बाह्य और भीतर के दर्शन में मर्म शून्यता से हानि , तृषित
एक ग्रुप में *आम तोड़ लीला* शीर्षक से श्रीयुगल के आम तोड़ने की प्रतियोगिता को लीला रूप लिखित साँझा किया गया ।
उसी विषय हेत कुछ निवेदन यह ...
ध्यान देने का विषय यह है कि
... श्रीयुगल की ललित निकुँज माधुरी लीलाएँ उनकी ही निजतम मधुतम निभृत केलिमाधुरियों की सुरभ-सुवास के रिसाव से उत्सवित है ।
श्रीनिकुंज ही नहीं प्राकृत धरा पर भी ऐसे कई सामान्य खग है जो फलों को बिन तोड़े सेवन कर सकते है ।
श्री निकुँज में भोग रसों को संचय करने की पृथक आवश्यकता नहीं ज्यों सागर को जल संचय करने की आवश्यकता नहीं ।
श्रीनिकुंज स्वयं ही श्रीललित पियप्यारी की निजतम प्रकट निधि ही है । जैसे कि लौकिक रूप से कहे तो तिजोरी के खजाने से कोई आँगन सजाए हो ।।
श्री निकुँज में लताएँ और उनके स्वरूप बाह्य की भाँति मात्र नहीं है । फल आदि रस वत ही है । वह ब्यार आदि से छिरक सकते है ...फुहार हो सकते है । जैसे नव-नव श्रीलता श्री के निजतम उत्स से प्रकट स्वेद बिन्दु ।।
तोड़ने के लिये प्रथम तो प्रेम शून्यता चाहिये । दूसरी बात कि आवश्यकता भी नहीं है तोड़ने की क्योंकि लताएँ इतना रस सहज ही ढहा देती है जैसे फल फूलों के रसों के गहन सुरँग स्निग्ध (गाढ़े चिकने) सरोवर प्रकट हो गए हो ।।
आम्र विलास में श्री युगल को स्वयं के बढ़ते हुए अमिय रस सरोवर में ही अँगरागित होना होता है और तब अतिव मदिर मधु विलास के चित्रांकनों से पावस विलास ही उनके सुरँग बसन्त मधु को बहा कर हरित निकुँज सजाने लगती है । एक फल के सभी श्रृंगार प्रधान गुण आम में है जैसे सुगन्ध भी है और कोमल फिसलन आदि भी और रँग भी बसन्त उत्सव के झँकन में है सो वह एक पूर्ण फल है तदपि निकुँज में आम्र अनुभव लौकिक सम नहीं होंगे ।
ज्यों आम्र लता ने मलय समीर और बसन्त की ब्यार के गोपन श्रृंगारों को पहना हुआ हो त्यों वह उत्सवित प्रकट होते है ।
और सघन निकुँज में श्रीयुगल के निजतम सुअंग ही परस्पर आम्र रस विलास है । सो विनय है लीला चिंतन भौतिकी नहीं हो , भावना और साधना की परिपक्वता से दिव्यतम ललित झँकन हो । श्रीनिकुंज में कुछ भी तोड़ने मरोड़ने आदि की अवश्यकता नहीं क्योंकि वहाँ संसृति रूपी माया भीतर नहीं है । समस्त दिव्यताएँ सहज विलास श्रृंगारिणी किंकरियाँ है ।
युगल तृषित ।
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