बेक़रार निगाहों से ...
बेक़रार निगाहों से व़क़्त से ही नहीं बेव़क़्त तेरा जो नाम लेना है
हर्ज़ की फिक्र नहीं , कोई सुने या ना सुने दीवारों से भी कहना है
आसमाँ गिरा है तू क़दमों में उनके , एहसान ही सही मेरा पैगामे दर्द़ देना है
या ज़हर बहुत पिया था कभी , गमे-क़ायनात तुझे कितना और निगलना है
ऐ हवाओं ज़रा ईश्क़ की सुनो , मुझे कुछ हालेद़िल और कहना है
उनसे जब भी मिलो लम्हाँ भर ही , हाल-बेहाल सरे-आम कहना है
ग़र ना आना है तुझे इस दफ़ा भी , कई तुफान- कहरों को और सहना है
ना भेज यें साँसें सुक़ुन ले महफिलों में कहीं , क़त्ल का ईल्ज़ाम भी हमें लेना है
पर ना जाने कैसी ख़ुशबु तेरी आती है और चली जाती है
तू होगा इक रोज मेरा ज़िदा हसीं ख़्वाब सजा जाती है
"तृषित" के जोर - शोर तो कभी के तेरी निगाहों में द़फ्न हुये है
तेरे रहमो - करमो पर ही तुझमें समाने के ईरादे फिर बुलंद है
आओगे इक रोज महसुस ही नहीं मुझे , हल्का सा हसीं दर्द़ तुम्हें भी हुआ है
सजू फिर रोज रुहे-आफ्ज़ से , व़क़्त मुक़म्म़ल हुज़ुर ने ही जो किया है ...
सत्यजीत "तृषित"
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