रामु न सकहिं नाम गुन गाई
रामु न सकहिं नाम गुन गाई
उड़िया बाबा, हरि बाबा, हाथी बाबा और आनंदमयी माँ परस्पर मित्र संत थे। एक बार कोई आदमी उनके पास आया और बोलाः
"बाबाजी ! भगवान के नाम लेने से क्या फायदा होता है?"
तब हाथी बाबा ने उड़िया बाबा से कहाः
"यह तो कोई वैश्य लगता है, बड़ा स्वार्थी आदमी है। भगवान का नाम लेने से क्या फायदा है? बस, फायदा-ही-फायदा सोचते हो ! भगवन्नाम जब स्नेह से लिया जाता है तब 'क्या फायदा होता है? कितना फायदा होता है?' इसका बयान करने वाला कोई वक्ता पैदा ही नहीं हुआ। भगवन्नाम से क्या लाभ होता है, इसका बयान कोई कर ही नहीं सकता। सब बयान करते-करते छोड़ गये परंतु बयान पूरा नहीं हुआ।"
भगवन्नाम-महिमा का बयान नहीं किया जा सकता। तभी तो कहते हैं-
रामु न सकहिं नाम गुन गाईं।
नाम की महिमा क्या है? मंत्रजाप की महिमा क्या है? भगवान जब खुद ही इसकी महिमा नहीं गा सकते तो दूसरों की तो बात ही क्या?
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा।।
ऐसा तो कह दिया, फिर भी मंत्रजाप की महिमा का वर्णन पूरा नहीं हो सकता।
कबीर-पुत्र कमाल की एक कथा हैः
एक बार राम नाम के प्रभाव से कमाल द्वारा एक कोढ़ी का कोढ़ दूर हो गया। कमाल समझते हैं कि रामनाम की महिमा मैं जान गया हूँ, किंतु कबीर जी प्रसन्न नहीं हुए। उन्होंने कमाल को तुलसीदास जी के पास भेजा।
तुलसीदासजी ने तुलसी के पत्र पर रामनाम लिखकर वह पत्र जल में डाला और उस जल से 500 कोढ़ियों को ठीक कर दिया। कमान ले समझा कि तुलसीपत्र पर एक बार रामनाम लिखकर उसके जल से 500 कोढ़ियों को ठीक किया जा सकता है, रामनाम की इतनी महिमा है। किंतु कबीर जी इससे भी संतुष्ट नहीं हुए और उन्होंने कमाल को भेजा सूरदास जी के पास।
सूरदास जी ने गंगा में बहते हुए एक शव के कान में 'राम' शब्द का केवल 'र' कार कहा और शव जीवित हो गया। तब कमाल ने सोचा कि 'राम' शब्द के 'र' कार से मुर्दा जीवित हो सकता है – यह 'राम' शब्द की महिमा है।
तब कबीर जी ने कहाः
'यह भी नहीं। इतनी सी महिमा नहीं है 'राम' शब्द की।
भृकुटि विलास सृष्टि लय होई।
जिसके भृकुटि विलास मात्र से प्रलय हो सकता है, उसके नाम की महिमा का वर्णन तुम क्या कर सकोगे?
अजब राज है मुहब्बत के फसाने का।
जिसको जितना आता है, गाये चला जाता है।।
पूरा बयान कोई नहीं कर सकता। भगवन्नाम की महिमा का बयान नहीं किया जा सकता। जितना करते हैं उतना थोड़ा ही पड़ता है।
नारद जी दासी पुत्र थे – विद्याहीन, जातिहीन और बलहीन। दासी भी ऐसी साधारण कि चाहे कहीं भी काम पर लगा दो, किसी के भी घर में काम पर रख दो।
एक बार उस दासी को साधुओं की सेवा में लगा दिया गया। वहाँ वह अपने पुत्र को साथ ले जाती थी और वही पुत्र साधुसंग व भगवन्नाम के जप के प्रभाव से आगे चलकर देवर्षि नारद बन गये। यह सत्संग की महिमा है, भगवन्नाम की महिमा है। परंतु इतनी ही महिमा नहीं है।
सत्संग की महिमा, दासीपुत्र देवर्षि नारद बने इतनी ही नहीं, कीड़े में से मैत्रेय ऋषि बन गये इतनी ही नहीं, अरे जीव से ब्रह्म बन जाय इतनी भी नहीं, सत्संग की महिमा तो लाबयान है। जीव में से ब्रह्म बन गये, फिर क्या? फिर भी सनकादि ऋषि सत्संग करते हैं। एक वक्ता बनते और बाकी के तीन श्रोता बनते। शिवजी पार्वती जी को सत्संग सुनाते हैं और स्वयं अगस्त्य ऋषि के आश्रम में सत्संग सुनने के लिए जाते हैं।
सत्संग पापी को पुण्यात्मा बना देता है, पुण्यात्मा को धर्मात्मा बना देता है, धर्मात्मा को महात्मा बना देता है, महात्मा को परमात्मा बना देता है और परमात्मा को.... आगे वाणी जा नहीं सकती ।
मैं संतन के पीछे जाऊँ, जहाँ जहाँ संत सिधारे।
हरि को क्या कंस को मारने के लिए अवतार लेना पड़ा था? वह तो 'हृदयाघात' से भी मर सकता था। क्या रावण को मारने के लिए अवतार लिया होगा रामचंद्रजी ने? राक्षस तो अंदर-ही-अंदर लड़कर मर सकते थे। परंतु इस बहाने सत्संग का प्रचार-प्रसार होगा, ऋषि-सान्निध्य मिलेगा, सत्संग का प्रसाद प्यारे भक्त-समाज तक पहुँचेगा।
परब्रह्म परमात्मा का पूरा बयान कोई भी नहीं कर सकता क्योंकि बयान बुद्धि से किया जाता है। बुद्धि प्रकृति की है और प्रकृति तो परमात्मा के एक अंश में है, प्रकृति में तमाम जीव और जीवों में जरा सी बुद्धि, वह बुद्धि क्या वर्णन करेगी परमात्मा का?
सच्चिदानंद परमात्मा का पूरा बयान नहीं किया जा सकता। वेद कहते हैं 'नेति नेति नेति....' पृथ्वी नहीं, जल नहीं, तेज नहीं, नेति.... नेति...., वायु नहीं, आकाश भी नहीं, इससे भी परे। जो कुछ भी हम बने हैं, शरीर से ही बने हैं और शरीर तो इन पाँच भूतों का है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पाँच भूतों से ही तो इस सचराचर सृष्टि का निर्माण हुआ है। मनुष्य, प्राणी, भूत-जात सब इसी में तो हैं। वह सत्य तो इन सबसे परे है अतः उसका बयान कैसे हो?
उसका पूरा बयान नहीं होता और बयान करने जब जाती हैं बुद्धियाँ तो जितनी-जितनी बयान करने जाती हैं उतनी-उतनी 'उस' मय हो जाती हैं। अगर पूरा बयान किया तो फिर वह बुद्धि, प्रकृति की बुद्धि नहीं बचती, परमात्मरूप हो जाती हैं। जैसे, लोहा अग्नि के निकट जाय, कोयले उठाये तब तक तो ठीक है परंतु अग्नि में रख दो उसको, तो लोहा अग्निमय हो जायेगा। ऐसे ही परमात्मा का बयान करते-करते बयान करने वाला स्वयं परमात्मामय हो जाता है। संकलन - सत्यजीत "तृषित"
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