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Showing posts from October, 2021

झुमहिं री ! सरस ललित कौंस छायौ , trishit

Do not Share  *झुमहिं री ! सरस ललित कौंस छायौ* *आजहूँ मधुरा जू माधव मधुर , मधु राग हिंडोलै ख्याल षट ऋतु विलास फूलै नव-नव रँग बरसायौ* *भरि भरि कृष्ण लास रस गौर मदन कम्प कौ मदिर शीतल मोहै उत्सव मद सरसै आयौ* *रस रङ्ग सङ्ग अलिन हित अरुण कपोल मधुपँक दृगनि सुख इत-उत झुमायौ* *मंग मोतिनु हार नीलाम्बुर हँसि हँसि करिनु अंगुरिन पेंच  झरिण राग खुबहिं लड़ायौ* *हुलसै अलिन कलित  शरद तुरङ्ग धमार पै जाड्यौ द्वार उघारै नवब्यार सँग श्रृंगार कौंस गायौ* *स्यामल-ललकी वेणी कबरी गुँथित केशनि कुसुमनि  नीलारुन पीत कटिनि बाँध कलहँसनि सिहरायौ* *सरद लजाई  चंद्र लजाह्यौ लाजहिं नछत्र तारिका सुतन सुरभ खण्डनि खण्ड लास रिसाह्यौ* *प्रेम केलि कौ निज सरूप मदन बन्यौ घनसार कौ मदिर प्यार गर्जन रजत-गुलाल ढुरकायौ* *सनन सन सन सरित तथई तत्थई थकहिं चरकै झरकै झण झँकै बहु नर्तन थिरकायौ* *नव केलि विलास तैई नवल सिहरन कैई नवनीत झारिन मैई मधुर कन्द परस शिशिरायौ* *उर अंतर थिर थिर कम्पै मधुपँक पँक पँकै रङ्गीलो तुंदिका लोभिनि लोभ कूप हेत लुभायौ* *पुलकै हुलकै सुख सरसावली अलिन परख निरख निज अनुराग झाँझ मुदित बहु मोद ल...

कैशोर्य उत्स , तृषित

 *कैशोर्य उत्स* किशोरित उत्स हेत प्राण निधि है शीतलता । लौकिक रीतियाँ भी जाती हुई शीतलता का यजन कर सविनय ऊष्ण सुखों का यामिनी में रँगा निर्माल्य भोग लगाकर जताती है शीतल वाञ्छा । कैशोर्य उत्स अनुभवित दशाएँ सहज शरदित है । किशोरता को लग रही जब बिहाग उत्स लालसा । स्वयं लीला जब शीतल स्पर्श है तब ही शरदाईं है ...लीला का निज कौमार्य है यह सुन्दर होती ... झूमती मधुर सरस शीतलता । भावरसिकों के मधु लोभी नयनों में सहज पावस हो बरसने लगती हो जब श्यामल अनुराग की लीलाकृतियाँ । अतिव सहज है शरद आगमन पर ललित लीला आगमन । सारित-सरित श्रृंगारों में सहज मुग्ध विलास की सुभग यात्रा है , जिसमें नित सरस होती साँझ की ज्योत्स्नाओं की पुलकताओं ने भजा है मदिर स्पर्शों से प्रकट लास्याँकन । नवीन शीतलता का यह विलास सहज घुमड़ता है और बढ़ती शीतलता सँग बरसती है परिमलित सुरँग ललिताईं । प्रेम जड़ - स्थूल पदार्थ नहीं , अपितु झूमती - सिहरती - पुलकती - फूलती - शिशिरित - गलित तरँग की ललित मुद्रा झारी है ...श्रीप्रेम । इष्ट है यह प्रेम , स्वयं रस का ...रसों के रस श्रीपिय का इष्ट । रस में सुभग प्रेम का वलयाँकन ही रसिक नागर में न...

शरद , युगल तृषित

    *। शरद ।*  अवतरण हुआ है प्रीत का पुनः "स्पर्श" ऋतू यह स्पंदन प्रति क्षण कह रहा क्या तुमने छुआ अभी ! मेरे प्रियवर ।। जैसे पुराने घड़े में नवीन जल भर दिया हो और वह पुनः सजीव हो उठे ऐसा ही कुछ है...  यह शरद !! नव तरंग - नव स्पंदन - नव सुगन्ध नव रसातुर पुष्पांकुर !! मद - रंग - रूप से सजे यें नव पुष्प भिन्न है इनमें एक वधुता सी है जैसे सौंदर्य आ गया हो ... और घूँघट अब भी ठहरा सा हो । सिया राम मिलन या रस-रास रमण महोत्सव शरद उतरी सुवासित मीरा सी । ग्रीष्म तलाशता रहा शीतलता भीतर - बाहर रुखा कुआँ सा। लौट आई शरद समीर भीतर बाहर उतरी ज्योत्स्ना सा । नीरस - जीवन हिय कुँजन में मधु रसित समीर का पंकज स्पर्श सा । सूखती डाल पर भी कोंपल फूट पड़ती है ... उतर देखा था कभी !! असर शरद के घुँघरुओं का... !!         - - युगल तृषित - -

सिद्धान्त बिन्दु - 1

एकहूँ और जैईं समुचो भव मण्डल ह्वै और एकहूँ और वें और भीतर नित मूक हियरागिनी की लज्जाईं ! हिय तैईं जीवन कै सबहिं प्रयास विफल करि दियौ जगत ! प्रेम कौ आखर कौ भी भावार्थ चाह्वै तौ कौन रीत प्रीत सुं होवै सहजहिं ललित कलरव ! बहुतहिं बहुत सँग भए जीवन माईं तबहिं जैईं सुवास फुलनि सहजहिं  बिहागिनी ! औरहिं ऐसी लड़ैती दुल्हन जैईं हिय सेज पै कि छिन-छिन सुभग सुहागिनी ! हिय तैईं धरयौ पग-पग कोईं हिय निहारें , इतहिं चक्रव्यूह भेदन भै हिय माँहिं बाजै भूषणहिं झाँझ - झनक सुं विलास मच्यौ रहवै जबहिं भै जैईं कथित भव कै सिर पै जू ना रेंगे जोईं भाल तैईं जीव - जीव जु कौ रेग्नो नाहिं टटोलहिं सकै तैईं हिय तै बिहरत श्रीललित पगनि सुं गजनी सजनी जू कंज वन मर्दन का विचारै , पुनि कहूँ प्रेम सारँग जबहिं बिहरै तौ उल्लास हुलास की मौज मदिराईं सुं शेष कोऊँ अर्थ नाहिं रहिं जावै । लोक कै रोगी सँग सहजहिं सारँग बिहार छिरकन अबहिं सहज दशा ह्वै गईं अलिन री , जैईं  प्रीत कै मार्ग तै प्रज्ञा - बुद्धि बलहिं चलत चलत हिय सर विलासिनी मीन कौ मदिर हुलास ... धावते मृगनी कौ लतावन की निजतान कौ विलास सुरभ आकुलित भृमर कौ लास ... सरसै झर...