मैं अछुत हूँ
मुझे ना छुना !!
मैं अछुत हूँ !!
हाँ , ना छुना
क्युं छुना है तुम्हें
तुम्हारी हूँ सो ...
हाँ हूँ तुम्हारी
थी तुम्हारी
रहूंगी तुम्हारी
पर ना छुना
सच ! मैं अछुत हूँ
छुटी थी जब तुमसे
बिखरी थी धरा पर
तब तुम्हारी महक
आती थी सदा मुझसे
अंग-अंग सँवरा था तुमसे
अब कुछ नहीं वैसा
रंग और चढे है , देखो
मलीनता टपकती है पल-पल
इस दुर्गंध को लेकर कैसे आऊं
हाँ भुल हुई
उसे भुलाया
जिसने सजाया
मेरे तो हर जोर ने
दलदल में ही गिराया
अब दूर खडा जग
देखो तो सही
कितना मधुर हँस रहा है
और तुम !
तुम मुझे ना भुले
थी तुम्हारी क्युं ना भुले
इतना प्रेम
पर
ना
छुना ना
अब वो सब कहाँ
तुम इतनेे कोमल
पुष्प छुलो
चुभ जाये तुम्हें
और मैं
रोम रोम कांटों सा
ना ...
छुना ना
सजा दो मुझे
मैंने कैसे तुम्हें बिसारा
कुछ-कुछ याद सा है
वो मधुरता
वो निर्मलता
वो छिंटे तुम्हारे गिरे थे जो
दिखते थे
पर
सच कहूं ...
बडी शिद्दत से हटाया
श्रृंगार जो किये थे तुम
खुद मैंनें अपने हाथों से
अब देखो भी ना मुझे
हाँ , होगा प्रेम गहरा तुम्हारा
पर मैं अब कीचड में हूँ
ना दूंगी हाथ तुम्हें
अपने शौक गिरी थी
होश में डुबी थी
तुम वापिस लो अपना हाथ
कोमल हो तुम
काले मन कब तक धोते रहोगें
देखो जरा शीशा
चढा क्या रहे हो तुम
मैं ना दूंगी हाथ तुम्हें
कीचड में सन चुका सब
और तुम इतने पावन
पहली बार छुओगे मुझे
क्या दूंगी तुम्हें
मेरी मलीनता
यें कालिख
ना
युं तो कभी ना
हूँ तुम्हारी
है प्रेम
तभी कहती हूँ
यूं नहीं
कैसे तुम्हें ...
मोहक हो तुम
और चितवन ऐसी
कि सोच कर बावरी हो जाऊं
पर
ऐसे मिलुं तुमसे
ना ... ना ... मिलुं
अब रोने दो उम्र भर
खोया है तुम्हें
तुम अब भी अपना रहे हो
ऐसा प्रेम निभा रहे हो
तो मैं भी प्रेम की हूँ
मैं अछुत हूँ
निर्मल नहीं
जाओ पुष्पों को छुओ
कांटें तुमने ना बोये
हटो यहाँ से
कुछ चुभ भी गया
तो
मर ही जाऊंगी
जाओ
मिलना है मुझे भी
पर
जैसे तुम भेजे
जैसे तुम छोडे
वैसे
वरन् मर जाने दो
यें सडांध मेरी अपनी है
हूँ मैं तृषित
सदा रहूँगी
तुम्हारी हूँ
सदा रहूँगी
पर मलीन हूं
कैसे मिलुंगी
पल भर में
तुम हटा दोगे मल सारा
धो डालोगें मुझे
पर क्युं
हाय ! कैसे भुली मैं
जब तुम ना भुलें
रंग तुम्हारा कैसे धुला मुझसे
और अब यें कुरंग में तुम
देख क्यूं रहे हो मुझे
ना देखो
ना छुओ
ना चाहो
मैं मलीन हूँ
मैं अछुत हूँ
फिर कहती हूँ
मुझे ना छुना
मैं अछुत हूँ ... सत्यजीत "तृषित"
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