प्रेमी और सन्त , तृषित

प्रेमी और सन्त

सहजता तो यह है कि प्रेमी ही सहज सन्त है या सहज सरल सन्त निश्चित ही प्रेमी ही है । 
... तदपि भिन्न-भिन्न माँग और दायरों से सिमटी परिभाषाओं को अनुभव कर भी उनमें जो समाहित हो सिमट जावें , वें है सन्त , और किन्ही भी बन्धनों के पार परन्तु सहजताओ के सन्निकट सरस महोत्सवों के केंद्रित से जीवन ... प्रेमी है । 
तनिक भी पृथकता है नहीं प्रेमी और सन्त में परन्तु मान्यताओं का आन्दोलन तो है ही । 
प्रेमी निर्दोष सरल जीवन है , कोई दोष ना होने पर भी समाज ऐसे सँग से सहज सँकोच करता है अथवा वें प्रेमी ही सँकोच रखते है ।
...पावस ऋतु और अनवरत वर्षा एवं नदियों में तैरने का लोभ ... भावी बाढ में डूबने की तैयारी ही है । 
ऐसे में सुविज्ञ जन नदियों पर बाँध के आयोजनों को स्थापित करते ही है ... वही बन्धन लोकार्थ आवरण है । 
उन्मादित नदियों का सहज स्नात सँग जैसे प्राण रक्षा के लिये कठिन ही है त्यों प्रेंमियों के आवेशों का सँग । 
... नदी की उन्मत्ता से संकट होने पर भी जल से जीवन की मैत्री रहनी ही है सो आवश्यक है सुधीर - गम्भीर - शान्त ...सरल सन्त सँग । सन्तत्व की झाँकी हो परन्तु प्रेम अदृश्य हो तब भी वहाँ प्रेम का अदृश्य विलास है ही , बाह्य सेवार्थ धारित वसन वत जीवन और उसके कौतुक अनिवार्य होने पर भी शीतल मज्जनविलास की माँग नहीं शान्त करते । त्याग भरित ऊष्णता को भी ललित सवेर में शीतल घाट के सन्निकट प्रेम ले ही आता है ...
... प्राकृतिक सिद्धान्त है कि तट तो समुद्र को भी  उच्छ्लन हेत विवश ही करते है । विलाप से वह घन हो वर्षा बन कहीं न कहीं नदियों के नाद में जीवन खोज रहा होता है ... नाद , तुम्हारे हमारे जीवन जल का रस है ...  । जल के इस मधुतम लोभ ... झरण , को झरित रखती सर सर सरकती प्रेम नदियाँ या कल्पित कोई पात्र । तृषित । अलबेली मीन ... तेरा जल विहार अविरल अनुपम सहज नवीन तरँगों की मालाओं में लास्यमय ललित-कौतुक रहें ...  मात्र प्रेम ही ललिताईं का केन्द्र है ।

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