सहज मातृ रसरीति , तृषित

सहज मातृ रसरीति

सहज मातृ रीति की प्राप्ति रही है । अपने जाने और माने हुए रस आहारों के अनुभव को छोड़ने पर ही सहज रस आहार मिलता है । अबोध शिशु स्थिति को निज रस रीति का आहार सहज मिल रहा होता है । अर्थात् भोग-आहार के नए-नए बाजारों ने प्रसाद रूपी रस कृपा रीति से दूर किया है । प्रसाद से रस वही मिलता है जहाँ अपने रस-आहार का कतई पृथक अनुभव न हो । सहज रस तो सहज ही प्रकट है , बस असहजता का रसाभास छुटे । माँ और शिशु की एक जाति होती है जैसे गौ का शिशु गौ वत्स । वानरी का शिशु वानर  । हिरणी का शिशु हिरण । 
गुलाब की लता पर ही गुलाब के पुष्प प्रकट होते है और अन्य पुष्पों पर गुलाब की लता का अधिकार नहीं हो पाता , अधिकार का अर्थ निज रस का सहज समावेश भरना ही है , अन्य जाति के खग को अपनी बोली में बोलना नहीं सिखाया जा सकता और अपनी साम्य रस रीति में वह निज रस सहज ही अवतरित होता है अगर आज की परम्पराओं में  शिशुओं में मातृ रस रीति की सहज एकता नहीं है तो जीवन का सौंदर्य प्रकट नहीं हो पाता । 
शिशु सहज ही अनन्य सँग करता है , माँ जिस दिशा में जावे वही या तो पीछे पीछे या मां की गोद मे । 
हिरणी के शिशु पर अन्य वनचर का ज्यों अनन्य अधिकार नहीं होता जैसा कि हथिनी या सिंहनी का मातृ भाव से वह सँग नहीं कर सकता त्यों ही हमारी स्थिति रहवै अर्थात् जातीय उत्सवों के प्रति उत्साह सहज बना रहे ।  अभिन्नत्व को अनुभव करने पर मातृ रीति को अपने तरीके से नहीं चलाया जा सकता है अपितु वैसे ही सहज चाल ढाल मिल जाती जैसे मातृ रीति रही हो , अश्व का शिशु क्या ऊँट के शिशु की जीवन यात्रा को अपना सकता है , अधर्म सँग से अपने प्राप्त रस रूप वर्ण का अनादर प्रकट होने पर ही सहज रस रीति की सहज प्राप्तियाँ खण्डित होती है वरण हिरणी के शिशु को त्रिंभगी चाल सहज ही प्राप्त है ...वह गज समूह या अन्य वनचर समूह से अपनी चाल भूल जावें तो जो रोग प्रकट होगा वैसी ही भाव स्थितियाँ आज मानव का जीवन है । मातृ रीति के आदर से सहज जीवन भोग सौंदर्य मिल जाता है ।
माँ शिशु में रस के अनुभव भरती है और आज शिशु ही मातृ रीतियों को नव नव प्रादेशिक भोग अर्पित करती है यह वैसा ही है जैसे कि गौ वत्स को अन्य वनचर का दूध पान कराना , गौवत्स का पोषण गौ रस में निहित है सो गौ वत्स को अपनी रस माँग जननी गौ को बतानी नहीं पड़ती है । मानव की दशा विकृततम है कि वह जननी शक्तियों के द्वारा दिये आहार को दीर्घ काल से खो चुका है सो ज्यों सभी जीवों का धवल दूध एक अनुभव होता है त्यों ही अपनी निजतम परम्परागत भावरस स्थितियों का सँग भँग हो चुका है । बलिहार उन-उन शिशु (वनचर-नभचर आदि जातियां) स्वरुपों की जो आज भी मातृ द्वारा ही रस देने पर आहार लेते है अथवा सहज निष्प्राण हो जाना चाहते है । क्या एक चिड़िया के शिशु को जो आहार मातृ चिड़िया देती है वह कोई वैज्ञानिक मनुष्य भी दे सकता है ??? आज मानव समाज में वर्ण-भाव-रस के अनादर का ही वितरण है कि वह वनचरों का भी सँग करें तो उनके रस आहार परम्पराओं को जानबूझकर खण्डित कर सकता है , ...क्या गौवत्स को गौरस ही देने का सामर्थ्य आज की मानवता में है ???

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