कटि तट पट राखैं नहीं,गूढ़ अंग रति चाव , तृषित

*कटि तट पट राखैं नहीं,गूढ़ अंग रति चाव ।*
*समर केलि आरति दोऊ ,सब भोगिन के राव।।*
प्राणी-प्राणी रति लालसा में है और रति की भोग लालसा होनी चाहिये रति सेवा लालसा अपने श्रीइष्ट चरणों में । श्रीइष्ट चरणों में शरणागत किसी भाव सुमन को श्रीइष्ट निज रति निवेदन हेतु अपना पा उठा लेते है तब प्रकट होती है निज इष्ट की उभय रूपी रति लालसा । एक ही माधुरी रसार्थ द्वेत रूप मदिरा होकर परस्परित होती है । रति लोभी इस जगत के हम प्राणिन को रति की प्राथमिक अनिवार्यता का ही अनुभव नहीं , रति सँग हेतू इन संगियों नित्यता अनिवार्य है ...अनन्य नित्यता । अखण्ड अनन्त अपरिमित अपनापन । बाह्य परिमंडल में नित्य सम्बन्ध अस्थिर है अर्थात् अनित्य सँग मात्र है तदपि रतिमयता प्राथमिक प्रकट है , जबकि रति हेतू सँग नित्य सँगी होना ही चाहिये और ऐसी दशा में केवल नित्य सहचर परस्पर प्रेम स्वरुपों में ही रति सहज सरस् वरण्या है । मुझे कोई पुष्प माला पहना भी दे तो सम्भवतः उसे उतारकर अपनी श्रृंगार हीन सहजता में लौटने के लिये यह स्वभाविक दास स्थिति आन्दोलित हो उठे । अर्थात् श्रृंगार का आदर कहाँ है , वहीं जहाँ वह नित्य सँग और नित्य नवीनताओं सँग वांछित है । सहज श्रृंगार प्रीति में मदीयता श्रृंगार सेवासुख में ही होती है ना कि देह भावों में सो ही लताएँ पुष्प छोड़ देती है और पुष्प कलियाँ सहज छोड़ देता है और खगावलियों के उड़ते उड़ते पंख छूट जाते है और सारङ्गित रति उन्मत्त नाग में निज त्वचा के रूखे पन का सहज त्याग नवीन श्रृंगारों हेतू सहज प्रकट होता ही है । मानव सँग भी शरीर की संसृति क्रीड़ा होती है परन्तु वह इन सहज वन श्रृंगारों की भाँति स्वयं के देहाध्यास का इतना सहज त्याग कर ही नहीं सकता । शरीर के प्रति अपनत्व का त्याग ही शरीर के श्रृंगारों का त्याग सहज प्रकट कर देता है और जो यह जानकर कर भी दे तो वह कभी सेवक सिद्ध हो सकते है इस सरस् श्रृंगार सोपान की गति में प्रेमिल स्थिति मात्र वह जो सहज संयोगित है ही । जैसा कि वनचर या खगचर या लता वल्लरी के लिये लाज की परिभाषा ही भिन्न है , वह लाज रखते है परन्तु भावात्मक और दैहिक वह निर्लज्ज ही बौद्धिक दृष्टि को अनुभव होगें । रस या रसिक स्पर्शित दशाओं को मिलन ही सहज गोचर रहता है भले दामिनी-घन हो या पुष्प की कलियाँ अथवा परस्पर वल्लरित वल्लरियाँ या कि सारङ्ग सुधामय रति वपु । परन्तु प्रकट दृष्टि की रति सेवा में रति रस का अनादर ही प्रकट हो रहा है क्योंकि हम सभी ही रति सेवक तो हो सकते है परस्पर रति के परस्पर भोगी नहीं क्योंकि हमारा परस्पर सँग अनित्य है और प्रेम अनित्य होकर कभी कहीं परिभाषित नहीं हो सकता है , सहज प्रेम का विलसित हो जाना रति है अर्थात् प्रेम की क्रीड़ा ही रति है । कुछ काल  के मात्र सँग में परस्पर दो समान भावनाओं या संस्कारों में सदा रति का जो अनुभव है वह भी रति का विशुद्ध स्वरूप नहीं है परन्तु रसमय समता दूर रहें भी तो कैसे दो अपरिचित जल बिन्दु भी परस्पर मिलकर अपने सुधा पथ खोजने में गतिमय रहती ही है । मिलन सर्वदा दो समान भावनाओं का रसमयी वैचित्रियों हेतू हुआ है और यह सब इह लोक में क्षणिक मात्र आभासित अवश्य हुआ हो परन्तु मिलन या प्रेम का उत्सव श्री नित्य मिलित सहज नित्य प्रेमी सरस प्रेमास्पद सेवार्थ उन्मादित महाभाविनि और महारस राज में नित्य प्रकट ही रहता है । नित्य रस वही हो सकता है जहाँ यह रस नित्य मिलित हो अपनी भावसुधा सँग भावसुधा में । रति (प्रेम का उत्स ...केलिवत) दैहिक ही नहीं विदेहिक (भावमय) भी गूढता की यात्रा करती है सो रति का स्वभाव ही सुरँग सघन गहन गूढ़ विलास सुधाओं में सेवा देना लेना है । यहाँ निवेदन कर दें , कि नित्य मिलित श्रीयुगल वपु से शेष हम सभी रति सेवक मात्र है और वह सेवा श्रीमिलित वपु को रति दान द्वारा सहज है , जीव को प्राप्त रति के चिंतन द्वारा श्रीसरकार के निवेदन हेतू है और लौकिक वृद्ध-प्रवृद्धजन भी नवल किशोरी-किशोरता में मिलनोत्सवों का सहज उत्सव अति सहजता से आशीष देकर प्रसन्न होते मिलते ही है यथा ...सौभाग्यवतिभव । दासी की कुल कीर्ति को इस भावना समुद्र की कोमल किशोर माधुरियों के किशोरित सुखों में सहज वर्द्धित ही है परन्तु यह रति सेवा चिंतन मात्र से भी वही दे सकते है जो रति भोगी नहीं है क्योंकि अमनिया रस यहाँ सेवामय हो सकता है । यहाँ ऐसी दिव्य भाव मूर्ति ही सहज इस निभृत केलि सुधा सेवा की मदिरा का पान कराती करती है जो कि भाव मिलन से ही पुष्टवती हो सकती हो और यह लोक तो भावराज्य शून्य है यहाँ देह मात्र ही सुख प्रधान है , भाव सेवामात्र नहीं । सो भावना सर्वथा ही सबकी ही अमनिया ही है क्योंकि भावना का भोग केवल स्वयं रस लगा सकते है क्योंकि यहाँ जो हममें प्रेमार्थ भावना है वह तो महाभावना की बिन्दुमात्र आभास स्थिति मात्र है सो सहज भावना सिद्ध होती भाव सेवा हो जाने पर और वहीं भाव सुमन दर्शन कर सकता इस परिरम्भित सुरँग रति उन्माद का । क्योंकि शुष्क प्रेमशून्य अनित्य  भोग विषय मण्डल में व्यथित सहज रति सेवा कहाँ वह महाभाव निवेदन करें जो कि उद्भवित ही सहज नित्य प्रेमाणुओं की सुधावर्षा में रहता है । सो यहाँ ही श्रीललितकिशोरी ललितकिशोर के सहज सरस् सुरँग सँग में सभी आवरण और मधुरित होने को गलित होकर स्वयं रति सेवा को सुराज्य सुख देकर आस्वदनीय विश्राम देते है और स्मृत रहें कि श्रीयुगल से शेष भोग सिद्धता केवल श्रीयुगलसेवा होने पर है शेष सर्वत्र भोग लेने पर भी अतृप्ति और कुंठा ही श्रृंगारित होती है जबकि ना भोगकर सेवा हो जाने पर ही वह भोगसेवा प्रफुल्ल उत्सवित हो पाती है । यहाँ सहज उदाहरण लोक में देखिये कि निज विवाह से अधिक उत्स-उन्माद निज वात्सल्य सन्तति के परिणय बंधन में सहज बनता है क्योंकि यहाँ श्रीयुगल से शेष सर्वत्र मिलन का सुख तो मिलन का सुख रचने में है परन्तु मिलन स्वयं सुखी है सहज नित्य मिलित रसभावसुधाओं (श्रीश्यामाश्याम) के मिलन में । यहाँ पाठक भिन्न भिन्न भावदशा के होगें सो इस सरस् रति आरत का सहज गान यहाँ सहज विस्तरित नहीं हो रहा है , परन्तु प्रयास है ... ...कटि तट पट राखैं नहीं,गूढ़ अंग रति चाव । समर केलि आरति दोऊ , सब भोगिन के राव ।। ...परस्पर मिलन के लिये नित्य उन्मादित-उत्सवित यह दो महाभाव रससमुद्र (रस सुधा निधि) अनन्त श्रृंगारित प्रेम की ललित तरंगिणी सेवाओं सँग आवेशित है सहज प्रेम के सहज मिलन उत्सव रूपी महोत्सव को बारम्बार नित्य नवीन रचने हेतू । यह केलि संग्राम (समर) प्रेमास्पद के नवीन मधुरित हावभाव और रूप श्रृंगारों में स्नान कर ही स्वयं को अनुभव कर सकता है क्योंकि सहज प्रेमियों का वास-जीवन-रस   - सभी कुछ परस्परता में है और यूँ ही अनन्त अनन्त बधाई सेवाओं की लहरों सँग दोनों रस समुद्र सर्वतोभावेन मिलनोत्सव की सहज विजय रचना चाहते है और जब दो खग - दो पुष्प - दो नदी - दो लहरें या नाग नागिन अमर्यादित होकर मिलन के सोपानों को खोज सकते है तो स्वयं श्रीमिलन केन्द्र नित्य मिलित सुरँगप्राण ललितयुगल माधुरी कैसे अपने-अपने प्रेमास्पद के सुख हेतू ना मिले जबकि इनसे शेष सर्वत्र भोग-स्वार्थ ही मिलन का हेतु है और यही ही सहज परस्पर सुखार्थ मिलन आसक्त है । प्रेम ही सहज भोग है क्योंकि भोग केवल सेवामय सिद्ध है और सेवा सहज प्रेमियों में घट सकती है और सहज प्रेम नित्य संगियों में सहज नित्य प्रकट रहता है सो यही श्रीललितप्रियाप्रियतम भोगियों के स्वामी या सम्राट ही है क्योंकि इन्होंने मिलन के अमृतसर का भोग किया है शेष में स्वार्थ ने उसी सुरभित मिलन को प्रदूषित अनुभव कराया है । यहाँ रति सहज सर्व परिधियों से परे मिलित सुधा की सुगोप्यता का सेवात्मक भोग लेकर अपना आस्वादन बना रही है और सुरँग लालसा बन और परस्पर सुखार्थ समावेशन होकर ।  अपनी वस्तु अन्य अपरिचित के क्षेत्र में गिर जावे तो वह लेना अपराध नहीं सो यहां श्रीप्रिया श्रीप्रियतम में रसाभरित होकर अपने सुअंगों का श्रृंगार और श्रीप्रियतम श्रीप्रिया भावराज्य में श्रृंगारित होकर अपना स्वरूप स्वभाव सँवार रहे है । ...कटि प्रदेश के अत्यधिक स्निग्ध प्रीति माधुरी के उत्सवित रति श्रृंगार आवेशों में सुगलित विगलित श्रीनागरी-नागर के विगत आभरणों सँग रति गोप्य  सुरँग सुअँग जडिमाओं तक वल्लभित हो रही है ...कनक-तमाल की यह लता तने से शाखाओं तक ही नहीं अपितु गोप्य भाव जडिमा (जड़) भीतर आधारनिका श्रीधरा में भागती हुई जहाँ भी गई है वहाँ- वहाँ मिलित माधुरी रेणु रेणु को छू गई है । क्या तू छुना चाहती है अमिलित श्रीवृन्द रेणु ...ना री ना ! असम्भव है यह क्योंकि केवल मिलित गलित-ललित रेणुका ही है यहाँ यहाँ । युगल तृषित । सो ... ...सो रति लालसा ने पट हटा लिए है क्योंकि तू नहीं छू पाएगी नीरस रेणु । और जीवन के प्रथम क्षण से अब तक भी रेणु नहीं भी छुई है तो रेणु की सरसता पर दौड़ती किसी लतान वल्लरी के झरित श्रृंगार फल-फूलों से भरित भीतर रक्त तो प्रवहन मांगेगा ही न सरस् रेणु रेणु । सो एक एक रेणुका से एक एक मिलित माधुरी का उत्स नित्य खेलेगा कौन ??? ...वहीं जो नित्य रति तन्मय में सर्वदा महोत्सवित हो ज्यों प्रथम संयोग और यह  पराग से पराग  का मिलन सभी ही रोमावलियाँ पिलाना भी तो चाहती है जैसे कोई लोक भोगी शर्बत में कहीं मधुता और कहीं मधुहीनता नहीं पीना चाहता अपितु बिलौनी (सेवा) आदि द्वारा सम्पूर्ण एकरसता का शीतल मधुर पेय ही तो सौम्य शर्बत (मधुरस) है । यहाँ श्रीश्यामाश्याम में अतिव सहज सम्पूर्ण माधुरियाँ सहज परस्पर उन्मादित है दो रसिली परिपूर्णताओं में सब कुछ जहां एक रसिली परिपूर्णता हो कर झूम-घुमड़-उमंग उछल रही हो ... वह हम तुम सी बहु-अनन्त-विपुल उछालें धराशायी भी तो पद रति अभिलाषा में होना चाहती है ना । नित्य नवीन वसनाभरन झाँकी बाँवरी से बाँवरी की अभिलाषा सो नित्य रति सेविकाओं को सजानी ही होगी ललित से ललित रूपावली अभिनन्दन आवेश ...और मिलन ... और मिलन । मिलाकर ही मिलता है मिलन , सो मिला देते है सहज रसिक ।।

Comments

Popular posts from this blog

Ishq ke saat mukaam इश्क के 7 मुक़ाम

श्रित कमला कुच मण्डल ऐ , तृषित

श्री राधा परिचय