वन और राजमार्ग , तृषित
एक परिभाषा लेकर जो तुम झरोखों से झाँक रही हो ...
... किन्हीं दिव्य सन्त की राह जोह रही हो
प्रथम प्रेम को समझो
जो इसे समझना है तो भीतर सीढियां उतरो ...
उतर रही हो जो प्रेम में
तब प्रेमियों के कौतुक झेलो
प्रेम तुमने अध्याय मान बाँच लिया हो ...
प्रेम तुमने कहीं आकृतियों में छू लिया हो
प्रेम रहस्यों का सार पा , प्रेमियों से आभार भर लिया हो
तब भी प्रेम भरे प्रेमी को निभा सकोगी , यह अचरज ही है ...
जो तेरे-मेरे या इनके-उनके दायरों में ना सिमटे
वह है प्रेमी ...
जिसे तुम-मैं या यह-वह सब पाकर भी पहचान ना सकें
वह है प्रेमी ...
जिससे मिलो तब ही बसन्त भर झूम जाओ
जीवन का कोई नया ही रँग छू कर बाँवरी ही रह जाओ
प्रेम की कनिष्ठिका पर टिका है
तेरे मेरे कौतूहलों का रसवर्द्धन पुहुप-वन
हे राजमार्गों के पथिक ...
सघन वन में शब्द झँकन से झूमी सारँगिनी के
हरित घर्षण मज्जन वीथियों में तुम भी यूँ ही
झूमते हुए दौड़ सकोंगे ...
स्मृत रहें कि वह नाद-शब्द और पथ और सारँगिनी की चाल
... नवीन होगी , किन्हीं अभ्यासों से पार
भरो भाषाएँ और परिभाषाएँ
... नादित झँकन सँग जब झरण सहज हो
... अभिसार सरकेंगे
... सहज ललित-सुक्षुप्त प्राण ... स्वप्न निकुँज की साँझ के गीत को
...हिय में जब कहीं भरेंगे
... स्निग्ध करवटों से पहरे जब हटेंगे
वेणु और सितार के संगम से ...
अभ्यास जब छूटने लगेंगे ...
पियोगी जब श्रवणों से
और निरखनें भर रसना सिहरन में गलित कहीं
सुरभ झकोरों को भर भर पुहुपते दृग
... प्रेम-सम्मिलन का उत्तर होंगे
--- तृषित ।।
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