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Showing posts from July, 2020

सहज मातृ रसरीति , तृषित

सहज मातृ रसरीति सहज मातृ रीति की प्राप्ति रही है । अपने जाने और माने हुए रस आहारों के अनुभव को छोड़ने पर ही सहज रस आहार मिलता है । अबोध शिशु स्थिति को निज रस रीति का आहार सहज मिल रहा होता है । अर्थात् भोग-आहार के नए-नए बाजारों ने प्रसाद रूपी रस कृपा रीति से दूर किया है । प्रसाद से रस वही मिलता है जहाँ अपने रस-आहार का कतई पृथक अनुभव न हो । सहज रस तो सहज ही प्रकट है , बस असहजता का रसाभास छुटे । माँ और शिशु की एक जाति होती है जैसे गौ का शिशु गौ वत्स । वानरी का शिशु वानर  । हिरणी का शिशु हिरण ।  गुलाब की लता पर ही गुलाब के पुष्प प्रकट होते है और अन्य पुष्पों पर गुलाब की लता का अधिकार नहीं हो पाता , अधिकार का अर्थ निज रस का सहज समावेश भरना ही है , अन्य जाति के खग को अपनी बोली में बोलना नहीं सिखाया जा सकता और अपनी साम्य रस रीति में वह निज रस सहज ही अवतरित होता है अगर आज की परम्पराओं में  शिशुओं में मातृ रस रीति की सहज एकता नहीं है तो जीवन का सौंदर्य प्रकट नहीं हो पाता ।  शिशु सहज ही अनन्य सँग करता है , माँ जिस दिशा में जावे वही या तो पीछे पीछे या मां की गोद मे ।  हिरणी...

सहज भजन कृपा , तृषित

*सहज भजन कृपा* जिन्हें पियप्यारी से प्रेम है वें भजन किसी प्राप्ति के लिये नहीं करते है । अपितु इसलिये करते है कि अपने प्रेमास्पद श्रीयुगल का गहन सँग और स्मरण इतना मीठा रस है कि उससे छूट कर वैसी स्थिति रहती है जैसे मछली की जल से बाहर । मीठे रसिले नाम और नवीन नवीन झांकियों कौतुकों से भरे पदों को नित्य इसलिये गाया या स्मरण किया जाता है कि बड़ा सुख बनता है , जब प्रति नव झाँकी या नव लीला या कीर्तनों में नवीन-नवीन लीला स्फुर्तियाँ पुलकित होती है । ज्यों शिशु को एक बार देख कर ही माँ के नयन संतुष्ट नहीं होते , वह निहारन और सँग को जीवन मानती है त्यों युगल रस के रसिकों को नित्य नवीन सुख मिलते है इन पद - कीर्तन या भजन सँग । कुछ जन कहते है कि एक बार सम्बन्ध हो गया तो भजन की क्या जरूरत है , जबकि भजन ही नहीं बन रहा है तो वें स्मृति शून्य साँसे ही अनन्त मृत्यु की पीड़ा प्रेमी को अनुभव होती है और प्रेमी रसिक जब तक सर्व स्थितियों में एक नाम या स्वरूप सँग का अभ्यास न कर ले तब तक वह प्रेमी ही कहाँ है । भजन का नहीं , प्रेमी भजन हीनता से छूटने के अभ्यास करते है । फिर गहन पीड़ा के रोग स्थितियों में भी यह भौति...

सहज कौतुक , तृषित

*सहज कौतुक* किसी रस के कौतुक का अनुभव केवल कृपा साध्य है । जिस कोयल ने आम्र रस नहीं चखा हो वह उसकी मधुता की स्पष्ट भावना केवल आम्र सुरभताओं में भरी पूर्व कोक रागिनियों को सुनकर उन्हें दोहरा दोहरा कर ही रसानुभव पा सकती है ...आचार्य प्रदत भजन - वाणी कृपा की महिमाओं को केवल किन्चित समेटा भर जा सकता है , उनकी सुरभता द्वारा ही प्रदत स्थितियाँ कैसे उनकी सहज महिमाओं को पुकारें । बस हृदय चाह उठे कि हृदय पर जो लीला कौतुक झलकें ...वह वही झलकें जो सहज ही नित्य क्रीडित होती आ रही हो , उसमें निमिष रति मात्र कल्पनाओं की मृतिका न छुटे ।  प्रत्येक खग जाति की अपनी कलित ललित नवेली भावनाएँ नृत्यमय है । प्रत्येक पुष्प की अपनी सौंदर्य आकृतियां और सुरभता आदि नई माधुरियों में उच्छलित है । किसी भी खग जाति का वन बिहार भी कल्पना नहीं हो सकता क्योंकि उनका अपना अपना भाव मुद्रा विलास है  और ना ही पुष्पों की छबि से उनकी सुरभित पृथकता को कल्पनाओं में उतारा जा सकता है क्योंकि प्रत्येक कुसुम जाति की अपनी सुरभता है । त्यों अनन्त अनुरागों-रागों रस भावों-अनुभावों में श्रीप्रिया और उनकी सहचरियों का विलास ललित लील...

वर्षा विनय , तृषित

*वर्षा विनय*  निष्काम - सिद्ध - वैदिक - प्रेम सभी पथ के पथिक अपने आराध्य के सुख स्वरूपों या  उनके विलास सेवकों से वर्षा की माँग कर सकते है । और यह माँग होने पर पथ के निष्काम स्वरूप में कहीं खण्डन नहीं होगा । मेरा विनय है वर्षा माँगिये । पूर्व काल में वर्षा के लिए वैदिक अनुष्ठान प्रयोग होते रहे है । वर्षा अनिवार्य माँग होनी चाहिए और वर्षा के वर्षण में मानसिक दोष प्रकट करने वालों का सँग छोड़ दीजिये या उन्हें स्पष्ट करना चाहिये कि प्राणी मात्र और तृण मात्र की तृषा वर्षा से ही रस सिद्ध होगी । (बहुतायत प्राणी वर्षा के वर्षण होने पर मानसिक या कथित भाषण करते है कि अभी क्यों आई ...तब आती ) वर्षा का समुचित अभाव है । वर्षा की माँग से वही छूट सकता है जिसने जल की बिंदु भी सँग न की हो । सो प्रार्थना कीजिये वर्षा के निमित्त और जब वर्षा हो तब अधीर भाव से प्राणों से यही पुकार उठे और बरसो न ...और । मुझे फिर कोई अधीर न दिखे इतना बरसो न । वर्षा माँगिये , आपकी कोई साधना हो वह भँग ना होगी ।