सहज , तृषित
सहज
रस कुँज हो या नवधा आश्रय यह *सहज* सर्व उत्कृष्ट स्थिति है ।
मै सहज हो सकता हूँ क्या ??
नहीँ *मैं* कभी सहज नहीं हो सकता ।
सहजता की वास्तविकता यह है कि सहजता स्वयं में दर्शनीय हो नहीं सकती । स्वयं में सहजता तलाशना ही असहजता है ।
सहजता है ... आप सहज हो , वह सहज है , यह सहज है , सब सहज है । मैं असहज हूँ । यहीं सहजता का दर्शन होना है ।
सहज को सहजता ही दर्शन देती है । इसलिये जब तक तुम मुझे सहज न लगने लगो , मुझमें सहजता है यह भृम होगा ।
और वक्ता , लेखक कभी सहज नहीं हो सकता जब तक कि उनका अन्तस् स्वयं के चिंतन की एक बिन्दु भी छुवे हो ।
पाठक - श्रोता अवश्य सहज पथ पर है ... सेवक - अनुचर - परमार्थी अवश्य सहजता की ओर है , अतः मैं कभी सहज हुआ तो तुम सहज दिखोगे और तुम दिखने लगे सहज तो स्वप्न में भी मेरे प्राण तुम्हारे अन्तः रस भावार्थ तृषित रहेंगे ।
सहजता दर्पण है जो अपना स्वरूप नहीं जानता , सन्मुख को ही स्व में पा सकें । सहज नेत्र , सहजता ही देखते है । सहज कर्ण सहजता ही सुनते है । सहज वाणी सदा सहज ही रहती है । सहजता मुझमें हो नहीं सकती जब तक मुझमें मैं हूँ ... सहज प्रेम की अवस्था है ... क्या फूल- पंछियों में सहजता नहीं प्रकट ... सहज जानता नहीं कि वह सहज है , और जो सहज यह जाने कि वह सहज है तो वहाँ सहज होने का अभिनय या प्रयास भर है । हाँ सहज देखता कि बस वह असहज और सब ...सब सहज है । और यह सहजता ही प्राप्त नहीं होती , मिलती तो है परन्तु सारी यात्राएँ असहजता कि ओर जाती है (असहजता अर्थात् व्यर्थ के बनावटीपन)। सहजता तो मूल बिन्दु था ... वहाँ पहुंचने के लिये लौटना होता ही नहीं । युगल तृषित ।
जहाँ सहजता होती है , वहाँ दिखाई सहजता ही देती है । और सहज को वहाँ असहजता दिखती ही नहीं । अतः वह सहज स्थिति है । और श्री प्रभु का स्वरूप-स्वभाव सहज है सो सहजता तक जाने की व्याकुलता हमारे भीतर हो । असहजता का त्याग ही सहजता का की और विकास है । असहज होना छोड़ना होगा । परन्तु क्या मैं सहज हूँ , यह भाव न हो । जब सर्वत्र सब सहज लगे तो सहजता प्रवेश हो गई । सर्वत्र सहज अनुभव सरल नहीं है , यह सरल होता तो क्यों कोई भागता कभी महल से असहज होकर वन आदि में पर्यटन और वन के जीवन से असहज होकर महल के भोग विलास चाहता । दृष्टि सहज हो हमारी ... सहजता तो नित्य ही उड़ - बह - बरस - झूम रही है । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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