सरित श्रवण , तृषित
*सरित श्रवण*
भीग कर श्रवण कर पाना बहुत कठिन है और इससे सरल मधुताओं की ओर कोई माध्यम भी नहीं ।
श्रवण की महत्ता पर कहना बहुत ही कठिन प्रयास है ।
पथिक को लक्ष्य की ब्यार के झोंके मिलने लगे तो पथ उत्सवित हो उठता है ।
आपको केवल श्रवण पुट खोलने हैं और सहजता से सुनी हुई भावनाओं को हृदयंगम करते रहना है । श्रवण की महिमा किसी नर्तक आदि संगीत रसिकों से समझिये । श्रवण सहज झूमा सकता है ।
सुन्दरतम कोई मधुता का झँकन या रागाचारी या नादित श्रुतियाँ श्रवण वत पीने को मिल रही हो तो यह वरदान ही है ।
आम की लता को साधना करनी होती आम जैसी मधुता पुनः पुनः उसी वातावरण से एकत्र करने में जिसमें हम जैसे रसशून्य जीवन भी हैं । तदपि आम की मधुता को रसना का स्पर्श बनते ही मधुता की परिभाषाओं को एक अनुभव स्पर्श होता है । त्यों सरलतम है मात्र सुनना ।
भौतिक पथ के प्राणी के संकीर्ण चिंतन का धरातल ललित सँग माध्यम से ही उत्सवित हो सकता है सो श्रवण और प्रायः जीवन के भोग उपचार वर्द्धन सँग जीवन का स्वाद और उसकी गुणवत्ता सिमट ही रही है । सो वह सुनिये जो कृत्रिम सन्मोहन से चित्त को निकाल कर सहज ही मधुता का स्पर्श हो ।
वस्तुतः रसपथ में अनन्त सरिताएं हैं । ज्यों लौकिक वर्षा से कई बहते मार्ग दर्शन को सहज त्यों और भी गहन सरल मधुतम रस वीथियों में अनन्त सरिताओं की लास्य लहरें उत्सवित है ।
सरिता ही उनकी (श्रीयुगल) सन्निधि होने का सुगम वह तट है जो पथिकों की वांछा है , तदपि सरिता होने की कोई साधना नहीं ही है , जबकि समस्त साधन - असाधन एक दिन किसी सरिता से अभिन्न होकर ही जीवन के भोग को स्वीकारते है । समस्त चेतनाएँ सरिताओं की साधना कर पाती तो घनदामिनी उत्स की आवश्यकता ही कहाँ दृश्य होती । सो दुर्लभ है नदी का वह तट जो हम हो ही नहीं सकते ।
जबकि नदी (सरिता) होना दुर्गम होकर भी सम्भव है सहजतम रस वीथियों में । प्रथम पूर्णतम भाव से चेतना चेतन सरित दशा के रस में डुबकी लगावें । श्रीमद् गङ्गा जैसा होना असम्भव है जबकि गंगा जल पान और बहती श्रीगंगे में डुबकी सरल है ।
त्यों है सरल श्रवण । अगर श्रवण किसी दिव्य बहती रस प्रवाह का हो रहा हो तो ।
जीवन-जीवन नदी हो सकता है । बाधक है वह असहज कामनाएं जो नदियों को शहर तो बना देती परन्तु शहर को नदी होते देख असहज हो उठती हैं ।
ना ही पौराणिक नदियों का आदर है और ना ही नई सरिताओं का प्राकट्य हो रहा है यह जानकर भी जो नदी बह रही है वही ही नदी है । और ऐसी ही दुर्लभ है वह चेतनाएँ जो कि सत्य में आनन्दित चेतन है , सच्चिदानन्द की वह प्राथमिक स्पर्शा जो कि एक सरिता ही है । जड़ता के फौहारौं मध्य यजन भजन बिना ही प्राप्त वर्षा का आदर जो ना कर सकें वह भाववर्षाओं के अदृश्य होते रहने का भी कारण है । प्रेम है परन्तु अप्रेम के समक्ष अदृश्य मात्र है सो प्रेम और प्रेम के जीवन से अभिन्न होना ही होगा । मयूरों वत नादित होकर वर्षा माँग की कोई पाठशाला ना होकर भी साहित्यों की सार ऋचाओं के मूल में भी सचेतन प्रवाहों की स्पष्ट वन्दना ही झरित है । मूक प्राणों में भी संगीत है , यह सितार के तार तार कहते ही हैं सो आवश्यकता है वहाँ ठहरने की जहाँ गलन हो । कभी तापित तो कभी शीतलतम तो कभी हरित ... जड़ताओं का कोई निदान ही नहीं है मात्र वह हर कर हरित कर ली जावें ...जा,, किसी प्रफुल्ल नदी में जा पिघल , हे तृषित कुण्ठित प्राण ... वह तुझे पद्म बना सकती है ।
मैं एक ध्वनि हूँ परन्तु मुझे अश्रोताओं से कतई शिकायत नहीं । जिन्होंने पूरे जीवन जल का सँग किया और उसके भिन्न भिन्न गीत ही नहीं सुने वह श्रोता हैं भी नहीं ... और ऐसी दशाएँ ब्यार सँग झरित उस बिन्दु की झूमती छम छम को कभी अपहरित कर नहीं सकती । सुना तुमने पूरे जीवन सँग रहे जल तरंगों को ??? ... ...
जिसने बिन्दु के धीमे गीतों को पूरा सुनने की लालसा में किसी आई वर्षा को पूर्ण सँग नहीं किया , बिन्दु नहीं सुनी तो वर्षा की कहाँ सुनी और वर्षा की भाषा समझ न बनी तो घन (बादल) की तो कहां ही बनी और जो बादल की गर्जना ना झँकृत की तो नवघन सँग ... कैसे ???
अनन्त अनन्त ध्वनियों सँग सदैव उत्सवित अनन्त गीतोत्सव है वह मेरे नृत्यमय महासागर ...
---युगल तृषित
आपको कोई व्यक्तिविशेष नहीं सहजता का सँग हो क्योंकि प्रेम सहज है , मेरा अथवा किन्हीं का स्वर प्रिय न हो ...सहजता और सरलता के समिश्रण से निसृत स्वर की लालसा हो ...ललित होती वसुन्धरा के सँग पक्षियों वत उन्माद वर्द्धन हो ।
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