परस्परता , तृषित

रस्परता

विधि की प्रत्येक कृति नवीनता मयी है और यह नवीनता ही सेवा होनी है । इस ही पृथक निज-स्वभाव का अनुभव होना दूभर होता है । सर्व रूप व्यापक अभिन्नता तो प्रीति-प्रियतम का विलास है । व्यापक अद्वेत का मूल स्वरूप श्री युगल स्वरूप है , वहीं मूल अद्वेत है जहाँ आराधिका शक्ति और उसके प्रेमास्पद अभिन्न अनुभव में जागृत-स्वप्न-सुक्षुप्त का परस्परात्मक भाव जीवन अनुभवित कर रहे हो । यह बात कहना सरल है परन्तु स्वरूप और स्वभाव आभरण इतना सरल केवल निर्मल प्रीति में है जैसे अग्नि जल के प्रेम में शीतल और जल अग्नि के प्रेम में दाहिका मय हो जावें । परस्परता से मेरा क्या अर्थ यह किन्हीं ने पूछा , वह परस्परता अप्राकृत अनुभव है उसका प्राकृत कोई अन्य प्रमाण है नहीं । अतः विशुद्ध अभिन्न सम्पूर्ण तत्व श्रीयुगल रसराज-महाभाविनि का अभिन्न विहरण है । श्रीयुगल रूपी सम्पूर्ण केन्द्र भूत महाप्रेममयता में भीगे रसतत्व की सेवा-अर्चना-दर्शन-प्रदक्षिणा-नमस्कार करने वाला जो अद्वेय सेवक तत्व है वह नित नवीन चिन्मय सेवा ही स्वयं स्वरूपभूत है । अनन्त सेवाएँ ही अनन्त सेविकाओं का जीवन हेतु है । अनन्त सेवाओं को सेव्य श्रीयुगल स्वरूप का विस्मरण ही अनन्त नवीन अभिसार है अथवा सर्ग से विसर्गता है । भावुकों को यह सब समझना जटिलता लगेगी परन्तु भावरस को मात्र भावुक की कल्पना मानने वाले तत्व-प्रख्याताओं का निज-अंतर भी आन्दोलित होवें , कथित दृष्टा को वास्तविक दृश्य सुख प्राप्त नहीं यह घनिभूत ललित करुणा है । तृषित । यह ही अद्वेत श्री युगल की सेवामयी द्वेत स्थिति है जो कि मूल में सेवा होकर अभिन्न रस का ही विस्तार मात्र है महाभाव की कायात्मक व्यूहता , जैसे कोई नृत्यांगना अपनी कलात्मक मुद्राओं से नीरस मंच को रँग-रस में बारम्बार नवीनताओं सँग जीने को उन्मादिनी होती है , यही नवीन उन्माद कायात्मक व्यूहता है । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम ।

भाव साधक अपनी दृष्टि को नित्य सेवा में अन्तर्मुखी ही रखें तब वह प्रपञ्च में सुगन्ध रूप ही दृश्य रहती है ।
दृश्य में अंतर(हिय) के दृश्य का दर्शन होने से दृश्य का स्वरूप आंतरिक रसास्वादनीय ही रहता है ।
बात जटिल लगेगी परन्तु अनुभव सिद्ध होने पर जीवन अभिन्न सुगन्ध में भीतर बाहर के भेद से परे स्वतन्त्र सेवामय हो रहा होगा । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । 

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