प्रश्नोत्तर
प्रश्नोत्तर
क्या करें?
वही करे जो करना है.
वो क्या?
बस न्यौछावर हो जाएँ. अपना कुछ भी बचा के ना रखे (सर्वतोभावेन पूर्ण-समर्पण).
कहाँ समर्पण?
प्रभु के चरणारविन्दों में
कैसे करें?
शरणागति
क्यों करें?
क्योंकि मानवमात्र को अपना कल्याण करना है. यहीं हमारे मनुष्य जीवन का परम और चरम लक्ष्य है. बस इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हमें यह मानव शरीर मिला है.
और क्या करें?
बस उनके होकर रह जाएँ.
वे मिलेंगे?
बेशक! दरअसल वे मिले बिना रह ही नहीं सकते, यदि कोई दिल से पुकारे तो. वे तो कब से प्रतीक्षा कर रहे है!
उनको पाने की पद्धति?
मिलने की उत्कण्ठा,
दर्शन की चाह और
चित्त में व्याकुलता.
पहले कभी किसी को मिले है?
हाँ. संतों की वाणी और शास्त्रों के वचन प्रमाण है. तत्त्व की दृष्टि से तो मिले ही हुए है, बस हमें ही उनकी विस्मृति हो गयी है.
वे मेरे कुछ लगते है?
निस्संदेह! तुम तो उनके ही अँश हो!
क्या वे मुझे चाहते है?
हाँ भई, ये भी कोई पूछने की बात है! वे तो तुम्हारे परम सुह्रद है. उनके जैसा दूसरा शुभचिंतक है ही नहीं.
तो फिर झट से क्यों नहीं दिख जाते?
Conditions apply!
वे चाहते है पहले कुछ prerequisite fulfill हो जाए.
कैसी prerequisite?
पहले तुम मेरे सन्मुख तो आओ. मुझे अपना तो मान लो. एक अनन्य भाव – “बस मेरे तो वो”
सनमुख होहि जीव जब मोहि,
जनम कोटि अघ नासहिं तबहि
उनको पाने का मोल बस यही है?
हाँ. केवल इतना सा ही.
वे “अमूल्य” है और “अमूल्य” ही मिलते है
(1st अमूल्य = इतने कीमती कि कोई उनका मूल्य आँक ही नहीं सकता;
2nd अमूल्य = मुफ्त में)
यह पथ तो बड़ा ही सुगम और सरल प्रतीत होता है!
हाँ. बिलकुल ऐसा ही है.
तो लोग फिर क्यों कहते है कि हमसे नहीं होता?
क्योंकि वास्तविक कारण तो यह है कि वे उन्हें चाहते ही नहीं!
हमारा काम तो ऐसे भी चल रहा है फिर हमें उनकी आवश्यकता क्यों है?
हमारी कुछ ऐसी मुलभूत आवश्यकताएँ है जिन्हें हम न तो हम अपने द्वारा पूरी कर सकते है और न ही सँसार से, जैसे कि -
(१) आशंका और भय से मुक्ति
(जो मिला है, कहीं छीन न जाए)
(२) जब छीन जाता है तो शोक से मुक्ति
(सभी दुःखों का नाश हो जाए)
(३) सत्-चित्त-आनंद की प्राप्ति
(a) सत् - मैं सदा रहूँ, कभी ना मरुँ
(b) चित्त - सब ज्ञात हो जाए, सदा के लिए अज्ञान मिट जाए
(c) आनंद - सर्वदा सुखमय जीवन, परम शांति-उल्ल्हास-आल्हाद
ओह अब समझा! तो हमें तो उनकी आवश्यकता है फिर वे मिलते क्यों नहीं?
(१) क्योंकि हम उनके बिना रह लेते है
(२) हम अपनी यथार्थ जरुरतों को भूले हुए है
(३) हमें यहाँ जो भी मिला है (वस्तु, योग्यता और सामर्थ्य), उसमें ही उलझे रहते है
(४) हम उनसे विमुख है
(५) "वासुदेवः सर्वम्" कहते तो है पर अहसास ही नहीं होता!
यदि आवश्यकता का अनुभव हो जाए तो?
फिर तो हम उनसे मिले बिना रह ही नहीं सकते और वे भी हमसे मिलने के लिए व्याकुल हो जाते है!
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