दुर्योधन का भाव
युद्ध अनिवार्य जानकर दुर्योधन और अर्जुन
दोनों श्री कृष्ण ने सहायता प्राप्त करने के लिए
द्वारका पहुँचे। नीतिज्ञ कृष्ण ने पहले दुर्योधन से
पूछा कि तुम मुझे लोगे या मेरी सेना को ? दुर्योधन
ने तत्त्काल सेना मांगी।
जिनसे युद्ध करना है , उनके ही मार्गदर्शक-सखा से
सहायता मांगना |
कृष्ण की सेना साधारण ना रही होगी | शत्रु परिवार
की सेना थी कृष्ण की सेना | कृष्ण सेना पर विपरित
हो कर भी नियंत्रण रख कौरव सेना का ही दमन कर
दें तो ... महाभारत में कई अनैतिकतायें हुई |
दुर्योधन ने यहाँ कितना विश्वास दिखाया है कि सेना
कौरवों के संग होकर नीनि गत ही युद्ध करेगी क्योंकि
यें कृष्ण सेना है | कृष्ण सैनिक जो कि कौरवों के योद्धा
है किस भांति अर्जुन के समक्ष अपने ही राजा के विपरित
लड सकें | कृष्ण ने जो गीता में कहा सेना ने उसे जिवंत ही
किया | आज्ञा का पालन | मान लें आप कृष्ण के योद्धा है
आपको कौरवों की तरफ से नीतिगत लडना है ... कृष्ण के
विपरित , क्या यें सहज है ?
कृष्ण सैनिकों की क्या मानसिकता रही होगी ? जबकि क्या
कृष्ण सैनिक यें नहीं जानते होगें कि जहाँ कृष्ण है वहीं जय होगी |
हमें तो नाहक मरने भर का आदेश मिला है ... यहाँ सेनिकों का भी
अटुट् प्रेम है ... विपरित आदेश की भी पालना | परन्तु कर्म विज्ञान
जैसे पढाया हो माधव ने वें पांडव विपक्ष , कृष्ण विपक्ष में लड सकें |
विचार करें कृष्ण सेना की मनोदशा का ...
अर्जुन का निर्णय तो सही है | जहाँ भगवान सारथी हो वहाँ असिद्धि
कैसे होगी | अर्जुन ने सब कुछ मांग लिया | कृष्ण ही सब कुछ है |
हम दुर्योधन की बात करते है जिसने विरोधी से समर्थन निर्भिकता
और विश्वास से मांगा | उसने ना सोचा कि कृष्ण सेना हमारे साथ
हुई तो युद्ध नीति गुप्त रह सकेगी या नहीं ... कहीं कृष्ण सैनिक भीतर
ही भीतर कौरवों का भंजन ना कर दें | यें सेना निष्ठा से युद्ध करेगी भले
कृष्ण स्वयं विपरित हो क्योंकि यें कृष्ण सेना है |
मित्र भाव में विश्वास सहज है , शत्रु भाव में विश्वास कठिन है | विकट
परिस्थितियों में आस्तिक भी डगमगा जाते है | प्रभु सदा सही है भले
अनिष्ट ही क्युं ना हुआ हो ऐसा मानना दुष्कर है | किस भांति दुर्योधन
ने इतनी आस्था दिखाई ! विचारणीय है ... यहाँ आप भी मनन करें |
कृष्ण , ब्रह्म या भगवान | क्या अपनी सेना को इन्होंने स्वयं से ही
विपरित मरवाने हेतु तैयार किया था | कृष्ण की जगह कोई भी होता
शत्रु को अपनी शक्ति रुपी सेना ना देता , कोई भी | भगवान किसी के
विरोध ही प्रतित हो विपरित की शक्ति भी उनकी अपनी ही है ...
बडी सहजता से वें अपनी प्रजा रुपी सेना का त्याग कर देते है ... अपना
शक्ति वें विपरित अर्थ में भी प्रेषित करते है | किसी को असहाय वें करते
ही नहीं | अर्जुन के लिये वें स्वयं उपस्थित थे , यें कृतज्ञता है तो
विरोध में भी अपनी सेना दे चुके थे , यह महाकृतज्ञता है | बडे भाई जी
उनके इस निर्णय से व्यथित हुये | जिस समय उन्होंने दुर्योधन को कहा
मेरी सेना तुम्हारी वें तब ही जानते थे मेरी सन्निधी मेरे दर्शन के पिपासु मेरे
योद्धा अब पराजित होने वाले पक्ष के कारण मारे जायेंगें | अपनी ही सेना
का भेदन करना कुटनीति से सहज नहीं | परन्तु यहीं से लीला विराम की
तैयारियाँ भी शुरु है ... अपनी ही लीला को प्रसारित कर ब्रह्म उसे अपने ही
में लीन कर लेते है | कृष्ण सदा वैराग्य में रहे है ... अपने ही तत्वों से वें
तिरोहित रहे | प्रकृति के नियम का खण्डन कभी होने देते | सापेक्ष-निरपेक्ष
उनका है और वें सब हेतु | कोई भौतिक दृष्टि से देखें तो कृष्ण की सेना तो
कौरवों के साथ और कृष्ण निहत्थे पांडवों के साथ | सात्विक दृष्टि से देखें तो
केवल कृष्ण ही लडें ... यही सत्य है ... सर्वत्र परमात्मा ही निहित है ,
जब भी प्राकृतिक विघटन कोई आपदा होती है तो सब सकते में आ जाते है |
हाँ अगर बस इतना मान लो कि ब्रह्माण्ड तो खेल सिर्फ ईश्वर का | जो भी दिख
रहा है सच नहीं है जो नहीं दिख पा रहा वहीं सच है ...
बचपन से एक बाल लीला हमने देखी है ... बच्चे समुन्द्र तट या कहीं मिट्टी में
घर-खिलौने बनाते है ... बडा समय लगता है फिर ख़ुद ही कुद-कुद कर तोड
देते है , यहीं बार-बार होता है | और यहीं ईश्वर करते है | केवल खेल भर है |
बच्चे तोडते है क्युं कि वें फिर बनाना जानते है |
सभी जगह कृष्ण सापेक्ष हो तो हम अर्जुन की ही तरह कृष्ण चाहेंगें , कृष्ण है
सर्वत्र | पहचान ना आने से हम दुर्योधन के पथ पर है |
अर्जुन आत्मा का और दुर्योधन माया में फँसे जीव का प्रतित है | दुर्योधन पर
द्वेषात्मक दृष्टि से पुर्व हम भी विचार कर लें कि क्या हमने निरपेक्ष से सामने
आये कृष्ण को जान उन्हें चुना या हमने भी ब्रह्म से उसकी शक्ति माया को मांगा |
सत्यजीत "तिृषत"
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