रस दे कर , रस लेना । तृषित
हमारे पास नित ही बहुत से संदेश आते है जिनमें यह रस *लेने* की लालसा होती ।
मुझे कब वह मिलेगा , यह मिलेगा आदि आदि ।
स्वयं को पुनः - पुनः इस रस रीति को दे *देने* की लालसा जिन्हें उठेगी वह बहुत कुछ ले सकेंगे ।
लालसा होनी चाहिये कि कब मैं निज भाव सेवाओं को निवेदन कर सकूँगी , या कब श्रीश्यामाश्याम के नित नवीन सुख की सेवा कर सकूँगी आदि ।
यह विचित्र पथ है , जो लेना चाहते है वह सभी ले नहीं पाते ।
और जो सर्वस्व देने को लालायित हो वह देकर भी दे नहीं पाते क्योंकि पत्र पुष्प सेवा लालसा से भी भाव- रूप - सुख - आनन्द मिल जाता है । अर्थात् आत्मियता से देने का केवल संकल्प प्रकट हो , यहाँ देने को कुछ अपना होता ही नहीं और उससे ही वास्तविक रस हेतु पात्र में रिक्तता बनी रहती ।
सेवा-प्रेम या सुख देने की चाह प्रकट होने भर से अपना हृदय भीतर ही भीतर सुखों में भीगा मिलता है । तृषित ।
जितने भी सन्देश आते है , रस लेने के आते है परन्तु रस से पूर्व प्यास की लालसा हो और रस प्यास लेने की ललक कहीं लग भी जावें तो सुखों की सेवा देते हुए भी प्यास लगी ही रहती कि क्या और कैसे सुख दूँ ।
जो नित नवीन सुख दे रहा है वही ...वही ...वही नवीन रस ले रहा है । और जो लेना तो चाहते है परन्तु देने की चाह ही नहीं उठी वह फूल के इर्दगिर्द रहकर भी सुगन्ध भी नहीं ले पाते । देने वाली स्थिति अपने प्राण सरकार को शहद देते हुए शहद में ही रहती है ।
यहाँ निवेदन कर दे कि जो भी रस आदि लेने के लिए देने की भूमिका बना रहे हो , वह भी रसाभास ही ले पाते है । जो अपने लिये लेना ही नहीं चाहता , केवल देना ही जिनका जीवन है ...वही रस वर्षण में भीगकर नाचता है ।
गोपी लालसा से निकुँज किंकरियों तक सम्पूर्ण पथ ही प्रेमास्पद को सुख देने हेतु है । इस पथ के दोनों छोर पर प्रेम ही है ना कि किसी एक छोर पर कामना । परन्तु बहुत से पथिक केवल लेने के संकल्पों से आज पथ पर है , क्योंकि कामना पूर्ति तो है पर वह वस्तु ही सँग नहीं जो अपने प्रियतम या युगल सरकार के नये भोग सुख को पकाए बिना जी ही नहीं सकती , और वह वस्तु है प्रेम (प्रीति)
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