अभी कल
अभी कल उतरा ही था
गहराईयों में कि चीख पडा
घडी दो घडी का सुकुं भी
मुझे क़बुल ना था
युं कुछ देर डुबे रहता
क्युं डुबाया उसने गहरा
कहीं कोई नई मुलाक़ात
या खामोशियों में
करनी थी बात
फ़कत छुने का ही
मन था शायद उसका
काश पूरा भीग पाता
घडी दो घडी वो पल जी पाता
देखता जरा गर्त के उन
हालातो को कहते क्या थे वो
सब चुप थे
कोई सिरहन भी ना थी
कोई बात उनके पास ना थी
शायद उन्हें छु रहा हो
नुर-ए-सुकुं ...
तृषित तू बस कह लें
कोई छुना चाहता है
चाहे तो जी लें या यूं ही
उलझा रहें बिखरती स्याही में
- सत्यजीत "तृषित"
Comments
Post a Comment