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श्यामल महाभाव , तृषित

श्रीजी से पृथकता झँकन बनी रहना या पृथकता की लालसा बनी रहना महाभाव दशा नहीं है ।  चेतन तत्व (आत्मा) साम्य होकर भी संस्कार आदि द्वारा विशेषणों से नव नव रूप में सज्जित है । प्रेम सहजतम चेतन रसतत्व है और वही उनकी प्रीति हमारे भीतर छोड़ी गई है । बाह्य आवरणों में वह प्रीति सुक्षुप्त या अस्तवत है परन्तु निजतम प्रियतम संस्पर्श और प्रियतम रस मज्जन से वह प्रीति स्पर्श आपको हो सकता है । वही स्पंदन वें प्रिया है जो कि स्वयं के सर्वतोभावेन सरलतम प्रेम में डूबकर प्रेमास्पद में खो जाने से झँकृत होती है । यह झँकृति सभी चेतन तत्वों की नव नव है । जैसे एक सँग और एक रात में एक ही स्थली पर खिलें गुलाब और मोगरे की सुगन्धें भिन्न है । जैसे क्षेत्र या जलवायु की भिन्नता पर गुलाबों की सुगन्ध भी कुछ नव-नव हो सकती त्यों हमारे स्वभाव उनकी ललिताईं का सूक्ष्मतम चेतन बिन्दु ही है । आप स्वयं को पृथक मानो प्रथम उन्हें उनकी वस्तु लौटाकर , प्राण पर प्राणी का अधिकार है क्या ??? आपके पास उनका जो जो है वह सब उन्हें देने के बाद जो शेष है वह ही भाव है ।  वह भाव भी स्वयं को दृश्य या अनुभूत तत्व नहीं है , वह भी उनके या ...

सरित श्रवण , तृषित

*सरित श्रवण* भीग कर श्रवण कर पाना बहुत कठिन है और इससे सरल मधुताओं की ओर कोई माध्यम भी नहीं ।  श्रवण की महत्ता पर कहना बहुत ही कठिन प्रयास है ।  पथिक को लक्ष्य की ब्यार के झोंके मिलने लगे तो पथ उत्सवित हो उठता है । आपको केवल श्रवण पुट खोलने हैं और सहजता से सुनी हुई भावनाओं को हृदयंगम करते रहना है । श्रवण की महिमा किसी  नर्तक आदि संगीत रसिकों से समझिये । श्रवण सहज झूमा सकता है ।  सुन्दरतम कोई मधुता का झँकन या रागाचारी या नादित श्रुतियाँ श्रवण वत पीने को मिल रही हो तो यह वरदान ही है ।  आम की लता को साधना करनी होती आम जैसी मधुता पुनः पुनः उसी वातावरण से एकत्र करने में जिसमें हम जैसे रसशून्य जीवन भी हैं । तदपि आम की मधुता को रसना का स्पर्श बनते ही मधुता की परिभाषाओं को एक अनुभव स्पर्श होता है । त्यों सरलतम है मात्र सुनना । भौतिक पथ के प्राणी के संकीर्ण चिंतन का धरातल ललित सँग माध्यम से ही उत्सवित हो सकता है सो श्रवण और प्रायः जीवन के भोग उपचार वर्द्धन सँग जीवन का स्वाद और उसकी गुणवत्ता सिमट ही रही है । सो वह सुनिये जो कृत्रिम सन्मोहन से चित्त को निकाल कर सहज ही मधुत...

वन और राजमार्ग , तृषित

एक परिभाषा लेकर जो तुम झरोखों से झाँक रही हो ...  ... किन्हीं दिव्य सन्त की राह जोह रही हो  प्रथम प्रेम को समझो  जो इसे समझना है तो भीतर सीढियां उतरो ... उतर रही हो जो प्रेम में  तब प्रेमियों के कौतुक झेलो  प्रेम तुमने अध्याय मान बाँच लिया  हो ...  प्रेम तुमने कहीं आकृतियों में छू लिया हो  प्रेम रहस्यों का सार पा , प्रेमियों से आभार भर लिया हो  तब भी प्रेम भरे प्रेमी को निभा सकोगी , यह अचरज ही है ... जो तेरे-मेरे या इनके-उनके दायरों में ना सिमटे  वह है प्रेमी ... जिसे तुम-मैं या यह-वह सब पाकर भी पहचान ना सकें  वह है प्रेमी ... जिससे  मिलो तब ही बसन्त भर झूम जाओ  जीवन का कोई नया ही रँग छू कर बाँवरी ही रह जाओ  प्रेम की कनिष्ठिका पर टिका है  तेरे मेरे कौतूहलों का रसवर्द्धन पुहुप-वन हे राजमार्गों के पथिक ... सघन वन में शब्द झँकन से झूमी सारँगिनी के  हरित घर्षण मज्जन वीथियों में तुम भी यूँ ही  झूमते हुए दौड़ सकोंगे ... स्मृत रहें कि वह नाद-शब्द और पथ और सारँगिनी की चाल  ... नवीन होगी , किन्हीं अभ्यासों स...

प्रेमी और सन्त , तृषित

प्रेमी और सन्त सहजता तो यह है कि प्रेमी ही सहज सन्त है या सहज सरल सन्त निश्चित ही प्रेमी ही है ।  ... तदपि भिन्न-भिन्न माँग और दायरों से सिमटी परिभाषाओं को अनुभव कर भी उनमें जो समाहित हो सिमट जावें , वें है सन्त , और किन्ही भी बन्धनों के पार परन्तु सहजताओ के सन्निकट सरस महोत्सवों के केंद्रित से जीवन ... प्रेमी है ।  तनिक भी पृथकता है नहीं प्रेमी और सन्त में परन्तु मान्यताओं का आन्दोलन तो है ही ।  प्रेमी निर्दोष सरल जीवन है , कोई दोष ना होने पर भी समाज ऐसे सँग से सहज सँकोच करता है अथवा वें प्रेमी ही सँकोच रखते है । ...पावस ऋतु और अनवरत वर्षा एवं नदियों में तैरने का लोभ ... भावी बाढ में डूबने की तैयारी ही है ।  ऐसे में सुविज्ञ जन नदियों पर बाँध के आयोजनों को स्थापित करते ही है ... वही बन्धन लोकार्थ आवरण है ।  उन्मादित नदियों का सहज स्नात सँग जैसे प्राण रक्षा के लिये कठिन ही है त्यों प्रेंमियों के आवेशों का सँग ।  ... नदी की उन्मत्ता से संकट होने पर भी जल से जीवन की मैत्री रहनी ही है सो आवश्यक है सुधीर - गम्भीर - शान्त ...सरल सन्त सँग । सन्तत्व की झाँकी हो परन...

निकुँज संवाद शैली , तृषित

श्री निकुँज की संवाद शैली (भाषा शैली) हित है अर्थात् नाद बिन्दु । पुहुपों के मध्य मकरन्द की झँकन का परिमलित सुवास बिन्दु । ऐसी ही शैली यहाँ भी प्रकृति में कही कही संवादात्मक है ।  श्री निकुँज की रूप दर्शन शैली ललित है । और और सौन्दर्य रँगन  करते नवल अनुरागों की प्राण लालसा ।  जो संवाद नैनों मध्य सुख हो रहा हो वह भी ललित है ।  और जो दर्शन श्रवणपुटों में रूपाकृति पिरो रहे हो वह ब्यारित दर्शन भी हित श्रृंगार है ।  ललितहित भरित अलिन अलिन का निज हित हित ही ललित परागिनी हो मधुरित कर रहा श्रीवन ।  श्रीवन जो प्रमुदित मुदित उत्सवित हो विलास की स्निग्धाई से अभिसारों के रँगन रोके नहीं रोक पा रहे , वह सहज ही नित्य ललित हितोत्सव में शरदित घनाच्छादन कलित सरोवर हो रहे है । युगल तृषित ।  श्रीललितं ... श्रीवृन्दावन । जैजै श्रीश्यामाश्याम जी ।

बाह्य और भीतर के दर्शन में मर्म शून्यता से हानि , तृषित

एक ग्रुप में *आम तोड़ लीला* शीर्षक से श्रीयुगल के आम तोड़ने की प्रतियोगिता को लीला रूप लिखित साँझा किया गया ।  उसी विषय हेत कुछ निवेदन यह ...  ध्यान देने का विषय यह है कि ...  श्रीयुगल की ललित निकुँज माधुरी लीलाएँ उनकी ही निजतम मधुतम निभृत केलिमाधुरियों की सुरभ-सुवास के रिसाव से उत्सवित है ।  श्रीनिकुंज ही नहीं प्राकृत धरा पर भी ऐसे कई सामान्य खग है जो फलों को बिन तोड़े सेवन कर सकते है ।  श्री निकुँज में भोग रसों को संचय करने की पृथक आवश्यकता नहीं ज्यों सागर को जल संचय करने की आवश्यकता नहीं ।  श्रीनिकुंज स्वयं ही श्रीललित पियप्यारी की निजतम प्रकट निधि ही है । जैसे कि लौकिक रूप से कहे तो तिजोरी के खजाने से कोई आँगन सजाए हो ।। श्री निकुँज में लताएँ और उनके स्वरूप बाह्य की भाँति मात्र नहीं है । फल आदि रस वत ही है । वह ब्यार आदि से छिरक सकते है ...फुहार हो सकते है । जैसे नव-नव श्रीलता श्री के निजतम उत्स से प्रकट स्वेद बिन्दु ।।  तोड़ने के लिये प्रथम तो प्रेम शून्यता चाहिये । दूसरी बात कि आवश्यकता भी नहीं है तोड़ने की क्योंकि लताएँ इतना रस सहज ही ढहा देती है जैस...

अलि दशा

अलि वह भावदशा है जो प्रकट फल या पुहुप के स्वरूप-स्वभाव को कष्ट ना पहुँचा कर अपितु केलि श्रृंगार रचते हुए निजतम स्वामिनी हेत मधु संचय करें ।  ... केलि रूपी मज्जन या मर्दन भी और नवीन लास्यमय ललित रूप सौन्दर्य उन्माद का रँगोत्सव है ...केलि चकोर में प्रतिक्षण सेवा की लहरें और उत्सवित हो रही होती है । युगल तृषित । श्रीवृन्दावन ।  सेवा लहरों से रचित प्रेम द्वीप का ललितम मधुतम उत्सव जहाँ झूम रहा हो ऐसे हिय सरोवरों में स्फुरित प्रफुल्ल होते है श्रीविपिन रूपी विलास पँकज ... कमल कुँजन ।