Posts

Showing posts from December, 2020

स्पंदन , तृषित

स्पंदन अन्तःकरण स्पर्शित करुण प्रभा रस स्पंदन  आवेशित चेतना तापित भाव-घर्षण स्पंदन  प्रीतिरमण शरदचंन्द्राभरण स्पर्शित करुणप्रभा रस अन्तर्भरण स्पंदन  भावेशित विशुद्धसत्व प्राणातुर हिरण्यतपित तृषितभाव-घर्षण स्पंदन   स्थूल वेदी पर कुमुदीनियों का चरण ताल स्पर्शित स्पंदन अरविन्द रागिनी सजनी उरागमन नैन झरित अश्रु स्पंदन  बासंती वीणा पर फूहरित रजकन्द सौरभ मधुर पुलकित शरदिय स्पंदन  हरित मन हरिणी मनहर सजिनी अधर कम्पित पद सेवनातुर स्पंदन  सुरभित मन्द सुरम्य तव अंगिनी झरित रव मधुर सुगन्धित स्पंदन प्रीतिउन्मादिनी उररागिनी हियममप्राणप्रिया अधर तृषा दायिनी स्पंदन  आलिंगित नित्या तरंगिनि मधुरा प्रेमातुर नितराग नव दायिनी स्पंदन अधरन झरित मधु ममहिय भाव वर्षिणी चुम्बित ममप्राण स्पंदन  हियवसित सुधानिधि हितवासिनी नवरागित नवपँखुर स्पंदन मृदु-लता मधुझरपद्मिनी प्रफुल्लनयन तृषातुर कोकिल स्पंदन  नीलपद्म पँखुरहंसिनी राजित चरण नवानुरागित भावांकुर जावक स्पंदन रंगित रँगीले हँसिले हँस भावन झर-झर निरखनी कुमुदिनी मुदित स्पंदन  मंजुल गौरता श्यामल कालिन्दी वत्स...

श्री श्यामाश्याम नाम माधुर्य , तृषित

श्रीयुगल श्रीश्यामाश्याम के प्रत्येक नाम के प्रत्येक वर्ण (अक्षर) मात्र में ही नहीं उस नाम के लिये उठे लालसा रूपी रव-रव (स्वर हेतू वायु का स्पंदन) में श्री रस रीतियाँ दोनों को पूर्ण परन्तु नव-नव भाव छवियों में पूर्ण पीती पिलाती है । रसिली रीतियों में प्रकट बहुत से श्रीनाम में इतनी अभेदता है कि वहाँ भोग - परिधान  -श्रृंगार और सम्बोधन से भी द्वेत नहीं माना गया है । इन वाणियों का एक-एक अक्षर पूर्ण-पूर्ण श्रीयुगल में मिलित होकर उन्हें सुख देकर पूर्ण रस श्री मिलित श्रीस्वरूप के महाभाव में भीगकर और उन्मादित होता हुआ रसिकों का हृदय नित्य सींचता रहा है । रस ब्रह्म - अक्षर ब्रह्म - नाद ब्रह्म यहाँ अवसर खोजते है रव रव में भरित लास्य श्रृंगारित मिलित वपु के उत्स को पुनः पुनः पीने का । इन नामाक्षरों मे सर्वदा अभिसार और महाभाव लास्यमय यूँ बिहरते है कि अभी कोई अक्षर महाभावित था तो अब वह अभिसार बन रहा है और जो अभिसार था वह महाभाव हो रहा है क्योंकि यहाँ मिलन नित्य सूक्ष्मतम तरँगित - उमङ्गित है ।  वाणियों में वर्णित ललित कौतुकों (लीलाओं) में आन्दोलित हुए श्री नामों में नवीन नवीन उत्सवित भाव मु...

दास ...सहज या अभ्यास , तृषित

*दास ...सहज या अभ्यास* जो अनुगत हो - अनुज्ञा पालन कर सेवा देना ही जीवन समझें वह दास होने के अधिकारी है और जो इस सौभाग्य से दूर है यह उनकी अपनी इच्छा और स्वभाविक प्रमाद से ही हुआ है वरन हम सभी सहज नित्य दास है । और सहज दास वह है जो अपनी गुरुता विद्वता आदि का भूल कर भी अभिमण्डन नहीं करता हो । प्रत्येक सँग में वह स्वयं को रख पाता हो केवल अबोध दासानुदास । लोक में सदृश्य है कि जितना कोई भी रोग या रोगी है उससे अधिक वैद्य है अर्थात् सलाह । स्वयं को विशेष प्रकट करने की यह प्रवृत्ति शरणागत कम और शरण्य अधिक होती मिलती है । अर्थात् भीतर से गुरुता व्यक्त होना चाह रही है , जबकि सेवा भाव प्रकट अप्रकट स्थिर होना चाहिये परन्तु दर्शन में यही अनुभव बन रहा है कि कहीं न कहीं हम सभी किसी न किसी क्षेत्र में गुरु हो जाना चाहते है । यहाँ लौकिक संस्कार की कोई गति हो या पूरा जगत ही जगतगुरु बन जावें यहाँ यह अभव्यक्ति एक दास होने के नाते दासता का भारी बाधक तत्व दिखती है । आवश्यक बने और शत प्रतिशत उस विधि में श्रृंगार हो ही त्रस्त स्थिति का तब  निवेदनात्मक वह बात प्रकट बनें । वस्तुतः सहज गुरु स्वरूप नित्य ग्रा...

सहज सेवा उन्माद , तृषित

उनके लिये ही नाचोगे तो हृदय में वे ही नाचेंगे न ।  नित्य नवीन रस चाहिये उन्हें (श्रीश्यामाश्यामजू) पिलाओ ।  जीवन रस की सरस् सेवाओं को उन्होंने ही पिया तो ऐसी तृप्ति होगी कि अहा ।।। परंतु अब हमें अपनी चिंता है । अपनी तृप्ति वाञ्छा है ।   सेवक को तो केवल स्वामी के सुख की चिंता हो ।  अपने लिये जो कुछ भी चाह रहा हो , वह उनके रंग में सँग कैसे होगा ?   ललित रस है यह ...लाल सँग लाल होना ही होगा ।  *परस्पर सुख सेवा आदि में समा जाने  की इन सहज श्रृंगारिणी अभिलाषाओं का नाम ही लीला है ।*  और इस नित्य प्राण हेतु होती लीला से अपना पृथक् सुख या जीवन या रस निकालने की स्थिति ही अहम् रूपी विकार के प्रभाव से ही जगत (प्राकृत) अनुभव है । युगल तृषित ।  बालक के रूदन पर जिस तरह मैया सो नही सकती वैसे ही चेतना को अपने नित्य प्रेमास्पद के विश्राम से ही विश्राम प्राप्त होता है ...उन्हें सुख देने से सहज सुख मिलता है ...उन्हें रस देने से रस मिलता है ...उनकी सेवा होने से ही उनके स्वामी होने का अनुभव और अपनी सेवाओं का अभाव अनुभव होता है ...उनकी ही परस्पर सुख लालस...

कटि तट पट राखैं नहीं,गूढ़ अंग रति चाव , तृषित

*कटि तट पट राखैं नहीं,गूढ़ अंग रति चाव ।* *समर केलि आरति दोऊ ,सब भोगिन के राव।।* प्राणी-प्राणी रति लालसा में है और रति की भोग लालसा होनी चाहिये रति सेवा लालसा अपने श्रीइष्ट चरणों में । श्रीइष्ट चरणों में शरणागत किसी भाव सुमन को श्रीइष्ट निज रति निवेदन हेतु अपना पा उठा लेते है तब प्रकट होती है निज इष्ट की उभय रूपी रति लालसा । एक ही माधुरी रसार्थ द्वेत रूप मदिरा होकर परस्परित होती है । रति लोभी इस जगत के हम प्राणिन को रति की प्राथमिक अनिवार्यता का ही अनुभव नहीं , रति सँग हेतू इन संगियों नित्यता अनिवार्य है ...अनन्य नित्यता । अखण्ड अनन्त अपरिमित अपनापन । बाह्य परिमंडल में नित्य सम्बन्ध अस्थिर है अर्थात् अनित्य सँग मात्र है तदपि रतिमयता प्राथमिक प्रकट है , जबकि रति हेतू सँग नित्य सँगी होना ही चाहिये और ऐसी दशा में केवल नित्य सहचर परस्पर प्रेम स्वरुपों में ही रति सहज सरस् वरण्या है । मुझे कोई पुष्प माला पहना भी दे तो सम्भवतः उसे उतारकर अपनी श्रृंगार हीन सहजता में लौटने के लिये यह स्वभाविक दास स्थिति आन्दोलित हो उठे । अर्थात् श्रृंगार का आदर कहाँ है , वहीं जहाँ वह नित्य सँग और नित्य नवीनताओं...