स्निग्धता , तृषित

*स्निग्धता*
कोमलता से जिह्वा की रस भोग सेवा देने वाली आहार सेविका अलियाँ चिकनाई को गूँथ का कोर निवेदन करती है । अर्थात् रसोई सेविकाओं को पता होगा ही कि अधिक चिकनाई मिश्रण से धान्य चूर्ण (आटा-बेसन) कोमल होकर जिह्वा पर सुख हो सकता है । पकवानों में घृत-तेल का मोयन पूर्व में कर देने पर वह कोमल रहते है अर्थात् चिकनाई से स्निग्ध कोमलता सजाने की योजना रहती है । ज्यों दो चिकने अणु बिखरने पर फिसल जाते हो ...वह दो होने में संकोचित रहते हो ...त्यों चिकनाई (स्निग्धता) भीतरी रस की सेविका हो , उस रस को कोमल लेप कर फिसल ही सकती है ...ज्यों गहन शीतल गाढ़ नवनीत मधुर रसपय ...प्राणों का तरल कोमल्य । कोमलता की सेवाओं हेतु उस फूल की स्थिति चिकनी (स्निग्ध) धरा पर फिसल कर ढह रही हो । स्निग्ध मधु नहीं अलियाँ फूल से लाती है वह केवल मधुता लाती है , अगर मधु स्निग्ध भी हो तो मधुपान उपरान्त फूल कोमल नहीं रह जायेगा । फूल की मधुता को बटौरने का अन्य विकल्प नहीं हो सकता सो मधु अलियाँ मधु बटौरती है अपनी स्वामिनी हेतु । मधु स्निग्ध मधुपर्क आहार से नवीन सौंदर्य कोमल किशोर वयता की सेवा रहती है । स्निग्धता अर्थात् चिकनाई के क्रीड़ा विलास को परपंराओं सँग अनुभव करें तो अनुभव बनेगा कि समृद्धि का सूचक है चुपड़ी फुलकियाँ (चपातियाँ) । बल वर्द्धन हेतु यहीं फुलकियाँ बलवती होकर रोटी कहलाती हुई स्निग्ध रोट भी हो जाती रही है । शारीरिक परिश्रम शून्य स्थितियों के लिये चिकनाई का अति भोग रोग भी हो सकता है , जबकि शारीरिक परिश्रम या मल युद्ध के लिये खूब स्निग्धता का पान कराया जाता है ताकि स्वेद बिन्दु भी देह को चिकना रख योद्धा की घात को फिसला दे । स्निग्धता का (घृत) का अशुद्ध प्रयोग और अशुद्ध श्रम अर्थात् घात-प्रतिघात हीन बाह्य विलासी जीवन कहता है कि उतनी स्निग्धता की आवश्यकता ही नहीं होती जितना हमारी संस्कृति के पकवानों में भरा होता रहा । सहज स्निग्ध (सचिक्कन) हृदय ही फिसलते नयनों की रस धाराओं के लिये भी गम्भीर चिकनी हिंडोलम का हिलोरित विलास गूँथन कर सकता है । सरकते फिसलते कौतुक तो और स्निग्ध वर्षाओं से सर्वदा स्निग्ध स्पर्श अनुभूतियों से हल्की गुलाबियत लेते फूल को नवनीतिमाओं से भीगता पाता होगा । हे धवलिमाओं के फिसलते स्निग्ध बिन्दुओं तुम श्वेतिमाओं के कोमल प्रकाश से केवल कोमल ही रहे और स्निग्ध नहीं हुए तो हे पद्म वंशिकाओं (फूल) झुलस जाओगें तुम , शुभ्र रति कणिका सी रजत चूर्णिका सी होकर ...जो आई है उन चन्द्रिका लहरों का एक ऐसा कौतुक होकर... जो चन्द्रिका लहरों को स्निग्धताओं सँग न करा सकी ...और स्निग्ध ज्योत्स्नाएं वल्लिरों पर प्रफुल्लिकाएँ रह जाती सी ...हे शरद स्निग्ध मल्लिकाओ ... कुमुदिनियों ।। युगल तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
सुकोमल नख ज्यों फूल पंखुड़ियाँ और स्निग्ध नवनीत कलेवर ... तो कभी स्निग्ध नख और सुकोमल सुकुमार फूल कलेवर । ....मैन वपुओं का आघर्षण । इस मैन सम्बोधन में फूल की गोप्य स्निग्धता भी मधु में धारित है ।

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