर से रो लगे।मैया से बचने के लिये तीव्र गति से इधर उधर भागे भी, किन्तु अंत में मैया की पकड़ में आ ही गये। आज मैया के हाथों बधँना अति आवश्यक है एक लीला जो करनी है।

धन्य है यह बृज-भूमि, यहाँ प्रति पल, प्रति क्षण आनन्द ही आनन्द है। तीनों लोकों में इस आनन्द की कोई तुलना नहीं।यहाँ प्रत्येक घड़ी प्रभु की कोई न कोई लीला होती ही है। आठों सिद्धी, नवों निधि इस बृज-भूमि के द्वारा पर हाथ जोड़े खड़ी रहती हैं।शिव सनकादिक ऋषि एवं शुक देवादि परमहंसों को भी जिनके दर्शन दुर्लभ हैं, वही प्रभु यहाँ गोप-ग्वाल बालों, यशोदा मैया, नंद बाबा एवं बृज के प्रत्येक जन के साथ नित नई लीलाऐ कर रहे हैं।

मैया अति रोष में है, नन्हे कान्हा को रस्सी लपेट कर ऊखल से बाँधने का प्रयास कर रही है, किन्तु भला प्रभु किससे बंधन में बँधे हैं। मैया ने रस्सी ली, उसे कान्हा के गोलाकार लपेट बाँधने का प्रयास किया, रस्सी दो इंच छोटी पड़ गई, मैया खीज उठी-
             "यहाँ भी ऊधम कर रहा है पेट फुलाता है"- मैया ने उस रस्सी में एक और रस्सी जोड़ दी, वह भी दो इंच छोटी पड़ गई। मैया ने एक के बाद एक कई रस्सी जोड़ी, हर रस्सी दो इंच पड़ जाती है।
     मैया यशोदा रिस-रिस कर रस्सी खींच रही है, किन्तु नन्हे से कान्हा को बाँधने में सफल नही हो पा रही है। प्रत्यक्ष में नन्हे कान्हा के कमल-नयनों से मोटे मोटे आँसू ढुलक रहे हैं, किन्तु अपनी उद्देश्य पूर्ति में सहायक मैया के क्रिया-कलाप देख वह मन ही मन अति आन्नदित हो रहे हैं।

मैया द्वारा उनको बाँधने की असफल चेष्टा और खीज देख, नटखट कान्हा ने मन ही मन कहा-
           "मैं स्वयं ही बँधता हूँ मैया भक्तों के निश्छल प्रेम में, मुझे कोई बलपूर्वक नहीं बाँध सकता"-    और नन्हे  कान्हा बँध गये मैया यशोदा की वात्सल्य-रस-भीगी-ममतामयी रस्सी से-
          "मैया मुझे तो बधँना ही है, देवर्षि नारद के शाप से, कुबेर पुत्र यमलार्जुन का उद्धार करने के लिये"

लला को ऊखल से बाँध, वहाँ एकत्रित सभी जनों को डाँट डपट कर अपने अपने घर भेज, उदास मन मैया स्वयं भी भीतर आकर रोती रोती गृह कार्य करने लगी। बस इतना ही समय पर्याप्त है कान्हा को अपना उद्देश्य पूर्ण करने के लिये।ऊखल को खींच कर यमलार्जुन वृक्षों के सभीप ले जाना, वृक्षों को गिराना, दोनों असुरों को मुक्ति प्रदान करना-इधर कान्हा के सारे उद्देश्य पूर्ण हुये और मैया के हृदय में ममता का सागर पुनः हिलोरे मारने लगा।

दोनों विशाल वृक्ष भयंकर गर्जन के साथ धरती पर गिरे। नन्हे कान्हा भय से चीख मार कर जोर जोर से हिलकियाँ ले ले कर रोने लगे। मैया बदहवास पगलाई सी दौड़ी आई। पूरे बृज में वृक्षों के गिरने का कोलाहल गूँज उठा, बृजवासी पागलों की भाँति भागे आये। मैया यशोदा ने अपने लला को अपने वृक्ष भींच लिया-
          "हे दैव! क्या हुआ?   कैसे हुआ?  मेरा लला.....कौन से पुण्य भागों से बच गया"
                मैया यशोदा रो रो कर पश्चाताप कर रही है-"हाय मैने जिस रस्सी से तुम्हें बाँधा वह रस्सी जल जाये, जिन हाथों से तुम्हें बाँधा मेरे ये हाथ टूट जायें"
              बृज गोपियाँ बार बार नन्हे कान्हा को हृदय से लगा रहीं हैं-
    "इतना कोमल सुकमाल शरीर, इतने बड़े विशाल वृक्ष, लला दैव कृपा से ही बचा है"
                घर में कोहराम मचा है, बार बार कान्हा की नजर उतारी जा रही है, देवी देव मनाये जा रहे हैं। कान्हा तो लीला करने में चतुर हैं ही, अपनी इस लीला से उन्होंने अपने सभी भक्तों का मन मोह लिया है।
( डाॅ. मँजु गुप्ता)

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