सहज भजन कृपा , तृषित
*सहज भजन कृपा*
जिन्हें पियप्यारी से प्रेम है वें भजन किसी प्राप्ति के लिये नहीं करते है । अपितु इसलिये करते है कि अपने प्रेमास्पद श्रीयुगल का गहन सँग और स्मरण इतना मीठा रस है कि उससे छूट कर वैसी स्थिति रहती है जैसे मछली की जल से बाहर । मीठे रसिले नाम और नवीन नवीन झांकियों कौतुकों से भरे पदों को नित्य इसलिये गाया या स्मरण किया जाता है कि बड़ा सुख बनता है , जब प्रति नव झाँकी या नव लीला या कीर्तनों में नवीन-नवीन लीला स्फुर्तियाँ पुलकित होती है । ज्यों शिशु को एक बार देख कर ही माँ के नयन संतुष्ट नहीं होते , वह निहारन और सँग को जीवन मानती है त्यों युगल रस के रसिकों को नित्य नवीन सुख मिलते है इन पद - कीर्तन या भजन सँग । कुछ जन कहते है कि एक बार सम्बन्ध हो गया तो भजन की क्या जरूरत है , जबकि भजन ही नहीं बन रहा है तो वें स्मृति शून्य साँसे ही अनन्त मृत्यु की पीड़ा प्रेमी को अनुभव होती है और प्रेमी रसिक जब तक सर्व स्थितियों में एक नाम या स्वरूप सँग का अभ्यास न कर ले तब तक वह प्रेमी ही कहाँ है । भजन का नहीं , प्रेमी भजन हीनता से छूटने के अभ्यास करते है । फिर गहन पीड़ा के रोग स्थितियों में भी यह भौतिकी शरीर भी सहज रस के ही सँग में रसमय रहता है । सिद्ध रसिक कदापि भजन शून्य नहीं होते है , तब भी वें भजन के सिद्धांतों के अनुश्रय में रहकर नाम भजन भजते मिलते है । वह सुमिरन से नाम भजन जब प्राण सुख हो जाता है , तब उसका सँग छोड़े नहीं छूट पाता है । बहुत से जन यह भी सिद्ध करते है कि हम माला से नहीं , मन से भजते है । परन्तु मन ने यह कब कहा कि सुमिरन के सँग के सुख को त्याग कर ही वह भजेगा , वो सुमिरनी कोई वस्तु मात्र नहीं रहती है एक अनिवार्य सुहाग श्रृंगार हो जाती है किसी प्रेमी वधुता के लिये । अपने प्रेमी का आचार्य रस रीति से प्राप्त भजन तो प्रेम का श्रृंगार है , भार कदापि भी नहीं ।
हम केवल अपनी ओर से मान्यता प्राप्त प्रेमी ही हो और रसिक कृपा न घटी हो तो भजन महिमा कितना ही कहने सुनने पर स्पष्ट नहीं होती है । किन्हीं रसिक के आश्रित कृपा पात्र हो वे रसिक सँग को लौकिक सँग वत ही अनुभव नहीं करते है , वह दिव्य सँग भजनार्थ कृपा ही है । पात्र कभी नहीं कहता कि कल तो दूध उबाला था फिर आज क्यों वही सब ... ???
मिलें हुए रस की महिमा गान सहज ही स्वर को गीत कर देती है , अपने प्रेमी के अति प्रेम में भीगकर रोमांचित हुआ प्राण ही सहज भजन के सहज व्यसन को छू सकता है कि ... क्यों बारम्बार कूकती है कोयल ? और क्यों मोर बारम्बार पुकारता है ? क्यों सभी खग चहकते रहते है ? और क्यों जल में मीन तैरती रहती है । सहज भजन ।
भजन केवल अभ्यास नहीं है , भजन ही बीज है और भजन ही आधार -आश्रय । भजन जीवन रस है ज्यों भोजन - जलपान की जीवन मे अनन्त आवृत्तियाँ होती है पर मन कभी नहीं कहता कि सदा यह पुनरावृत्तियाँ क्यों ? मन के इन व्यर्थ विकल्पों को वहीं मानता है जिन्होंने भजनान्दित रसिकों का सँग न किया हो । वरण मन भोजन-साँस-जलपान आदि की पुनरावृत्तियों के लिये कभी तर्क नही करता है क्योंकि मन स्वयं को शरीर के सुखों से अभिन्न और विशुद्ध सत्व स्वरूप की सहज भावना से पृथक पाता है । क्या लोक में परिजनों के स्मरण को मानसिक ही सँग किया जाता है या उस स्मरण का एक बृहद दूरभाष सेवाओं का अपना तरँगित जाल है (मोबाईल नेटवर्क) , लोक में दूर बैठे परिजनों को भी केवल मानसिक स्मृत किया जावें कोई यन्त्र आश्रय न हो प्रयोग हो तो सिद्ध कैसे होगा कि उन्हें स्मृत किया गया है , परिजन स्मृति से तुरन्त उनके सँग यन्त्र माध्यम से वार्ताएं होती है । त्यों सुमिरनी श्रीप्रियतम की निजता है उनके कोमल हृदय की कोमल वृन्द कणिकाएं और मानसिक भजन को प्रियतम द्वारा दी भेंट कृपा रूपी सुमिरणी सँग करने पर स्पष्ट ही वह स्मृतियाँ (नाम भजन) उन्हें आह्लादित करती ही होगी क्योंकि यह वृन्द कणिका आश्रय उनका ही हृदय आह्लाद श्रृंगार है । जो प्राणी अपने परिजनों को किसी भी यन्त्र द्वारा सँग करता हो , केवल मानसिक सँग से लोक व्यवहार नहीं निर्वह करता हो ...वह अपने तार्किक सुमिरणी के बहिष्कार को सिद्ध तभी कर सकेगा जब जीवन से कलम-पत्र आदि तक माध्यमों को निरस्त कर ऋषियों भाँति केवल सिद्ध देह से लोक सम्बन्ध रख सकता हो । लोक सम्बन्धों में सहज ही माध्यमों को धारण कर हम क्यों सुमिरणी सी दिव्य भेंट कृपा के सँग से सहज प्रकट भजन को अपमानित करते है । वास्तविक भजन रसिक तो जानते है कि भजन तो स्वयं सुमिरणी जू ही सहज ही धारण करती है और उनके सँग आश्रय से ही किन्चित कृपा दास पर छिटक जाती है । सिद्ध रसिकों के लिये यह माला-सुमिरणी इष्ट द्वारा भेंट प्रसादी ही सदा है जिसका प्रयासत: सँग इष्ट के प्रेम का आदर है ज्यों प्रेमी वर द्वारा दिये श्रृंगारों से वधु आह्लादित होती हो । युगल तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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