रहस्य अभिसार , तृषित
रहस्य एक विज्ञान भी है । जिसकी खुलती माँग और गहन श्रृंगार ही जीवन है । अर्थात् जीव रहस्य को हटाकर भेद को छूना भी चाहता है और बोध पर पट डालकर रहस्य का रस लेना भी चाहता है । वन में जिस भाँति सरोवर के स्वतंत्र-स्वछंद होने पर भी जलराशि की चोरी नही होती वैसे ही मौलिक रस की गहन मधुता चोरी नहीं होती । स्वयंभू प्रकट रस-भाव के विलास को नित्य नमन कर उपासक हुई वृति में भी रस लालसा का उठना ही दुष्प्राप्य है जितना रस-भाव के तिरस्कारक के लिए है । नमन या तिरस्कार में कृपा एक पर भी झरने पर कल्याण दोनों का प्रकट होता है अपितु श्रवनित स्मृति-श्रुति कहती है कि तिरस्कारक को कल्याण देकर और नमन भरे हृदय में नमनवत यह रस-भाव द्रवित होते है । यह द्रवित करुणा स्पर्श केवल कृपा से छूता है परन्तु कृपा का दर्शक कृपा ही संरचन करती है वरण गाढ़ कृपाझारी भी विषयी-भोगी को अपना स्वरूप उलझाकर दृश्य होती है । जो भावुक श्रद्धा अभाव में तर्क-सन्देह-संदिग्धता से भर ही देख पाते हो वह नित्य विलसित कृपा के गहन मधुर विलास खेल को ना देख कर प्रपंच देखते है ।
प्रपन्च के द्रष्टा में स्वार्थ है सो स्वार्थ श्रृंगार ही उसका रहस्य है । यथा - बहुतायत हमें साधक कहें है कि हम उनसे मिलकर या दूरभाष सूत्र आदि से गहनतम चर्चा करें पर अन्यत्र यह न सुलभ हो । अर्थात् जीव की भावना को अगर एक ऐसा खजाना खोजना है जो केवल उसे ही मिलें , शेष को असुलभ हो और शेष की इस रस निर्धनता से उसे विशेष सुख की झलक मिलती हो कि मेरे पास जो रस है वह सबके हेतु अप्राप्य है तो यह सम्पूर्ण स्थिति कृपा-स्पर्श रहित प्राकृत माया छद्म भर है । कृपा स्तर से झाँकने पर रस या रहस्य नित्य बह (झरण) रहा है और नव-नव-नवीन होकर गलितोत्तर गलित गुहा सजा रहा है । विलास तो विशेषतम गहन निधियों की गूढ़ सेवा वर्षा है । जीव को भौतिकी विलास में भी विषय-भोग राजसिक आकृति में परोसे जाते है । सो गूढ़ सेवाओं की गहन रसिली भाव वर्षा *विलास* है , जो कि महाभाव के अनन्त अभिसारित श्रृंगार वृतियों द्वारा श्रृंगारित होकर महाभाव भरित अभिसार रच रहा है । महाभावित प्रति अनुभव अति मधुतम होने पर भी मूर्त निज महाभाव का आस्वादन ना होकर , विलसित-कैंकर्या की विलास सेवा ललक छू भर लेना महाभाव के महाभाव को नमन है । यह मंजरी , किंकरी अगर स्वयं ही अभिसार से झिझक रही हो तब वह स्वयं प्रकट ही इसी अभिसार से हुई कोई भाववृत्तिका है जिसे पुष्पवत माधुर्य सेवा देते हुए अभिसारार्थ नित्य आर्तिका समेटनी है । सहज रसलोभी को जितनी सहज शीतल सुगन्धित रस की तरल मधुता के झकोरें छू रहे होते है , रस सेवी को उतनी ही प्रीति आर्त का उपचार रचना होता है । विलास दर्शन और विलास रचना दोनों स्थितियों का मार्मिक बिन्दु सुख की इह स्थल से तदाकार सुख में समावेश होकर केलिलालसाओं के आर्त झेलने से हिलोरित प्रीति वर्षाओं की अनन्त निज भावना वृति का सुखसेज सेवा विलास रचना एक सहज क्रीड़ा है । सुख का प्राकृत स्वरूप छोड़ा या त्यागा जा सकता है । सुख का रसीला यह युगल सुख स्वरूप असम्भव त्याज्य सुख है । जिस सुख का त्याज्य असम्भव हो वही निजतम सुख है , और किंकरी के लिये पियप्यारी का सुख विलास का नवीन नयनों में हिय से हिलोरित होकर भरता भाव विलास रच देना ही रस (रहस्य) का सहज भाव श्रृंगार है । क्या यह लौकिक जननी शिशु को रुदित छोड़कर शिशु हेतु हियभरित रस पाकर उसे गुप्त रखने की चाह कर सकती है । जबकि वह रस गुप्त ही प्राप्त होता है परंतु रसवर्धन रससेवा से होता है और सेवार्थ यह रस , प्रीति रस से ही प्रकट होता है । बद्ध-साधना से रस आविष्कार नहीं होता । तृषित । कृपा स्पर्श से रस-झरण रोगवत् लग सकता है । रस-अभिसार (झरण) रसिक प्रियतम का जीवन है ...विलास है । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
रहस्य वही रहस्य है जो सन्मुख होकर भी गुप्त रहें ।
शास्त्रबोध अथवा भक्तिपथ दोनों का मर्म जिस कुँजी (चाबी) से खुलता है वह कृपाशक्ति है । कृपा शक्ति महारात्रि होकर रंगों को भी कृष्ण और भास्कर(प्रकाश) होकर कृष्ण को भी रँगमय प्रकट कर सकती है ।
भक्ति वंशानुगत या जाति-क्षेत्र आदि अनुगत नही प्रकट होती । वह भावानुगत भावद्रव्य है । उसे स्थूल चेतना के लिए प्राकृत ढांचा भी लेना हो तब भी स्पर्श स्वभाव कृपा से ही टपकता है । श्रीकृष्ण अनुराग में चिंतन से नृत्य हो उठता हो एक वह गोपिकाएं है और एक वह अनन्त सैनिक-योद्धाओं का विपुल समाज है जो इन्हीं के सरस् दर्शन को ना कर सन्मुख युद्धमय है । उन्हें ललित लीला लालसा का तृषित बिन्दु ना छुआ सो अपने अपने प्राकृत पात्र में वह अनन्त बद्धजीव सेना होकर युद्धमय । तृषा स्पर्श से प्रथम कृपा स्पर्श और कृपा स्पर्श से प्रथम तृषा स्पर्श की झूम जिसे छू गई हो वह सन्मुख सुलभ रस को अनुभव कर सकता है ।
तत्व अनन्त में पूर्ण अभिसारित होकर अपना ही निषेध धर्म प्रतिपादित करता है । तत्व का सविशेष अनुभव व्यापक में व्याप्त होने पर भी किसी-किसी सविशेष को ही छूता है । अगर वह स्पर्श किसी प्राकृत को छूता है तब उसे ही श्रीकृपासुधा झारी (स्थूल चेष्टा) भर अनुभवित होती है । शेष लोलुप्त को उसकी लोलुप्ति किसी भी दुष्प्राप्य मार्ग से सुलभ हो सकती है । श्रीकृष्ण तत्व के प्रेमी को एक बात स्मृत होनी चाहिए कि वह कारावास में प्रकट होकर भी गुप्त है , लीलार्थ प्रेमी को सँग प्राप्त है और प्राकृत खोजी कंस खोज नहीं सकता , उसके लिये कृपा से ही उद्धार हेतु आगमन है ।
(बाज़ार में मिलने वाली हर कीमती वस्तु की जानकारी होने पर भी चाह से ही वस्तु आदि का सँग चाहा जाता है । सम्भव है , स्वर्ण के व्यापारी को दवा लेने हेतु जल खोजकर किसी प्याऊँ की माटी की झारी से लाना हो , स्वर्ण से वह दवा नहीं ली जा सकती सो बाज़ार भले प्राकृत हो प्याऊँ अथवा वर्षा रूपी सेवात्मक कृपावृति को नहीं रोका जा सकता । (सेवात्मक स्वरूप में निज प्रीति-दिव्यता का विस्तरण ही गोवर्धन है)
जिस भाँति चींटी या चूहे का एक बिल रोकने पर भीतर वह नवीन मार्ग खोदकर निकलते है वैसे ही मानव के भीतर की विषय-प्रीति के दुराग्रह से बाधित भक्ति धाराएँ कृपावत मार्ग बनाकर दौड़ पड़ती है । भक्ति महारानी भले आसुर मंडल में अशोकवृति से विराजमान हो परन्तु उनकी दिव्य छटा कृपा से ही सुलभ होती है । परन्तु प्राकृत संस्कारी भीतर के रसीले क्रीड़ाविलास में कृपाअभाव से जड़ दृष्टि वश सामान्य बद्ध स्त्री को अनुभव कर लीलामाधूरी को छू नही सकता ।
बद्ध देवकी माँ के सुहार्द से कंस और सियाजू की हरण लीला से रावण ने अप्राप्य प्राप्ति को पाया सो तत्व सर्व प्रथम विपरीत के चिंतन सँग उसकी ओर द्रवित होता हुआ बहता है ।
लीला नित्य प्रकट होकर भी अस्पर्शित है , कारण लोलुप्ति-अभाव । लोलुप्ति अभाव की वेदना से निष्क्रियता में प्रकट सदृश्य कृपा का दृश्य अनुभव लीला रँगने लगता है जो गहनोत्तर गहन होती जाती है , कभी यह ललित लीला-श्रृंगार पूरित ही नहीं होता । कृपा की वर्षा से झरने-सरोवर-झील-कूप आदि रस पूरित होकर झारी होने से सुधावत लहरित होते रहते है । लहर किसी यात्री की खोती है , उसे रहस्य लगती है । सागर में अनन्त हिलोरित होती हुई झरती है । महाभाविनी की एक अवस्था है अभिसारिका । तृषित ।
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