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[7:55am, 12/05/2015] Satyajeet Bhawan: जो भी तुम्हारे पास है, आंसू उनमें सबसे अनूठी बात है, क्योंकि आंसू तुम्हारे अंतस के छलकने का परिणाम हैं। आंसू अनिवार्यत: दुख के ही द्योतक नहीं हैं; कई बार वे भावातिरेक से भी आते हैं, कई बार वे अपार शांति के कारण आते हैं, और कई बार वे आते हैं प्रेम व आनंद से। वास्तव में उनका दुख या सुख से कोई लेना-देना नहीं है। कुछ भी जो तुमारी ह्रदय को छू जाये, कुछ भी जो तुम्हें अपने में आविष्ट कर ले, कुछ भी जो अतिरेक में हो,जिसे तुम समाहित न कर सको, बहने लगता है, आंसुओं के रूप में ।
इन्हें अत्यंत अहोभाव से स्वीकार करो, इन्हें जीयो, उनका पोषण करो, इनका स्वागत करो,और आंसुओं से ही तुम जान पाओगे प्रार्थना करने की कला।
[8:02am, 12/05/2015] Manju gupta fb: जय श्री राधा कृष्ण
देखौ धौं का रस चरननि में
नन्हें से कान्हा पालने में लेटे हैं,जसुमति मैया मधुर स्वर में गाती हुई हौले-हौले पालना झुला रहीं हैं। नटखट कान्हा मौन,चुपचाप न तो सो सकतें हैं और न ही अधिक देर कह सकते हैं। कोई न कोई लीला को उन्हें करनी ही है।
"जे चरनारविंद श्री भूषण,उर कें न टारति"
मेरे इन चरण-कमलों को लक्ष्मी जी अपने हृदय का आभूषण बना कर रखतीं हैं,एक क्षण के लिये भी इन्हें अपने उर से विलग नहीं करतीं- ऐसा क्या है मेरे इन चरणों में?"
यही विचार कर अति उत्सुकता से हरि ने अपने पैर का अँगूठा मुख में रख लिया-
"देखौ धौं का रस इन चरननि में,मुख मेलति करि आरति"
मेरे जिन चरण-कमल का रस पाने के लिये देवता व मुनिगण तप रत रहतें हैं- "सो रस है मौकँू कौ दुरलभ"
अपने इन चरणों का रसास्वादन तो मेरे लिये भी दुर्लभ है, मानों इसीलिये प्रभु अपने चरणारविंदों का स्वयं ही स्वाद ले रहे हैं। उनके लिये अब ये ही खेल हो गया है- "हरषि-हरषि अपने रंग खेलत"
इधर प्रभु ने अपनी नई लीला प्रारम्भ की, उधर सारे देवता भ्रम में पड़ गये-
"शिव सोचत,विधि बुद्धि विचारत,बट बाढयो सागर-जल झेलत"
ऐसा तो प्रलय-काल में होता है, यह कौन सी नई लीला है प्रभु की? ब्रह्मा और शिव चिन्तित हो गये।
"उछरत सिंधु,धराधर काँपत,कमठ पीठ अकुलाई"
समुद्र उछलने लगा, पर्वत काँपने लगे, कच्छप की पीठ व्याकुल हो गई, अक्षय वट बढने लगा और देवता अत्यधिक शंकित-मन हो उठे।
जब प्रभु ने देखा सभी भयभीत हैं- "करूणा करी, छाँडि पग दीन्हौं,जानि सुरनि मन-संस़य"
देवताओं पर, सृष्टि पर कृपालु हो गये प्रभु और तुरन्त ही पग-अंगुष्ठ मुख से बाहर निकाल दिया।
किंतु हमारे बृज वासियों के लिये यह कोई नई बात नहीं थी,उनके लिये तो यह नित्य प्रति होने वाली नटखट-से उनके लाल की एक मात्र एक खेलि-क्रीड़ा थी।
"बृज-वासिनि यह बात न जानि"
उन्होंने को केवल यही विचारा कि हमारा नटखट बालक खेल-खेल में पालने में पैर पटक-पटक कर अँगूठा मुख में डाल-डाल कर हर्षित हो रहा है-
"प्रभु अंबुज लोचन, फिरि फिरि चितवत बृज-जन कोद"
कमल-लोचन नटखट प्रभु बार-बार मुड़ मुड़ कर बृज जनों की ओर देख देख कर उन्हें अपनी क्रीड़ाओं से मुग्ध कर रहे थे।
धन्य है प्रभु की नित्य नई लीला!!
( डाॅ० मँजु गुप्ता)
[8:22am, 12/05/2015] Ashok Sharma FB:
"नारायण" - नाम - विचार -
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नारायण नाम मुझे बहुत प्रिय है , सो कुछ प्रिय मित्रों के लिए इसकी व्याख्या प्रस्तुत कर रहा हूँ -
नारायण शब्द में दो पद हैं - नार पूर्वपद है और अयन उत्तरपद |
'नार' पद के विविध दृष्टियों से विविध अर्थ हैं , जो आगे प्रस्तुत किये जायेंगे | प्रथम अयन शब्द पर विचार करते हैं |
'अयन' पद इण गतौ (अदादिगणीय ३५४ ) अथवा अय गतौ (भ्वादिगणीय ४७० ) धातु से भाव या कर्तृत्त्वादि अर्थो मे ल्युट् प्रत्यय करने पर निष्पन्न होगा |
गतेस्त्रयोsर्थाः -ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्चेति -यह प्रसिद्ध ही है | भाव मे तो इतिः आयो गतिर्वा अयनम् -गति का नाम अयन है |
कारकार्थ मे यन्ति अयन्ते गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति यं सोsयनः -जिसको प्राप्त होते हैं , वो अयन है |
अथवा - यन्ति अयन्ते गच्छन्ति जानन्ति वा येन सोsयनः -जिसके द्वारा किसी को प्राप्त होते है या जानते हैं , वो अयन है |
अथवा - यन्ति अयन्ते यस्मिन् सोsयनः - जिसमें गति करते हैं , जो सबकी सहज क्रिया का आधार है -आश्रय है , वो अयन है |
अर्थात् गति , गंतव्यस्थान , गतिसाधन , ज्ञानसाधन , आश्रयस्थान , शरण आदि को अयन कहा जाता है |
मनु ने अप् = आपः को नारा कहा है (आपो नारा इति प्रोक्ता ०) | नृ नये धातु से कर्तृत्व मे ण प्रत्यय ( ज्वलितिकसन्तेभ्यो ण - अष्टा ० ३/१/१४०) करने पर नार शब्द सिद्ध होगा | नार से स्त्रीत्व मे टाप् प्रत्यय ( अजाद्यतष्टाप् -अष्टा ० ४/१/३) करने पर नारा बनेगा |
नरयन्ति नृणन्ति नयन्ति संघातरूपतां पदार्थान् यास्ता आपो नारा - जो पदार्थ को संघात रूप प्रदान करते हैं , वे जल (आपः ) नारा कहलाते हैं |
अथवा - नरयति नृणाति नयतीति वा स नरोsग्निः -तस्य नरस्याग्नेः सूनवो नाराः आपः -नयन (मार्गदर्शन ) करने वाला अग्नि नर कहलाता है , उससे उत्पन्न जल (अग्नेरापः - तै० उप० २/१) उसके अपत्यवत् होने के कारण नारा कहलायेंगे |
नारायणमयनो नारायण: - अर्थात् उन नारा(आपः) का अयन (आश्रयस्थान) होने से नारायण हैं |
अथवा - नाराः आपः अयनं ज्ञानप्राप्तिसाधनं यस्य स नारायणः - जल (आपः) उस परमात्मा का ज्ञान प्राप्त कराने वाला है - उसकी महिमा की ओर संकेत करने वाले हैं , इसलिए वे नारायण हैं |
नरयति नृणाति नयति प्राणिनः कर्मफ़लानिति नरः परमात्मा - मनुष्यों को कर्मफल की ओर ले जाने के कारण परमात्मा नर है |
नरस्येमे मुक्ताजना: - उस नर (परमात्मा ) के भक्तजन (मुक्तावस्था प्राप्त ) जो लोग हैं , वे नार हैं | इस दृष्टि से नाराणामयनो नारायणः -उन मुक्तों के जो आश्रय स्थान या प्राप्तव्य तत्त्व परमात्मा हैं , उनका नाम नारायण है |
नर संबंधी जन्म या कर्मफल आदि को नार कहेंगे ( 'नरस्येदं नारम् ' तस्येदम् -अष्टा ० ४/३/१२० से अण् ) , उस नार (नरजन्म) अथवा कर्मफ़ल को जिसके आश्रय से प्राप्त होते हैं , वह परमेश्वर नारायण हैं |
न शब्द निषेधार्थक है अर कहते हैं पैनी या नुकीली वस्तु को , जो शरीर मे सहज प्रवेश करके चुभती हो या कष्ट प्रदान करती हो | इस सहज -प्रवेश - सादृश्य से अथवा कष्टप्रदानसाम्य से दोष भी अर या अरे कहलायेंगे | इस दृष्टि से -
अराः = दोषाः , न अराः (=नाराः=) = गुणाः , नाराणां गुणानामयनम् पराकाष्ठास्थानम् नारायणः - अर्थात् समस्त शुभगुणों का परमधाम परमात्मा नारायण है | , क्योंकि उसमें गुण ही गुण हैं , दोषों की गंध भी उसमें नहीं है |
इस प्रकार -
अविद्यमाना अरा दोषा येषु ते वेदा नाराः , तेषामयनो नारायणः |
अर्थात् सब् प्रकार के दोषों से रहित होने के कारण वेद नार हैं , उनका अयन (मुख्य उद्गम - स्थान ) होने से परमात्मा नारायण है |
रमणं रः (रमु क्रीडायाम् से बाहुलाकाद् भाव में ड प्रत्यय -रम् + ड =रः ) = आनन्दः |
न रः = अरः (अरमणम् ) शोको दुःखम् | न अरः = नारः ( नारमणम् ) = आनन्दः |
नारः = आनन्दः = अयनं स्वरूपं यस्य स नारायण : |
नार अर्थात् आनन्द ही स्वरूप है जिसका , वह परमात्मा नारायण है |
महर्षि वेदव्यास जी ने तो स्पष्ट रूप से नित्य निर्गुण परमात्मा का नाम नारायण बताया है -
तत्र यः परमात्मा हि स नित्यं निर्गुणः स्मृतः |
स हि नारायणो ज्ञेयः सर्वात्मा पुरुषो हि सः ||
(-महा० शा० ३५१/१४ )
श्री आद्य शङ्कराचार्य भगवान् कहते हैं कि -
नर आत्मा , ततो जातान्याकाशादीनि नाराणि कार्याणि तानि अयं कारणात्मना व्याप्नोति , अतश्च तान्ययनमस्येति नारायणः |
अर्थात् नर आत्मा को कहते हैं , उससे उत्पन्न हुए आकाशादि नार हैं , उन कार्यरूप नारों को कारणरूप से व्याप्त करते हैं , इसलिए वे उनके अयन (आश्रय वा घर ) हैं अतः भगवान् का नाम नारायण है |
नराणां जीवानामयनत्वात्प्रलय इति वा नारायणः " यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति ( तै० उप० ३/१) इति श्रुतेः , अर्थात् प्रलय काल में नार अर्थात् जीवों के अयन होने के कारण नारायण हैं | श्रुति कहती है - जिसमें कि सब जीव मरकर प्रविष्ट होते हैं , वह नारायण हैं |
कलियुग केवल नाम आधारा | सुमिरि सुमिरि नर उतरहि पारा ||
नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः नारायणाय नमः ..
[12:02pm, 12/05/2015] Manju gupta fb: जय श्री राधा कृष्ण
कुल पाँच बरस कौ मेरौ कन्हैया
" मेरौ कन्हया अभी कुल पाँच बरस और कुछ दिन का ही तो हुआ है और ये इन ग्वालिनों के यहाँ जाकर चोरी भी करने लगा, कैसे मान लूँ, झूठी कहीं की।"
वात्सल्य के भावातिरेक में मैया यशोदा, अपने लला को एक गोपी द्वारा दिये गये उपालम्भ से, आहत होकर रोष से भर उठी है और बिफरी पड़ रहीहै गोपियों के ऊपर-
" इहिं मिस देखन आवति ग्वा लिनि, मुँह फाटे जु गँवारि"
वह रोहिणी जी से कह रहीं हैं-"इन ग्वालिनों का कहीं जी नहीं लगता, बार बार मेरे लाल को देखने के बहाने ढूढतीं हैं, इसीलिए चोरी के मन गढंत आरोप लगाती हैं।"
"इतना नन्हा सा मेरा लाल, नन्ही नन्ही सी बाहें, कैसे छीके तक पहुँच गई, मेरे भोले लाल को दोष लगाती है। ग्वालिनों के यहाँ पहुँचने से पूर्व ही कैसे पहुँच गया मेरा लाल यहाँ इतनी शीघ्र । असंभव को संभव बताती है।"
मैया यशोदा किसी भी भाँति अपने लाल पर दोषारोपण स्वीकार नहीं करती । गोपी कह कह कर हार गई, किन्तु मैया ने उसे 'चुप कर मुँह फट गँवार '- कह कर चुप करा दिया।एक दूसरी गोपी ने नटखट कान्हा की सारी युक्ति यशोदा मैया के समक्ष वर्णन की-
"नंदरानी पतियायो हमारी बात, ऊखल के ऊपर पीढा रख कर चढ़ जाता है। नन्हा सा है तो क्या हुआ इसकी युक्तियाँ नन्ही नहींहै । एक सखा नीचे खड़ा किया और दूसरा उसके ऊपर कंधे पर चढा देता है।"
किंतु मैया दूसरी गोपी को और अधिक झिड़क देती है-"क्यों हठ पकड़े हुये है मेरे नन्हे से बालक को चोर ठहराने की।"
वात्सल्य में डूबी मैया यशोदा को इस समय गोपियों में ही समस्त दोष दृष्टिगत हो रहें हैं-
"अरे चार पैसे क्या कमा लिये तेरे मरद ने, सम्पत्ति का इतना अभिमान हो गया कि तुझे मेरा नन्हा सा अबोध बालक भी चोर लगने लगा ।"
रोष के वशीभूत वह गोपी से प्रत्येक प्रकार का तर्क व प्रत्येक प्रकार की बात कहने में भी पीछे नहीं रहतीं, गोपी ने मैया के लाडले को चोर जो कहने का अपराध जो कर डाला है-
"तू ही अपने सौंदर्य और यौवन के मद में मतवाली हो रही
है, धूर्त, निर्लज्ज। कहाँ मेरा नन्हा सा अबोध लाल और कहाँ तू? सारा दिन नयन चढाये घूमती रहती है, अब जा अपने घर चुपचाप ।"
बेचारी गोपी रुष्ट मैया का रोष देख सहम जाती है और तुरंत मौन हो जाती है। मैया यशोदा अपने लला को "मेरा अति लाडला निधनी का धन"- कहती हुई कान्हा की बलैया लेने और नजर उतारने में व्यस्त हो जाती है। भोली मैया नहीं जानती कि इन बातों पर विश्वास न करके उसने कितना बड़ा उपकार किया है गोपी के ऊपर - " अब कान्हा बार बार आयेगा मेरे यहाँ माखन चुराने"- मन ही मन यही सोच हर्षित प्रफुल्लित गोपी अपने यहाँ लौट आती है, पुनः कान्हा की माखन-चोरी भेंट प्रतीक्षारत ।
(डाॅ.मँजु गुप्ता )
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