दास ...सहज या अभ्यास , तृषित
*दास ...सहज या अभ्यास*
जो अनुगत हो - अनुज्ञा पालन कर सेवा देना ही जीवन समझें वह दास होने के अधिकारी है और जो इस सौभाग्य से दूर है यह उनकी अपनी इच्छा और स्वभाविक प्रमाद से ही हुआ है वरन हम सभी सहज नित्य दास है । और सहज दास वह है जो अपनी गुरुता विद्वता आदि का भूल कर भी अभिमण्डन नहीं करता हो । प्रत्येक सँग में वह स्वयं को रख पाता हो केवल अबोध दासानुदास । लोक में सदृश्य है कि जितना कोई भी रोग या रोगी है उससे अधिक वैद्य है अर्थात् सलाह । स्वयं को विशेष प्रकट करने की यह प्रवृत्ति शरणागत कम और शरण्य अधिक होती मिलती है । अर्थात् भीतर से गुरुता व्यक्त होना चाह रही है , जबकि सेवा भाव प्रकट अप्रकट स्थिर होना चाहिये परन्तु दर्शन में यही अनुभव बन रहा है कि कहीं न कहीं हम सभी किसी न किसी क्षेत्र में गुरु हो जाना चाहते है । यहाँ लौकिक संस्कार की कोई गति हो या पूरा जगत ही जगतगुरु बन जावें यहाँ यह अभव्यक्ति एक दास होने के नाते दासता का भारी बाधक तत्व दिखती है । आवश्यक बने और शत प्रतिशत उस विधि में श्रृंगार हो ही त्रस्त स्थिति का तब निवेदनात्मक वह बात प्रकट बनें । वस्तुतः सहज गुरु स्वरूप नित्य ग्राह्य मुद्रा में भी है और वह अनुगतों के द्वारा भी निज सहज सरसता का सींचन पी रहे होते है और सहज दास सर्वथा सर्वकाल में केवल दास है , यहाँ स्थिति यह है कि निम्न से निम्न दास में भी गुरुता का ज्ञापन देने के अवसर की तो तलाश है परन्तु दासता को सहज स्थिर रखने हेतू कोई उपाय नहीं है । लोक में अभ्यास बनें कि जिस विषय में अपनी सम्पूर्णता नहीं है उसका उपदेश ना दिया जावें और विषय का पूर्ण अनुभव भी है तो केवल एक निवेदन प्रकट किया जावें वह भी अपने भीतर की सेवक वृति या दासता को छोडे बिना । लोक में किसी भी मिलनोत्सव पर किसी भी त्रस्तता अनन्त समाधान सदृश्य है और हम यहाँ यह निवेदन कर रहे है कि ना माँगी सलाह का कतई महत्व नहीं है अपितु उससे निज सहज दास वृत्ति का सँग छूटता है । भाव भक्ति पथ पर जिसने भी जो भी सरसता पाई है वह केवल सेवक - दास ही रहकर पाई है । सन्मुख प्रभुता का ही दर्शन एक दास वृत्ति को बनना चाहिये और सन्मुख को प्रभुजी कहना भर एक स्वांग या फैशन ना रखते हुये प्रभुजी ही है यह मानकर सँग बनना चाहिये । हम देखते रहे है कि आवाज़ लगाई जाती है ...प्रभुजी पानी लाइये , प्रभुजी यहाँ कचरा है ...साफ कीजिये । इस मधुर वृति को रसिकों ने पहनाया है नित्यदासता के रक्षण हेतू सो स्मृत बना रहे कि कथन मात्र प्रभुजी सँग नहीं है , एक सहज दास के सँग तो सर्वदा सर्वकाल श्रीस्वामी श्रीप्रभु ही सहज सँग ही है । सहज रसिकों में तो परस्पर दास ही रहते हुए सँग रहता है और ऐसे रसिकों के मिलनोत्सव में परस्पर चरण धुली में ही स्वयं का सुवास अनुभव बनता है । दास भावना की सँग लालसा जिसे है वह तो दास-दास की सेवा दक्षता के प्रति उऋण सँगी है , अर्थात् सभी सेवकों में जो सेवाओं की मधुता है वह नित्य हरिदास को पीनी ही पीनी है । एक सेवक होने के नाते निम्न से निम्न सेवक से बहुत कुछ बिना सिखाये सीखा जा सकता है । सो सर्वत्र साधक को दर्शन हो विभुता-प्रभुता- गुरुकृपा सँग गुरुतत्व का । बात बात में सलाह आदि देकर भीतर के सेवक तत्व का जितना तिरस्कार होगा पथ उतना विहंगम होता जाएगा और जिस काल या जिस दशा या जिस वेला में सहज दासता ही स्थिर रह जायेगी तभी ललित सरकार सँग सेवात्मक भेंट प्रकट होगी । सेवात्मक भेंट सहज दास की सहज नित्य स्थिर दशा है और वह इस सेवा से किसी दशा में किसी भी इन्द्रिय द्वारा छूट नहीं सकते । सहज दास को तो अभ्यास करना होता है अपनी सहज दासता को गोपन रख सहज सर्वमेव सँग में खड़े होने का । यह चिंतन न कीजियेगा कि मैं सलाह ना दूँ तो विश्व तो ध्वस्त ही हो जाएगा , जगत में सारा अध्ययन मनन जीवन विभिन्न विषयों के गुरु होने का हो ही रहा है , यहाँ यह लिखित प्रयास केवल नित्य सेवा के नित्य दास की नित्य सेवक वृति के श्रृंगार हेतू अंकित किया है कि हम हरिदास अपनी ओर से दासता का तिरस्कार कभी ना करें और कहीं यह दासता प्रकट भी हो सकें तो भीतर स्थिर रहें ही रहे । युगल तृषित । विश्वगुरु होने की लालसा ने जितना रिक्त किया है , सहज नित्य हरिदास होने की लालसा उससे गहन अमृत भर भर देगी । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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