सहज सेवा उन्माद , तृषित

उनके लिये ही नाचोगे तो हृदय में वे ही नाचेंगे न ।  नित्य नवीन रस चाहिये उन्हें (श्रीश्यामाश्यामजू) पिलाओ ।  जीवन रस की सरस् सेवाओं को उन्होंने ही पिया तो ऐसी तृप्ति होगी कि अहा ।।।

परंतु अब हमें अपनी चिंता है । अपनी तृप्ति वाञ्छा है ।  
सेवक को तो केवल स्वामी के सुख की चिंता हो । 
अपने लिये जो कुछ भी चाह रहा हो , वह उनके रंग में सँग कैसे होगा ?   ललित रस है यह ...लाल सँग लाल होना ही होगा ।  *परस्पर सुख सेवा आदि में समा जाने  की इन सहज श्रृंगारिणी अभिलाषाओं का नाम ही लीला है ।* 
और इस नित्य प्राण हेतु होती लीला से अपना पृथक् सुख या जीवन या रस निकालने की स्थिति ही अहम् रूपी विकार के प्रभाव से ही जगत (प्राकृत) अनुभव है । युगल तृषित । 
बालक के रूदन पर जिस तरह मैया सो नही सकती वैसे ही चेतना को अपने नित्य प्रेमास्पद के विश्राम से ही विश्राम प्राप्त होता है ...उन्हें सुख देने से सहज सुख मिलता है ...उन्हें रस देने से रस मिलता है ...उनकी सेवा होने से ही उनके स्वामी होने का अनुभव और अपनी सेवाओं का अभाव अनुभव होता है ...उनकी ही परस्पर सुख लालसा को अनुभव करने से ही प्रीतितृषा का जीवन में अनुभव होता है । युगल तृषित ।  बहुतायत बहुत से भाव साधकों की समस्या है कि मिलन कब होगा या हम कब मिलेगें ...हमारा तो सर्वदा यही विनय है कि सहज सरस् ललितकिशोरी-किशोर श्रीनित्य महाभाविनि महारसराज के मिलन में सेवात्मक डूबने या घुलने से सहज मिलन ही मिलन है । जो हृदय इन्हें (गौरश्याम) और ...और ...और मिला रहा है वह मिल रहा है नित ही और ...और ...और । यहाँ नवल ललित श्रीप्रियाप्रियतम के सहज हित की सेवा ही मिल जाना है ...इन्हें मिलाओ और मिल ही जाओ । प्रेम को प्रेम में मिलाना जीव स्थिति के सामर्थ्य में नहीं यहाँ रस रसिक कृपा बनें तो सहज ही चाह-अचाह से प्राप्त रसिक वाणी समाज हो हो कर पढा देगी ...गवा देगी ...नचा देगी रसना को रसिले श्रीनित्य मिलित वपु की सहज नित्य मिलन तृषा  ।

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