स्याम दृगन की चोट बुरी री

स्याम दृगन की चोट बुरी री ||

सखी ! क्या कहूं  यें जो यशोदा के लाला कान्हा है ना  जब से इनसे नैन टकराये जब से कान्हा ने अपनी अखियन से देखा , तब से बूरा हाल है ... सब छुट सा गया है | वो तो ओझल हो गये पर अब जीया बस उसी समय पर अटक सा गया है |

हाय ! क्या कहूं ? कैसे कहूं ? बोरा ही गई जब नैना मिले , चित चोर की इन अखियन में ही टोना है | जिस पर गिरे वहाँ और कुछ रहता ही नहीं | एक ही रंग - एक ही दशा जहाँ श्याम देख भर लें , नैना मिल भर जायें तो फिर हम तो वहीं छुट जाती वही देह में भर जाता है |

ज्यों ज्यों नाम लेति तू वाकौ , मो घायल पै नौन पुरी री  ||

सखी इक तो नैनन से चोट लगी है , ना कह सकुं ऐसा दर्द मचल रहा है | फिर तेरा बार - बार वहीं नाम लेना हाय ! क्युं ऐसा कर रही हो ! जानती हो ना किसने मेरी दशा ऐसी की है , उसी मनहर का नाम | जहाँ से पीडा शुरु हुई वहीं दृश्य घुमने लगता है | अब मन ही नहीं जो सम्भल भर सके , वो भी तो चुरा ही लिया | तेरा एक - एक नाम श्याम का , मेरी घायलता को विहद कर रहा है ... तुम पीडा जान कर भी नमक ना डालो | अब तनिक ऐसी स्थिति नहीं की एक नाम और सह ही लूं ...

ना जानौं अब सुध-बुध मेरी ||

तुम मेरी स्थिति समझ नहीं पा रही | वरना पीडा का उपचार ही करती , तुमने तो वेदना को और असहनीय कर दिया | तुम अब नहीं जान सकती मेरी भीतर की तडप | मुझे तनिक भी सुध-बुध नहीं | सारा जीवन बिसर गया है , बस उसके नैना , उसकी मुस्कान ... होश उडा देने वाली उसकी बातें और मुखडा | अब क्या देखते बनेगा मुझसे जब मैंनें सारा जग एक मुखडे में जो देख ही लिया | कहाँ खोजुं उससे अधिक सौन्दर्य | सच कहूं मैं तो बौरा ही गई हूँ , क्या तुम मुझे जानती हो ? कौन हूँ मैं ? क्या तुम्हें मेरा घर पता है ? क्या मेरी दशा घर जाने सी है ?
या तुम यूं ही करो मुझे वहीं छोड आओ उस सलौने श्यामसुन्दर के पास | कहीं छिप कर निहारती रहूंगी | कोई ऐसी जगह तुम जानती हो जहाँ सदा वो सांवला मोहन आता ही हो | हाय रे मेरी दशा ! ऐसी तो मैं ना थी या तुम ही कहो मैं सदा ही बौराई हुई रही | तुम मुझे किसी दूर जंगल में ही छोड आओ ... अब वहीं दूरी शायद मेरी सांसों को सामान्य ही कर सके ... कौन बिपिन में जाय दुरी री || ... अधुरा प्रयास - सत्यजीत "तृषित"  ...

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