अबोधता ...और शिशुत्व
किसी का कहा सच भले ना हो
आपने जो जी लिया वो तो सच
है ही |
अनुभुत् करियें ...
जन्म से कोई ऐसा साथ जो सदा
रहा हो ... जन्म से पहले भी रहा हो
मृत्यु के बाद भी रहेगा |
हम आये जब यहाँ कैसे थे ...
क्या शंकायें थी ? क्या बोध था ?
क्या हमें कुछ आता था ? फिर किसने
हमें जीवन हेतु दूध पीना सिखाया |
किसने जन्म से पुर्व व्यवस्था की |
कितनी कांति थी तब ... और सौन्दर्य |
फिर कांति - सौन्दर्य - अबोधता
कम होती गई | कई रंग चढ गये ...
जिस रंग में आये थे वो छुट गया |
... प्रयासों से नहीं निश्चलता से पाया
जा सकता है ... बोध से नहीं ...
अबोधता से |
आप को चलना आता ही ना हो तो
माँ आपके साथ है ... चलने लगे
साथ छुटता गया |
शिशु को देखो ... जैसे छु कर आया
हो प्रभु को | इतनी निर्मलता चाहिये |
इतनी कोमलता , इतनी सादगी |
इतनी सच्चाई ...
दिये थे भी प्रभु यें सब | पर ...
हम समझ ना सकें | अब वहीं सब
चाहिये ... कुछ नया नहीं कर रहे ,
उनके लिये , वहीं करना है जो लाये थे |
ठीक वहीं | जितना शिशुत्व आया |
उतना पा सकोगे उन्हें |
कितना सरल सुत्र है ...
जैसे जन्में वैसे ही मरना है ...
बीच के जाल में ऐसे उलझे की छुटते गये |
पहले वस्त्र पहन लो फिर हटा दो ...
कोई एहसान नहीं हुआ उन पर ...
उन्हें तो ठीक वही चाहिये , वहीं बाल
स्वरुप | सब नया सा |
होना चाहते हो तो एक चीज पकड
लो अबोधता | बोध उनका भला |
हम अबोध भले | पकडा दो डोर |
जहाँ ले गये बेहतर ही होगा | ख़ुद
पर बडा विश्वास दिखा कर डुब गये है |
उन पर कर के देखो ...
शिशु की हरकते देखो और सीखो |
जितना छोटा बच्चा हुआ उतना सरल
प्रभुत्व है उसमें |
१० माह के बच्चे को अपनी सबसे
जरुरी किताब दे दो | एक पैन दे दो ...
उसे उस किताब की सौन्दर्यता , गहराई
से कोई लेना देना नहीं ... वो तो टेडी-
मेडी लकीरे खेच डालेगा | बिगाड देगा |
पर उसे लगेगा की किताब अब संजी है |
अब सही स्वरुप पाई है ...
यही हम करते है ... ईश्वर ने संसार थमा दिया
सब सुन्दर था पहाड , जंगल , नदी नाले सब
हसीन् और सही तरह से सही स्वरुप में थे |
हमें बोध मिला लग गये हर तरह से टेडी -
मेडी लकीरों में ...
बच्चा कुछ जरुरी किताब बिगाडे तो
उसे बिगाडने को वापिस ना मिलें ...
पर प्रभु बार - बार सारी कुदरत थमा देते है
बिन मांगें |... पर इन्सान् सदा गरीब | कुछ
नहीं उसके पास ...
सांसें ... मिली है | हमारी नहीं उनकी है |
हमारे बस में होता तो कभी रोकते ही ना |
मुफ्त की है ... शुक्रिया नहीं निकलता |
कृत्रिम सांसे एक दिन में लाखों खर्च करवा
देगी वो भी बिस्तर पर ... हिल ना सकोगें ,
सोचो कितना कुछ मिला है मुफ्त | एक दिन
सांसें खरीदनी पडी तब पता होगा ... ईश्वर
क्या है ?
तब भी इंसान ऐसे मांगता है उनसे कि
कि चैक बाउन्स हो गया हो ... उनकी चीज
कभी भी वो लें सकते है ... कोई किराया जमा
नहीं है | सब उनका ही है |
अबोधता जानें ...
क्षमा और धन्यवाद कहते रहे …
अपनी अबोधता से पता होगा | सब कुछ उनसे
है ... लोग कहते है कैसे इतना जानते हो |
अपनों को कौन नही जानता |
मैं गलत हो सकता हूँ , सब गलत हो सकते है ,
विधियाँ गलत हो सकती है ... सुना-पढा भी
गलत हो सकता है पर मेरे प्रभु कभी गलत नहीं
हो सकते ... कभी गलत नहीं होते | ना होंगें
जो नहीं मांग रहे उसे प्रभु हाथों से
खिला रहे है ... ऐसी लाखों योनियाँ है खुद
देखियें | सत्यजीत "तृषित"
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