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Showing posts from June, 2020

ताप सँग , तृषित

ताप सँग में ही ताप का निदान है । ताप भरित स्थितियों के ताप निदान में प्रायः ताप ही भोगवत पाया जाता । अग्नि का अग्नि से संयोग होने पर अग्नि असहज नहीं होती परन्तु जल के शीतल छींटे से प्रदाहित स्थितियों का अनुभव बन ही जाता है । झुलसता जीव उष्णोदक पान कर बाह्य झुलसन की विस्मृति को उष्ण भोग से निदान करता है । शीतल पेय सँग ऐसी श्रमिक स्थितियाँ उष्ण भास्कर प्रभाओं के सँग पूर्व में ही पराजित युद्ध नहीं कर सकती । त्यों ही शीतकाल मे शीतल जल से स्नान ही शीतलता का आदरवत स्वीकार्य है और प्रायः ऐसा करने वाली स्थितियो को पता है कि शीत काल के शीतल जल स्नान से शीतलता को सहन करने का सामर्थ्य जितना मिलता है उतनी ही कँपकँपी कम रहती है । शरद लालायित स्थितियों को जलवायु के तापमान को सहज ग्रहण कर सँग करना चाहिये , अगर भीतर जीव स्थिति ही है क्योंकि शरणागत को शरण्य  स्वामी की सभी भेंट स्वीकार होनी ही चाहिए । विधान की प्रत्येक स्थितियाँ जैसे जलवायु भी साधक का सृजन करती है । अगर आप विरहित या दाहित या व्याकुलित है तो आपकी देह भी उष्णकाल में भी शीतल जल भी नहीं माँगेगी । प्रायः उष्ण जल पान से जठराग्नि के अग्नि ...

रस दे कर , रस लेना । तृषित

हमारे पास नित ही बहुत से संदेश आते है जिनमें यह रस *लेने* की लालसा होती ।  मुझे कब वह मिलेगा , यह मिलेगा आदि आदि ।  स्वयं को पुनः - पुनः इस रस रीति को दे *देने* की लालसा जिन्हें उठेगी वह बहुत कुछ ले सकेंगे ।  लालसा होनी चाहिये कि कब मैं निज भाव सेवाओं को निवेदन कर सकूँगी , या कब श्रीश्यामाश्याम के नित नवीन सुख की सेवा कर सकूँगी आदि ।  यह विचित्र पथ है , जो लेना चाहते है वह सभी ले नहीं पाते ।  और जो सर्वस्व देने को लालायित हो वह देकर भी दे नहीं पाते क्योंकि पत्र पुष्प सेवा लालसा से भी भाव- रूप - सुख - आनन्द मिल जाता है । अर्थात् आत्मियता से देने का केवल संकल्प प्रकट हो , यहाँ देने को कुछ अपना होता ही नहीं और उससे ही वास्तविक रस हेतु पात्र में रिक्तता बनी रहती ।  सेवा-प्रेम या सुख देने की चाह प्रकट होने भर से  अपना हृदय भीतर ही भीतर सुखों में भीगा मिलता है ।  तृषित । जितने भी सन्देश आते है , रस लेने के आते है परन्तु रस से पूर्व प्यास की लालसा हो और रस प्यास लेने की ललक कहीं लग भी जावें तो सुखों की सेवा देते हुए भी प्यास लगी ही रहती कि क्या और कैसे स...

सुख वर्षा , तृषित

*सुख वर्षा* ले लो न अपने सुख , मेरे हृदय से आन्दोलित रोम-रोम में बहते रस से अपना सुख पी ही लो न । साँस-साँस में हो ऐसी नई सुगन्ध इन फूलों सी कि मैं छूटना भी चाहूँ तो अर्क (इत्र) बनकर भिगोती रहूँ तुम्हें । देह को छूते जलवायु सब से तुम्हे ही सुख हो । श्रवणों में आती ध्वनियों से भी केवल तुम्हें ही सुख हो । आँखों मे भरे प्रत्येक दृश्य से भी तुम्हें रस मिल रहा हो । जिह्वा पर आया अर्द्ध अक्षर भी तुम्हें ही आह्लादित करता हो । मेरे चलने से भी आपके कुँज-कुँज बिहार की सिद्धि हो । मेरे हाथों में आई प्रत्येक सेवा वस्तु भी तुम्हारा श्रृंगार ही गूँथ रही हो । मेरे रोम रोम में केवल आपके ही सुखों की ललक हो । मेरे भोगों या भोजन से स्वाद - रस सब तुम्हे ही हो । मेरे विश्राम या शयन से आपका ही सेज सुख और गहन हो । प्राण प्राण मेरा फूल-फूल होकर आपके कोमल मधुर रसीले सुगन्धित सुखों को खोजने को बाँवरे हो उठे । आपको जिससे सुख नहीं वह वस्तु - व्यक्ति - स्थिति मेरे सँग आवें ही नहीं और जहाँ -  जहाँ आपका सुख ही सजता हो वहाँ वहाँ की रज सेवा मेरा जीवन हो जावें । मैं पागल हो जाऊं आपके सुख हेतु ही , आपके सुखों की प्य...

स्निग्धता , तृषित

*स्निग्धता* कोमलता से जिह्वा की रस भोग सेवा देने वाली आहार सेविका अलियाँ चिकनाई को गूँथ का कोर निवेदन करती है । अर्थात् रसोई सेविकाओं को पता होगा ही कि अधिक चिकनाई मिश्रण से धान्य चूर्ण (आटा-बेसन) कोमल होकर जिह्वा पर सुख हो सकता है । पकवानों में घृत-तेल का मोयन पूर्व में कर देने पर वह कोमल रहते है अर्थात् चिकनाई से स्निग्ध कोमलता सजाने की योजना रहती है । ज्यों दो चिकने अणु बिखरने पर फिसल जाते हो ...वह दो होने में संकोचित रहते हो ...त्यों चिकनाई (स्निग्धता) भीतरी रस की सेविका हो , उस रस को कोमल लेप कर फिसल ही सकती है ...ज्यों गहन शीतल गाढ़ नवनीत मधुर रसपय ...प्राणों का तरल कोमल्य । कोमलता की सेवाओं हेतु उस फूल की स्थिति चिकनी (स्निग्ध) धरा पर फिसल कर ढह रही हो । स्निग्ध मधु नहीं अलियाँ फूल से लाती है वह केवल मधुता लाती है , अगर मधु स्निग्ध भी हो तो मधुपान उपरान्त फूल कोमल नहीं रह जायेगा । फूल की मधुता को बटौरने का अन्य विकल्प नहीं हो सकता सो मधु अलियाँ मधु बटौरती है अपनी स्वामिनी हेतु । मधु स्निग्ध मधुपर्क आहार से नवीन सौंदर्य कोमल किशोर वयता की सेवा रहती है । स्निग्धता अर्थात् चिकनाई के...