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प्रेम और कुण्ठा , तृषित

कुण्ठाओं के उस पार खड़ा वह मेरा चेतन  ... प्रेम सम्मिलन !!! बद्ध परतन्त्र ... यह विलासचर  पुनः - पुनः खोजता है अवसर  ... जब हिय के वें कल्प-क्षण सुरभित दीप्त हो उठें  तब ही तो है ... उत्सव  ... उत्सव और उत्सव उत्सवों की बढती मदिरा में  ... स्पर्श हो ... पुलकते वें ... ललित मकरन्द !!!  कितना विचित्र है यह द्वेत  ललित स्पर्श और प्रपञ्च  प्रेम अथवा कुंठाएँ  नहीं ... वह ऊष्ण कुण्ठित प्राण वेग  ... बन्धन है !!! सर्वत्र सहज नित्य सुरभित प्रेम पँक की संस्मृतियाँ ही  है मेरा मूल जीवन  ऐसे बंकिम ललितांकन को पाकर भय है ... प्रति निकट होती कुण्ठाओं सँग यें जड़ खण्डन झरें तो वें ललित रँग मण्डन चढ़ें  ... ... तुम भी तो आतुर हो  निजतम दर्पण संस्पर्श हेत अतृप्त अधीर छायाबद्ध कब से हो  ... दाहित कुण्ठाओं के सन्निकट तुम सुक्षुप्त निद्रामय रहना  ... सहज सरस ललित उत्सवों के स्वप्नविलासों में थिरकना ...  ... सावधान !!!  अपने ही हृदय में छिद्र ना करना  ... पीड़ाओं के वितरण में चेतन कुण्ठा ना रखना ।  अवश्य .....

उत्सव , युगल तृषित

*उत्सव* आनन्द का विपुल समुद्र है उत्सव  चेतना की नित्य चेतन लालसा है उत्सव  जाग्रत स्वप्न सुक्षुप्ति का दिव्य पारितोष है उत्सव  रसमय प्रेमिल तटों के मध्य बहती नदी है उत्सव  सच्चिदानंद अभामण्डल का संस्पर्श है उत्सव  सहज शरणागत का नित्य जीवन है उत्सव  कर्तापन सहित श्रम में अदृश्य है उत्सव जबकि दासत्व भरित सेवाओं से और मधुरित होता है उत्सव  शोर - कौलाहल से परे प्रशान्त कलरव सलिताओं से उमंगित है उत्सव  ललित चेतन सुगन्ध और अनुराग की मधु वर्षा है उत्सव  द्वन्द और प्रपञ्च की संरचनाओं में आभासित होकर भी अस्पर्शित है उत्सव (जैसे ना बरसने वाले बादल) दो लहराती ललित वलित लतावत चेतनाओं के मध्य सुरँग लास्यमय केलि है उत्सव  प्रायः अदृश्य है उत्सव और सार्वभौमिक तृषित लालसा है उत्सव  रसिक प्रेमियों के आश्रय में पुलकित फलित रँगमय मधुरित है उत्सव  *युगल तृषित*