राधा जी के भाव

वो जो हैं, जहाँ हैं, जैसे हैं, मेरे हैं। मैं जो हूँ, जहाँ हूँ, जैसी हूँ, उनकी हूँ।
यदि वे आराधक हैं, तो मैं राधा हूँ। वे निशा हैं, तो मैं कालिमा हूँ। वे श्याम हैं, तो मैं श्यामा हूँ। वे प्रकाश है तो मैं रश्मि हूँ। वे चन्द्र हैं, तो मैं ज्योत्स्ना हूँ। वे सूर्य हैं, तो मैं किरण हूँ। वे शरीर हैं, तो मैं प्राण हूँ। वे मन हैं तो मैं मनन हूँ। वे बुद्धि हैं, तो मैं निर्णय हूँ। वे चित्त हैं, तो मैं जीवन हूँ। वे धारणा हैं, तो मैं धर्म हूँ। वे किसी काल, किसी देश, किसी अवस्था मे मुझसे पृथक होने संभव ही नही हैं।

सखी, प्रियतम और मैं दो है ही नहीं, मैं हूँ ही नहीं, प्रियतम ही प्रियतम हैं। प्रियतम हैं ही नहीं, मैं ही मैं हूँ। परंतु प्रीति के लिए मैं प्रिया वे प्रियतम हो जाते हैं। मैं उन्हे प्रेम करती हूँ, और वे मेरे प्रेम का भोग करते हैं। वे संयोग और वियोग के भोक्ता हैं। फिर तू इतनी क्यों दुखी है। जब मैं उनसे वियुक्त होती ही नहीं, हो पति ही नहीं, फिर उनकी अपनी इच्छा से मुझे वे त्यागे, या भोगें। यह उनकी ही रुचि तो है। वे अपनी रुचि के अनुसार सुखी हों। यही तो मेरे अस्तित्व का अर्थ है। फिर तू क्यों दुखी है।

सखी! मुझे न जाने क्या हो गया है। जब मैं नेत्र खोलती हूँ, तो उन्हे बाहर देखती हूँ। और जब मैं नेत्र बंद करती हूँ, तो वे मेरे भीतर मुझमे भरे दिखते है। मैं चलती हूँ, तो उनके संग। बैठती हूँ, तो उनकी गोद मे। मैं खाती पीती, सब कर्म उनके संग ही करती हूँ। उनका प्यार ही मेरा अस्तित्व है। अनेक रूप, अनेक विधान, अनेक व्यक्तियों के रूप मे वे मुझे ठगने की चेष्टा करते है, पर सब समय मेरा प्रेम उनका छल मिटा देता है।

सखी! जैसे समुद्र मछली के ऊपर नीचे, दायें बाएँ आगे पीछे, भीतर बाहर भरा है। वैसे ही मैं उनकी सर्व और से शरण हूँ। वे मेरी पूरी शरण है। मैं गोरी काली, सुरुपा कुरूपा, सद्गुनी दुर्गुणी, भली बुरी उनकी हूँ। और वे जैसे भी है मेरे हैं। वो जो हैं, जहाँ हैं, जैसे हैं, मेरे हैं। मैं जो हूँ, जहाँ हूँ, जैसी हूँ, उनकी हूँ

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