कवितायें

यूं लगता है
उन्हें भी याद आती है
उनकी बातों से
यादों की महक आती है

गर जोर तृण लगाता
उठना पाता
यें हवाओं की रहमत से होता
कि ना जाने कब उड जाता
कब सागर पार हो जाता
कब नभ स्पर्श हो जाता

चलती है जब भी युं हवा
लगता है उन्हें याद आई है

यें रसीली बातें उनकी
उनका मेरा होने का एहसास लाई है

सच ...
मेरे ना होते ...
तो युं ना होते ...
आपके ही विश्वास में
मेरी प्रेम डोर है कान्हा
जब आप उडाते हो
तब अलग बात होती है

कोशिशें ना करो
मेरी सहचरियों
देखों वो कितना
मधुर थामें है
जो हुये उनके
सारा संसार लिये
निहार रहे है

पलकें तो मेरी
पर्दा बन जाती है
उनकी नज़रें
किस तरह एक टक
निहारती है
मैं क्या देखुं अब उनको
सँज सँवर कर
वो जो देख रहे है ...
उठती भी नहीं
झुकती भी नहीं
दिल ही नहीं
वो निगाहों से भी
खेल रहे है ... तृषित

हाले दिल कहने की
युं रखी नहीं थी
एक क़सम और
यें भी खाई थी
पाणिग्रहण में
ना वो कहेंगें
ना हम कहेंगें
साथ रहेंगें
खामोश रहेंगें
पर कसुर अब
क्या दे उन्हें
एक तो वो
हदों में रहते नहीं
युं ही नज़रे घायल उन पर
फिर सँजते है तो
रुकते नहीं ...
हलचल सी मच जाती है
तुफां सा हो जाता है
और फिर उनकी बातें
कोयलें भी तिखी हो जाती है
अब कुछ कह भी दें
तो जोर कहा ख़ुद पर
बहुत रोका बादल बन
ख़ुद पर गरजे भी हम
अब टुट जाने का जी करता है
बह जाने का जी करता है
जिन हवाओं के ईश्क़ में बादल हुये
उन्हें भीगा देने का जी करता है
गिला बस इतना है
कि हम अब भी है
ना होते ...
बह रहे कही घाटियों में
काश हम ना होते
बस वो होते
चल बह चल सागर तक
कल एक होना है
पानी नहीं
कभी तो हवा होना है
सारी आरजु तो
उनमें डुब जाने को थी
सच क्युं होता है ऐसा
बहुत निकलते है
पर कम निकलते है
यें द़िल में भर कर अरमां
जान क्युं नहीं लेते है ... तृषित

रोज सोचती हूं
पीया से आज
कुछ ना कहूंगी
चूप होकर देखती रहूंगी
पर हर बार
मुझमें से ही वो
ना जाने क्या-क्या
कह जाते है .. तृषित

वो छुते रहे
हम रोते रहे
वो घुलते रहे
हम खिलते रहे
बारी आज उनकी
युं घुल जाने की
मेरी बारी की कब बारी
पुंछुं जो हँस कर लौट जाते

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