सहज कौतुक , तृषित

*सहज कौतुक*

किसी रस के कौतुक का अनुभव केवल कृपा साध्य है । जिस कोयल ने आम्र रस नहीं चखा हो वह उसकी मधुता की स्पष्ट भावना केवल आम्र सुरभताओं में भरी पूर्व कोक रागिनियों को सुनकर उन्हें दोहरा दोहरा कर ही रसानुभव पा सकती है ...आचार्य प्रदत भजन - वाणी कृपा की महिमाओं को केवल किन्चित समेटा भर जा सकता है , उनकी सुरभता द्वारा ही प्रदत स्थितियाँ कैसे उनकी सहज महिमाओं को पुकारें । बस हृदय चाह उठे कि हृदय पर जो लीला कौतुक झलकें ...वह वही झलकें जो सहज ही नित्य क्रीडित होती आ रही हो , उसमें निमिष रति मात्र कल्पनाओं की मृतिका न छुटे । 
प्रत्येक खग जाति की अपनी कलित ललित नवेली भावनाएँ नृत्यमय है । प्रत्येक पुष्प की अपनी सौंदर्य आकृतियां और सुरभता आदि नई माधुरियों में उच्छलित है । किसी भी खग जाति का वन बिहार भी कल्पना नहीं हो सकता क्योंकि उनका अपना अपना भाव मुद्रा विलास है  और ना ही पुष्पों की छबि से उनकी सुरभित पृथकता को कल्पनाओं में उतारा जा सकता है क्योंकि प्रत्येक कुसुम जाति की अपनी सुरभता है । त्यों अनन्त अनुरागों-रागों रस भावों-अनुभावों में श्रीप्रिया और उनकी सहचरियों का विलास ललित लीला मय बहता रहता है ...वर्षणमय रहता है । अर्थात् निकुँज लीला कल्पनाओं का नहीं सहजातीत सहजताओं का सार केन्द्र रस है । सो वहाँ श्री प्रियाप्रियतम के एक - एक  मुद्रा विलास की माधुरी को कोई छाया वत भी निहार कर इस प्राकृत मण्डल के किसी भी खग की किसी भी नृत्यमयी हरकतों को निहारें तो वह आभासित लीलानुभव पुनः - पुनः हृदय सरोवर उमग-हुलस पड़ेगा । श्रीप्रियाप्रियतम के वन विहार और लीला केलियों में गहन मधुर नित्य पुलकती खिलती नई ही मुद्रा विलसित है जो कि गहन सार होकर तरल शीतल मधुर कोमल हिलोरें है  और इनकी ही यह तरल लहरें -तरँगे - उमंगें उछल कर बिन्दु मात्र ही  सम्पूर्ण भुवनों में रस-रूप का भण्डार है अर्थात् व्याप्त समस्त आश्चर्यमय श्रृंगार विलास (खग-पुष्प-फल आदि) केवल श्रीप्रियाप्रियतम के विलास की छाया भर ही है । रस की इन छायाओं के इर्द-गिर्द ही रस के गहन गोप्य अनुभव छिपे है जो कि किन्हीं लोलुप्त तृषाओं के हृदय पर झूम जाते है , तब वें हृदय खग-खग या फूल-फूल को निहार सम्मोहन मूर्छाओं में धकेला सा स्वयं को पाते है क्योंकि वहाँ न वें खग सामान्य है और न ही वे पुष्प समूह । श्रृंगार रस के इन उपमाओं का आँकलन त्याग इनके सँग को रस कृपा मानकर उनकी एक एक नई मुद्रा या झूम में बाँवरी दासियाँ अपने हृदयेश्वर के उल्लास विलास की मौज भर भर बलिहारित ही रह जाती है । स्मृत रहवे कि भाव विलास हृदय पर ही प्रथम प्रकट होगा , और उसकी छाया भर ही प्राकृत चिन्हों में प्रसाद कृपा में झलकती रहेंगी । अनन्त श्रृंगारों का सार भी श्री पियप्यारी के एक एक रोम के अनुराग सँग नए नए हिंडौल सुखों में श्रृंगारित होने को आतुर है सो श्री प्रियाप्रियतम के प्रकम्पित प्रीति विलासों के हिंडोलित सुखों के गर्जन-वर्षण का उत्स भरे अलि नयन बरस रहे होते है सघन घनिमाओं की घटाओं में भरे भरे से । युगल तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । नित्य बिहार सहज रस रीति कृपा से सहज अनुभव का आश्रय सुख और रस विषय है , वहाँ जैविक कल्पनाओं का कोई अर्थ नहीं क्योंकि कल्पनाओं की परिधि है प्राप्त बोध और सहज  लताएँ आश्रित प्रत्येक नवीन रस खग के नवीन क्रीड़ा विलासों में भीगती रहती है ज्यों वह प्रेम विवशता में सभी खगों की सभी कोक - भाषाओं की परिधि लांघ चुकी हो । अपरिमित रस कलावल्लरियाँ ... और अनन्त उमगती उड़ती हृदय हिन्डोलिकाएं ।

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