सहज , तृषित
सहज रस कुँज हो या नवधा आश्रय यह *सहज* सर्व उत्कृष्ट स्थिति है । मै सहज हो सकता हूँ क्या ?? नहीँ *मैं* कभी सहज नहीं हो सकता । सहजता की वास्तविकता यह है कि सहजता स्वयं में दर्शनीय हो नहीं सकती । स्वयं में सहजता तलाशना ही असहजता है । सहजता है ... आप सहज हो , वह सहज है , यह सहज है , सब सहज है । मैं असहज हूँ । यहीं सहजता का दर्शन होना है । सहज को सहजता ही दर्शन देती है । इसलिये जब तक तुम मुझे सहज न लगने लगो , मुझमें सहजता है यह भृम होगा । और वक्ता , लेखक कभी सहज नहीं हो सकता जब तक कि उनका अन्तस् स्वयं के चिंतन की एक बिन्दु भी छुवे हो । पाठक - श्रोता अवश्य सहज पथ पर है ... सेवक - अनुचर - परमार्थी अवश्य सहजता की ओर है , अतः मैं कभी सहज हुआ तो तुम सहज दिखोगे और तुम दिखने लगे सहज तो स्वप्न में भी मेरे प्राण तुम्हारे अन्तः रस भावार्थ तृषित रहेंगे । सहजता दर्पण है जो अपना स्वरूप नहीं जानता , सन्मुख को ही स्व में पा सकें । सहज नेत्र , सहजता ही देखते है । सहज कर्ण सहजता ही सुनते है । सहज वाणी सदा सहज ही रहती है । सहजता मुझमें हो नहीं ...