सिद्धान्त बिन्दु - 1

एकहूँ और जैईं समुचो भव मण्डल ह्वै और एकहूँ और वें और भीतर नित मूक हियरागिनी की लज्जाईं ! हिय तैईं जीवन कै सबहिं प्रयास विफल करि दियौ जगत ! प्रेम कौ आखर कौ भी भावार्थ चाह्वै तौ कौन रीत प्रीत सुं होवै सहजहिं ललित कलरव ! बहुतहिं बहुत सँग भए जीवन माईं तबहिं जैईं सुवास फुलनि सहजहिं  बिहागिनी ! औरहिं ऐसी लड़ैती दुल्हन जैईं हिय सेज पै कि छिन-छिन सुभग सुहागिनी ! हिय तैईं धरयौ पग-पग कोईं हिय निहारें , इतहिं चक्रव्यूह भेदन भै हिय माँहिं बाजै भूषणहिं झाँझ - झनक सुं विलास मच्यौ रहवै जबहिं भै जैईं कथित भव कै सिर पै जू ना रेंगे जोईं भाल तैईं जीव - जीव जु कौ रेग्नो नाहिं टटोलहिं सकै तैईं हिय तै बिहरत श्रीललित पगनि सुं गजनी सजनी जू कंज वन मर्दन का विचारै , पुनि कहूँ प्रेम सारँग जबहिं बिहरै तौ उल्लास हुलास की मौज मदिराईं सुं शेष कोऊँ अर्थ नाहिं रहिं जावै । लोक कै रोगी सँग सहजहिं सारँग बिहार छिरकन अबहिं सहज दशा ह्वै गईं अलिन री , जैईं  प्रीत कै मार्ग तै प्रज्ञा - बुद्धि बलहिं चलत चलत हिय सर विलासिनी मीन कौ मदिर हुलास ... धावते मृगनी कौ लतावन की निजतान कौ विलास सुरभ आकुलित भृमर कौ लास ... सरसै झरै सरितनि कौ अकथ अनुराग माल दरस हेत कौन जमुनोत्री यात्रा माँहिं कन्दरै ...का का कहै रस की कन्दरा ! युगल तृषित ! ... लैईं पुनि सहजहिं गजगामिनी पै मति की  अंकुशै-अंकुशै चाल ! हे रसद ! हे विपन ! हे विपिन सरस ! हे विपिन रसज !!!


प्रेम कौ गणित
गणित स्मृत ह्वै अथवा प्रियतम प्राण ! प्रेम कौ मार्ग और जैईं गणित ! कौन सुनें जैईं ललित कुकन , कौन निरखै जैईं नीलमण्डल तैईं बिछै मणिन ! कौन गिन सकै शरद ब्यार कौ नव-नव परस ...प्रेम वन माँहिं विल्स्यौ फूल ! जैईं मारग एकहिं अंक माँहिं सिमटै , लौकिक रीत तैंईं अंकगणित कै रुचि भरित दशा .. बद्ध ह्वै  अंकविस्तार हेत ! जोईं अनुगत पंक्ति की गणना माँहिं उलझहिं उलझन कौ सुख मानै तै नाहिं अनुभव करि सकै प्रेम की नीरवता कौ रसिलौ गणित ! एकहिं लतां पै एकहिं फल कौ शुक सारी चोंच तै भँग करि दिए औरहिं एकहिं फल व्यापारिन की गणित माँहिं सड़ रह्यौ , म्हंगौ हौईं रह्यौ अथवा मरहिं रह्यौ ! खगन कौ सहज खेल हुयौ फल गणितहिं नाहिं फँस्यौ ! दुई माँहिं एकहिं कौ जोग हौईं सुख कौ हुलास हौईं ग्यौ ! अबहिं प्रपञ्च तैईं रस - प्रेम कौ अनुपात बनै अनुगत-प्रशंसक संख्यान पै , तैंईं नृतनि माँहिं मोर ह्वै सिरमौर ह्वै औरहिं गर्जनहिं माँहिं मेघ ! साँचो श्रोता वेणु कै पँक पँक कै गूँथन भरै लेईं और काँचो मेघ गर्जनहिं सुं वन्चित , तैंईं जैईं भवमण्डल स्यानो होत - होत मात्र रसिकनि दया कौ पात्र ह्वै । इच्छा-संकल्प-श्वांस जबहिं ताईं इष्ट नाम सुं प्रिय ह्वै , तबहिं ताँईं एकहिं नाम पीबै की महिमा कौन विचारै और जैईं हिय माहिं सरस रसिक इष्ट कै गुण-गान कौ नव-नव प्रकास नाहिं हुयौ तैईं कि नाम गणना कोऊँ निज सकाम इच्छा कौ हेतु मात्र ह्वै , इष्ट सौन्दर्य प्रकास रूपी महिमा तैईं नाम-नाम माँहिं सहज रस भरै ! 
वन विलास माँहिं गणित कौ प्रेम नाहिं रहवै सौं युगल तृषित कौं  गणित कै भव मण्डल तैईं कोईं श्रवणपुट चखें कि नाहिं चखें वन तैईं नव नव अलिन और फुलनि कौ उत्स सहज ललित ह्वै ! गणित कौ जाल जितनौं बनै प्रेम निबाह तैईं संकट बनै ! गणितज्ञ तैईं जैईं नित रोमावली की घटनि बढ़नी जाँचे ! नष्ट भईं सुवास-सुवास कै प्रायश्चित होम माँहिं आहुत रहवै ! हमहिं समक्ष जबहिं चार जन लीला माधुरी श्रवण हेत विराजै तैईं चार जीव भाव बद्ध रहै बहुतहिं हुलास-विलास रीति-प्रीति कौ रेलम-पेल उत्सव नाहिं छुईं पावै , जैईं विचारै परस्पर चार नीरस दशान् कौ और रस सरोवर कै तृषित लहरान माँहिं गिनै छिन-छिन कौ गणित । जैईं गणित लोभी चाह्वै भारी तर्क - विचारनिं की चोट तैईं निर्बल बनी रहणौ अथवा घन गर्जन - खग कलरव - सरित लहरन की उत्सवित रागिनी माँहिं ज्यौंईं गिनै वस्तु धातु त्यौ भव गणित कै अकाल पड्यौ पाईं , जैईं युगल तृषित कौ हिय माँहिं आशीष दैईं जावें और पुनहिं नीरवता और नीरवोत्सव कौ सघन बिन्दु-बिन्दु कौलाहल गणना माँहिं बद्ध तृषित श्रवण पुट कैईं वेणु-लापिनियाँ ... ! हियकुञ्जन माँहिं गणित संयोग भँग ह्वै तैईं प्रकट होवै सहज प्रेम की अलबेली मौज !


प्रेम कहाँ ह्वै ... जहाँ रस तै , सुख तै , जीवन तै द्वंद ना ह्वै । रस रीतिन प्रताप सुं जबहिं भिन्न-भिन्न हिय माँहिं सम उल्लास हुलास झूमै , अर्थात् अलि तेरे हिय जबहिं होरी की धमार मचै तबहिं हमहिं हिय जैईं रँग धमार कै रङ्गिलो घन निहारी-निहार पुलकै सम उत्सव लालसा माँहिं । एकहूँ कौ प्यास मचै और एकहूँ कौ नींद आवै तबहिं जैईं प्रेम कौ एकांकी उत्सव भँग बनै । बहुतहिं जीवन जबहिं एकहिं सुख विलास सेवा कै भागीदार बनै तबहिं त्यौहार जानौं , उत्सव सहज मानौं ...अर्थात् रस रीति तैईं भरित रसिक हित सुं निज सुवास की चाल खैलहिं परसौ सहज नित्योत्सव । सँग कौ रँग जबहिं बनै जबहिं समूचै खग एकहिं राग सु झूमै । मोर कै मल्हार माँहिं कोकिला अनुगामी रहवै औरहिं कोकिला कै बसन्त माँहिं मयूर अपनो गौड़ मल्हार झारी बसन्त छुवै । एक हूँ कौ चित उत्तर और एकहूँ कौ दक्षिण ताईं जबहिं जाईं रह्यौ ह्वै तबहिं प्रेम की गीच गीचै ललित दिशा ना अनुभव बनै । मति जबहिं पश्चिम सुं पूर्व कौ मार्ग पै श्यामानुरागी होईं आवै तबहिं विलास यामिनी हिय तै उत्सै । रसिक अनुसरण श्रीजुगल सरकार ह्वै कौ अनुसरण ह्वै और श्रीजुगल कौ सांच्यो-पक्को अनुसरण आपहिं सहज ललित रस रीति कौ गीच ह्वै । आप तै गीचै पँक कै कीच-कीचै पै कौन चलै परन्तु री अलि , जैईं प्रेम कै पँक माँहिं प्रेम कौ कंज सँवरे तौ सहज पँकज विलसै । जैईं प्रपञ्च -विश्व नित ह्वै पृथकता कौ विचार भरि हमहिं कौ ललित अमृत कीच सुं झारैगौ परन्तु पुनि पुनि आपहिं कौ गलित राखियौ जैईं रसिक रीति प्रीतिन माँहिं । कै तौ अपनौं आप हिं श्रृंगार करि मैं मैं कौ प्रपंचौ , वरण कै नित-नित स्व कौ झारै-झार रस रीतिन सुखहिं उलसौ विल्सयौ । जोईं दिवाली तैईं अपनो हिय कौ तम दरसाईं रोवै तैईं सुं सरकहीं रहै , और जोईं नित-नित , नव-नव हुलास विलास कै मदिर झूम माँहिं रस रीतिन सुं उमगै तैईं पद सुख झारी बनै ढहहिं समझौ तलिन लेपनि कौ सहज नित्योत्सव । जोईं जोईं कै हिय तै सहज ऋतु वत उल्लास प्रगटै तैईं कौ पूर्ण नमित भाव सुं कृपा झारिन वत सँग पान करौ । इतर वर्षा ऋतु तैईं वर्षा नाहिं झूमै तबहिं जैईं हिय माहिं झरित वर्षित श्रृंगारिन कौ अमृत कीच माँहिं सुभग पद्म सरोवर पुलकित हौईं सकै तै पै हरित भरित ललित रीतिन कौ उत्स प्रकट ह्वै । रीति उत्सव दरसै जबहिं स्व प्रयास सुं थकित होईं रसिक रीति रूपी भास्कर कौ प्रकास ग्रहण करि प्राण श्रृंगार निधिन कौ दर्शन उलसै । तैईं सँग उलसौ , तैईं सँग विलसौ , सहजहिं झरित झरित बेगि बेगि चलहिं अलि ...ढहहिं रँग सहेली । युगल तृषित ।

मृदुल मधुर रसिकनि कै वाणी जू कौ अनुभव पकै तैईं चित्त माँहिं जैईं माँहिं अपनी मति पुर्णतः सती होय गईं ह्वै 
मञ्जरी किंकरिन कै पाछै झरित जैईं रसिलौ मार्ग अतिव सहज ह्वै , जोईं मकोड़ी (चींटी) कतार सु जब ताईं रहवै , सहज मार्ग बन्यौ रहवै । जैईं चींटी कतार छाँडि इत उत बिहरै तबहिं पंक्ति बद्ध सबहिं कौ मार्ग प्रभावित होवै सहज अनुसरण भरि सकै जोईं सोईं मञ्जरी-किंकरी होवै । दासिन कौ अपनो बुद्धि बल नाईं प्रयोग करि सहज अनुसरण तैईं बात बनै । जबहिं प्रेम कौ विलास सरित हिय तैईं फूटे तबहिं आराध्य कौ और मधुर ललित सुख झरण हिय तैईं सहज रिसै । औरहिं जैईं सेवामयी निज रस रिसाव पै अपनो कोऊँ बल ना रहवै , हियधरा सुं निज पयोधारा छुटे तबहिं सम्बन्ध की साँची छाप हौय गईं ह्वै । प्रीत कौ जैईं सम्बन्ध बाहरी छाप की वाञ्छा ना राखै ज्यों मॉंईं कौ निज शिशु तै स्वभाविक लाड झरै त्यों जैईं निजरस ढहै । जैईं सहज उत्सव मध्य स्व पृथक् मति कौ बल भारी रोग ह्वै , जबहिं जैईं बुद्धि बल झरै तबहिं हित तैंईं रोपित रस रीति कौ बीज सुख रस प्रेमावली वल्लरी होईं झूमि जावै
--- युगल तृषित !!!

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