श्री श्यामाश्याम नाम माधुर्य , तृषित

श्रीयुगल श्रीश्यामाश्याम के प्रत्येक नाम के प्रत्येक वर्ण (अक्षर) मात्र में ही नहीं उस नाम के लिये उठे लालसा रूपी रव-रव (स्वर हेतू वायु का स्पंदन) में श्री रस रीतियाँ दोनों को पूर्ण परन्तु नव-नव भाव छवियों में पूर्ण पीती पिलाती है ।
रसिली रीतियों में प्रकट बहुत से श्रीनाम में इतनी अभेदता है कि वहाँ भोग - परिधान  -श्रृंगार और सम्बोधन से भी द्वेत नहीं माना गया है । इन वाणियों का एक-एक अक्षर पूर्ण-पूर्ण श्रीयुगल में मिलित होकर उन्हें सुख देकर पूर्ण रस श्री मिलित श्रीस्वरूप के महाभाव में भीगकर और उन्मादित होता हुआ रसिकों का हृदय नित्य सींचता रहा है । रस ब्रह्म - अक्षर ब्रह्म - नाद ब्रह्म यहाँ अवसर खोजते है रव रव में भरित लास्य श्रृंगारित मिलित वपु के उत्स को पुनः पुनः पीने का । इन नामाक्षरों मे सर्वदा अभिसार और महाभाव लास्यमय यूँ बिहरते है कि अभी कोई अक्षर महाभावित था तो अब वह अभिसार बन रहा है और जो अभिसार था वह महाभाव हो रहा है क्योंकि यहाँ मिलन नित्य सूक्ष्मतम तरँगित - उमङ्गित है ।  वाणियों में वर्णित ललित कौतुकों (लीलाओं) में आन्दोलित हुए श्री नामों में नवीन नवीन उत्सवित भाव मुद्रा विलास भी स्वयं नवीन उत्सव है । किसी भी किंकरी - मञ्जरी का कोई भी सप्राण तन्तु या नामाक्षर या श्वसन वायु का रव भी अगर पूर्ण श्रीयुगल मिलित नहीं है तो वह स्थिति अभी साधक है । वरन सर्व किंकरी का अस्तित्व श्रीयुगल रस मदिरा में होना ही है , इसी सरस मदिरा (ललित केलि) की सेवार्थ । युगल तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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