उत्स लहर , तृषित
भाव रस से भीगी चेतना एक नव खिलते फूल सी सरसता उड़ेल रही होती है । फूल पर भृमर - अलि समूह झूम रहा होता है , फूल उन भृमर समूहों को रसदान करते हुए भी किसी से अपेक्षा नही रखता है । अपेक्षा रहित व्यापार निष्काम वृति है और निष्काम वृति जब व्यापक अपनत्व देखकर सँग करती है तब प्रेम प्रस्फुटित होता है और वही रस है ।
शास्त्र सिद्ध होने का स्वरूप बताता है गौ - नदी - वृक्ष वत उदारता का बढ़ता प्रस्फुटन । इस वृति को सन्त कहा जाता है ।
जब तक चेतना में कोई कृपण बिन्दु है विश्राम सुख नहीं मिलता ।
अपनी चेतना के बिन्दु-बिन्दु को उत्सवित चाहने हेतु जीवन को उत्सववत नित्य रखने का प्रयास रखिये ।
वांछित भाववस्तु निवेश पर ही प्राप्त होगी , रस दीजिये तो रस बढ़ कर मिलेगा । प्रेम दीजिये तो प्रेम बढ़ कर मिलेगा । उत्स दीजिये तो उत्सव बढ़कर मिलेगा । खोजिए उसे जो उत्सव में उत्सवित ना हो , दे सकते हो उसे उत्स तो दीजिये । उत्स देने पर वह बढ़कर ना मिले तो मैं सम्पूर्ण जीवन निज-उत्सव का त्याग करने को शपथ बद्ध हूँ । दीजिये ...मिलेगा । मेरे पास देने को केवल संवाद है ...विचार है । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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