भजन का मर्म *श्री प्रभु के नाम , स्वरूप , गुण , स्वभाव , लीला , रुचि , हर्ष और आह्लाद से अभिन्नत्व की प्राप्ति भजन है ।* हम सभी प्राकृत प्राणियों की स्वभाविक बाह्य स्मृति है दृश्य प...
नहीं ! उनसे अपना प्रेम समेटा नहीं जाता ! नित्य नव महा मिलन से वें व्याकुल , स्पंदित , तरंगित रहते है ! जैसे - लहरें तरंगित होती है ... किसी बाहरी मिलन को छु कर ! नित्य मिलन ... प्रेम की वो म...
भाव रस से भीगी चेतना एक नव खिलते फूल सी सरसता उड़ेल रही होती है । फूल पर भृमर - अलि समूह झूम रहा होता है , फूल उन भृमर समूहों को रसदान करते हुए भी किसी से अपेक्षा नही रखता है । अपेक्षा रहित व्यापार निष्काम वृति है और निष्काम वृति जब व्यापक अपनत्व देखकर सँग करती है तब प्रेम प्रस्फुटित होता है और वही रस है । शास्त्र सिद्ध होने का स्वरूप बताता है गौ - नदी - वृक्ष वत उदारता का बढ़ता प्रस्फुटन । इस वृति को सन्त कहा जाता है । जब तक चेतना में कोई कृपण बिन्दु है विश्राम सुख नहीं मिलता । अपनी चेतना के बिन्दु-बिन्दु को उत्सवित चाहने हेतु जीवन को उत्सववत नित्य रखने का प्रयास रखिये । वांछित भाववस्तु निवेश पर ही प्राप्त होगी , रस दीजिये तो रस बढ़ कर मिलेगा । प्रेम दीजिये तो प्रेम बढ़ कर मिलेगा । उत्स दीजिये तो उत्सव बढ़कर मिलेगा । खोजिए उसे जो उत्सव में उत्सवित ना हो , दे सकते हो उसे उत्स तो दीजिये । उत्स देने पर वह बढ़कर ना मिले तो मैं सम्पूर्ण जीवन निज-उत्सव का त्याग करने को शपथ बद्ध हूँ । दीजिये ...मिलेगा । मेरे पास देने को केवल संवाद है ...विचार है । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्या...
*सहज स्पर्श* और सुनिये , अभी भीतर चित्र सजा नहीं । ...यदा-कदा इस भाँति दी टिप्पणी पर किन्हीं को आश्चर्य होता है कि कैसे तृषित को अनुभव होता है वह भावबिन्दु जो अभिव्यक्त ना हुआ हो । स्वस्थ चेतना का बिन्दु-बिन्दु निज भाव को प्रकट करता है । जैसा कि श्यामसुंदर के नाम स्मृति मात्र से हृदय अति गहन रसीले स्वरूप की छाया से भीगने लगता है । स्मृति मात्र उस चेतना की पारदर्शिता अनुभव कर सकती है (स्कैन) । किसी भी इन्द्रिय सँग से प्रकट भाव-बिन्दु उस चेतना की सम्पूर्णता को छू सकता है । अर्थात् फोन पर ध्वनि या लिखित संवाद से सम्पूर्ण चेतना की सुगन्ध मिल सकती है । परंतु यह सभी को अनुभव नही होता कारण भोग लिप्त स्थिति में रमण और वास्तविकता और अभिनय के मध्य भेद से अनभिज्ञता । कुछ ऐसे भी सँग होते है कि वह अभिनय से या वास्तविक प्रकट होते है उन्हें स्वयं अनुभव नहीं होता । परन्तु निर्मल दर्पण सभी रँगों का श्रृंगारक होता है । किसी एक रँग की परत से ढका दर्पण सही रँग ना देख पाता है , ना दिखा सकता है । यह तनिक निज विषय है , परन्तु इसमें निजता की कोई व्यक्तिगत महिमा नही है इस तरह के गहनतम अनुभव प्...
रहस्य एक विज्ञान भी है । जिसकी खुलती माँग और गहन श्रृंगार ही जीवन है । अर्थात् जीव रहस्य को हटाकर भेद को छूना भी चाहता है और बोध पर पट डालकर रहस्य का रस लेना भी चाहता है । वन में जिस भाँति सरोवर के स्वतंत्र-स्वछंद होने पर भी जलराशि की चोरी नही होती वैसे ही मौलिक रस की गहन मधुता चोरी नहीं होती । स्वयंभू प्रकट रस-भाव के विलास को नित्य नमन कर उपासक हुई वृति में भी रस लालसा का उठना ही दुष्प्राप्य है जितना रस-भाव के तिरस्कारक के लिए है । नमन या तिरस्कार में कृपा एक पर भी झरने पर कल्याण दोनों का प्रकट होता है अपितु श्रवनित स्मृति-श्रुति कहती है कि तिरस्कारक को कल्याण देकर और नमन भरे हृदय में नमनवत यह रस-भाव द्रवित होते है । यह द्रवित करुणा स्पर्श केवल कृपा से छूता है परन्तु कृपा का दर्शक कृपा ही संरचन करती है वरण गाढ़ कृपाझारी भी विषयी-भोगी को अपना स्वरूप उलझाकर दृश्य होती है । जो भावुक श्रद्धा अभाव में तर्क-सन्देह-संदिग्धता से भर ही देख पाते हो वह नित्य विलसित कृपा के गहन मधुर विलास खेल को ना देख कर प्रपंच देखते है । प्रपन्च के द्रष्टा में स्वार्थ है सो स्वार्थ श्रृंगार ही उसका रहस्य है...
रसिक आचार्यों का शरद विलास युगल के विलसित युगल नयनों में नृत्य श्रृंगार रस विलास की रंग झांकियां है निज श्रृंगार की दशा से उछलते गीतों के नृत्य विलासित नव श्रृंगार झंकार...