कैशोर्य उत्स , तृषित
*कैशोर्य उत्स*
किशोरित उत्स हेत प्राण निधि है शीतलता । लौकिक रीतियाँ भी जाती हुई शीतलता का यजन कर सविनय ऊष्ण सुखों का यामिनी में रँगा निर्माल्य भोग लगाकर जताती है शीतल वाञ्छा । कैशोर्य उत्स अनुभवित दशाएँ सहज शरदित है । किशोरता को लग रही जब बिहाग उत्स लालसा । स्वयं लीला जब शीतल स्पर्श है तब ही शरदाईं है ...लीला का निज कौमार्य है यह सुन्दर होती ... झूमती मधुर सरस शीतलता । भावरसिकों के मधु लोभी नयनों में सहज पावस हो बरसने लगती हो जब श्यामल अनुराग की लीलाकृतियाँ । अतिव सहज है शरद आगमन पर ललित लीला आगमन । सारित-सरित श्रृंगारों में सहज मुग्ध विलास की सुभग यात्रा है , जिसमें नित सरस होती साँझ की ज्योत्स्नाओं की पुलकताओं ने भजा है मदिर स्पर्शों से प्रकट लास्याँकन । नवीन शीतलता का यह विलास सहज घुमड़ता है और बढ़ती शीतलता सँग बरसती है परिमलित सुरँग ललिताईं । प्रेम जड़ - स्थूल पदार्थ नहीं , अपितु झूमती - सिहरती - पुलकती - फूलती - शिशिरित - गलित तरँग की ललित मुद्रा झारी है ...श्रीप्रेम । इष्ट है यह प्रेम , स्वयं रस का ...रसों के रस श्रीपिय का इष्ट । रस में सुभग प्रेम का वलयाँकन ही रसिक नागर में निभृत सरोवर की लहरों में अनुराग भर रहा है । ज्यों सहज सरस उत्सवित सरित (नदी) के नाद और लहरों से झूमती ब्यार में बहती शीतल होली से छुटा नहीं जा सकता त्यों सुभग किशोरी के इस शरद ऋतु में प्रध्वनित प्रकम्पनों निहित श्यामल-हितों से मुक्त नहीं हुआ जा सकता , बस आवश्यकता है तो कोमल लालसा रूपी लता हो केवल झूम जाने की । ...प्यास लगी , और लता हो तो पियो ब्यार में भरित शीतलता के अँगराग को जो किशोरित है पावस की अधिकाई में रँगने से । सो यह यमुना रूपी श्यामल प्रेम कल्लोल को श्रवण रूपी देह से पीकर इस कलित रस से ललित ठिठुरनों की गूँथन श्रृंगारित करती वृति है ... लास्य उन्मादिनी सुभग सरस किशोर उत्सवों की मदिरा ऋतु । निजतम शीतल वृति स्पर्श हेतु सूत्र है दीपिका होकर कज्जलिमा हो जाने की श्यामल लालसा में निहित उज्ज्वल झाँकी भरित नयनों का अर्घ्य रहने का हुलासित स्वप्न । किशोरित होते दृगों में मधुर होते इस श्यामल अनुराग में कज्जल प्रदायिनी रजनी की सजनी यह सिहरित ऋतु । सुप्त बालिकाओं में प्रेमोत्सवों का प्रबोधन भरती यह कालिन्दी का रजनी स्नान ... और शुष्क होती ही नहीं शीतलता से भरित प्रेम-स्वेद किशोरियाँ । पुहुपते श्यामल भावों के लिये शुभ्रपट लिये आई यह शीतलता रचती मिहिकाओं के सघन घन । शीतलता ऐसा गोंद है जो लतिकाओं में सुरभित हो भरा है और वह अभिसारित करने को विवश है निज शरदाई के झाग अर्थात् कर्पूर । बहुत कुछ उन्मादित हो रहा ,इन रव-रव रूपी श्रीविलास वनों की सौंज से आई वृन्द रमणियों में और वें बिहागित दुल्हिन क्यों होना चाह रही है ...श्रीकृष्णसुभगिनी ने दुल्हन वृति का पावस मचा दिया त्यों गोप्य रजनियों में अनन्त तृषित यें किशोर वृतियाँ ... छू रही ब्यार में भरित सहज शीतलता । श्रीप्रेम की सुवास में भरित कोमल शरदित प्यार । ... सो अनन्त उत्सवित मधुराओं में पुहुपित नव-नव रूपांकन-लीलांकन मधुरांकन के शीतल अलंकार कैसे ... !!! बढ़ती शीतल स्नेह की वर्षा से सहम सरकती ढहती बहती उधर ही मैं ... और वें मुखरित लीलाँकन । युगल तृषित । जयजय श्रीवृन्दावन । जयजय श्री सिहरित शरदित श्यामाश्याम ।। ... ...जाती हुई ऊष्मिकाओं को सोलह श्रृंगार रूपी ऊन में छिपाती-चोरी करती तुम ! भरना सीख रही हो ना ... शरद ... और निकट आ रही यह सरस शरद किशोरिकाएँ !!!
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